Dialogue with loved ones – November 2024
अपनों से अपनी बात…
मेरे प्रिय आत्मीय,
शुभाशीर्वाद,
आप सभी साधक नित्य पूजन, साधना, मंत्र-जप, स्तोत्र वाचन अवश्य ही करते है। यह आपकी साधना का क्रम है और सारे मंत्रों की उत्पति वेदों से हुई। वेदों की व्याख्या उपनिषदों में की गई और उपनिषदों के पश्चात् श्रुति, रामायण, भागवद्, पुराण इत्यादि ग्रंथों की रचना हुई।
श्रुतियों में ॠषियों ने जो ज्ञान अपने गुरुओं से सीखा था, वह ज्ञान अपने शिष्यों को प्रदान किया और पुराणों में सभी प्रकार के देवी-देवताओं के जीवन क्रम की कथाएं है। इसके पश्चात् ॠषियों ने विभिन्न स्तोत्रों की रचना की जिससे साधक उन स्तोत्र के माध्यम से देवताओं की और ईश्वर की आराधना सम्पन्न करें। विभिन्न स्तोत्र और प्रार्थनाएं देवों के पराक्रम को प्रणाम करते हुए, उनकी जयकार करते हुए समर्पण भाव से युक्त है।
महत्वपूर्ण बात यह है कि हमारी रचना ईश्वर ने की है। उपनिषदों में ब्रह्मा को जनक बताया गया है और ब्रह्मा के ही तीन संतानें देव, दानव और मनुष्य है। एक बार तीनों ने प्रजापिता ब्रह्मा के पास जाकर ब्रह्मचर्य पूर्वक वास किया और तीनों ने तपस्या के पश्चात् कहा कि हमें आप ज्ञान उपदेश दीजिये।
प्रजापति ने देवों को, ‘द’ अक्षर का उपदेश दिया और पूछा समझ गये। देवों ने कहा आपने हमें ‘दाम्यत’ अर्थात् इन्द्रियों का दमन करो यह उपदेश दिया है।
अब प्रजापति के पास मनुष्य पहुंचे और उन्होंने भी उपदेश की प्रार्थना की। ब्रह्मा ने उन्हें भी ‘द’ अक्षर का उपदेश दिया और पूछा कि समझ आया? मनुष्यों ने कहा आपने हमें ‘दत्त’ अर्थात् दान का उपदेश दिया है। ब्रह्मा ने कहा तथास्तु।
अब प्रजापति के पास असुर पहुंचे और उपदेश की प्रार्थना की, उन्हें भी ‘द’ अक्षर का ही उपदेश दिया और पूछा – क्या समझे? असुरों ने कहा – हे प्रजापिता हम समझ गये है, आपने हमें ‘दयध्वम्’ अर्थात् दया करो का उपदेश दिया।
जब यह उपदेश दिया तो आकाशवाणी से निरन्तर द… द.., द.. की वाणी गुंजरित होने लगी। मानों देव वाणी संसार में उद्घोष कर रही है। दाम्यत्, दत्त, दयध्वम् – इन्द्रियों का दमन करो, सांसारिक वस्तुओं का अति संग्रह न करते हुए दान करो, और प्राणी मात्र पर दया करो।
संसार की सम्पूर्ण शिक्षा इन तीनों में समा जाती है।
ब्रह्मा ने यह उपदेश इसलिये दिया कि देवों की कमजोरी इन्द्रिय शिथिलता में है। मनुष्य की कमजोरी दान न देने में है और असुरों की कमजोरी दया न करने में है। इसलिये अपने-अपने हृदय की बात तीनों केवल द अक्षर से समझ गये।
मेरा विचार है कि इस संसार में ही देव है, मनुष्य है और असुर है। सभी अपनी-अपनी बुद्धि से कार्यरत है। देवता जो कि मनुष्य रूप में है वे इन्द्रिय निग्रह करते है। श्रेष्ठ मनुष्य संग्रह की भावना को कम करते हुए दान करता है और असुर स्वभाव वाला मनुष्य दया का भाव भूल जाता है। मनुष्य और देवों ने तो ब्रह्मा के भाव को पूर्ण रूप से स्वीकार किया लेकिन असुर प्रवृत्ति वाले मनुष्यों में दया प्रकृति का विकास नहीं हुआ।
मेरे विचार से प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन में कभी देवता स्वरूप होता है, कभी मनुष्य स्वरूप होता है और कभी असुर स्वरूप हो जाता है। ये तीनों भाव प्रत्येक मनुष्य के मन में निरन्तर चलते ही रहते है। इसीलिये सब मनुष्यों की प्रकृति अलग-अलग हो जाती है। ईश्वरीय आदेश है कि मनुष्य आसुरी प्रवृत्ति से मानवीय प्रवृत्ति और मानवीय प्रवृति से दैवीय प्रवृति की ओर अग्रसर हो।
अब मैं मनुष्य गुण के बारे में कहता हूं कि मनुष्य की प्रवृत्ति बड़ी ही अजीब है। वह देवता से, ईश्वर से प्रार्थना करते समय हर समय फलश्रुति अवश्य करता है अर्थात् फल की कामना अवश्य करता है।
ईश्वर ने आपको क्या दिया है? सबसे मूल्यवांन वस्तु यह जीवन प्रदान किया है और इस जीव के साथ इसमें दिव्य शक्ति भी प्रदान की है। इस प्रकार कई-कई वरदान आपको इस संसार में आते ही प्राप्त हो गये है। फिर भी मनुष्य ईश्वर से निरन्तर वरदान की ही मांग करता रहता है। क्या मनुष्य यह विचार नहीं करे कि ईश्वर ने हमें जो जीवन रूपी वरदान प्रदान किया है और गुरु से जो हमें ज्ञान रूपी वरदान प्रदान किया है। उनके प्रति हमारा क्या कर्तव्य है? हम ईश्वर के प्रति, गुरु के प्रति समर्पण भाव कैसे लाएं?
शक्ति आप सब में है इसलिये सबसे पहले अपने मन में यह भाव स्थापित करना है कि मुझे सहारे की आवश्यकता नहीं है। मुझे जीवन में सहयोग की आवश्यकता है। सहारे में हम परजीवी हो जाते है।
विचारणीय बात यह है कि आपको निर्णय लेना है कि हमारा जीवन एक लता के समान हो या एक वृक्ष के समान हो। ईश्वर और गुरु प्रार्थना में कहते है – त्वमेव च माता-पिता त्वमेव… ईश्वर का हमें, गुरु का हमें संरक्षण प्राप्त है। पर हमारा क्या कर्तव्य है क्या हम उनके आश्रित रहे या हम स्वयं विशाल वृक्ष बनें और दूसरों को भी हम अपनी छाया, फल प्रदान कर सके।
ईश्वर और गुरु के प्रति समर्पण भाव आवश्यक है तो हमें प्राप्ति के साथ-साथ, देने का भाव भी सीखना चाहिये।
जिस प्रकार साधक हर समय गुरु और ईश्वर से आशा रखते है उसी प्रकार गुरु भी निरपेक्ष भाव से अपनी संतानों को अपने शिष्यों को देखते रहते है कि वे किस प्रकार से कार्य कर रहे है? देवता और गुरु प्रदाता है और ईश्वर रचनाकार है अब निर्णय क्षमता आपकी है कि हम अपने देव, अपने ईश्वर अपने गुरु के लिये क्या कर रहे है? जिस प्रकार हम अपनी संतानों को प्रदान कर गर्व नहीं, कर्त्तव्य का अनुभव करते है। वही कर्तव्य के भाव शिष्य-साधक का गुरु के प्रति होना चाहिये।
शिष्य और गुरु एक ही भाव है। जो शिष्य है, उसमें गुरुत्व का अंश है। जो मनुष्य है उसमें ईश्वर का अंश है।
इस भाव से ही सृष्टि का विकास शुभता की ओर निरन्तर अग्रसर हो रहा है, इस विकास में गुरु का शिष्य सहयोगी नहीं होगा, तो कौन होगा? सहयोगी शिष्य-साधक देवत्व भाव स्वयं में और संसार में संचारित कर सकता है।
सदैव शुभ की कामना करें। शुभ के लिये कर्म करें और सहयोग का भाव रखें।
-नन्द किशोर श्रीमाली
Coming soon…
Nand Kishore Shrimali