Dialogue with loved ones – June 2024

अपनों से अपनी बात…

मेरे प्रिय आत्मीय,

शुभाशीर्वाद,

प्रत्येक व्यक्ति के मन में एक प्रश्न बार-बार आता है कि मेरा जीवन धर्म क्या है? हमारे आध्यात्मिक और भौतिक जीवन में चार सिद्धान्त बतायें गये है – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। सबसे पहला स्थान धर्म का दिया गया है, धर्म अर्थात्‌‍ वे नियम, जो जीवन के आधारभूत सिद्धान्त हो। धर्म के सिद्धान्त पर चलकर ही मनुष्य अपने जीवन में अर्थ की प्राप्ति कर सकता है। अपने जीवन में काम अर्थात्‌‍ क्रिया को जाग्रत कर सकता है। पूर्व जन्म के कर्म बन्धनों का नाश कर अपने क्रियमाण जाग्रत कर सकता है। अर्थ का मूल भाव है जीवन के लक्ष्य। जीवन के लक्ष्य में आध्यात्मिक भाव और भौतिक भाव सदैव परस्पर जुड़े है।

गुरु शिष्य को उस अध्यात्म मार्ग पर ले जाते है जिससे जीवन के सभी पक्ष – अर्थ, काम और मोक्ष अर्थात्‌‍ मुक्ति का भाव, स्वतंत्रता का भाव उसके जीवन में स्थापित हो।

कई शिष्य मुझसे पूछते है कि मेरे जीवन का लक्ष्य क्या है? मैं यह बनना चाहता हूं, मैं यह प्राप्त करना चाहता हूं। उच्चतम्‌‍ स्थिति प्राप्त करना चाहता हूं। संसार के सारे सुख भोगना चाहता हूं। मैं मुस्कुराकर आशीर्वाद भी देता हूं और कहता हूं – ‘जाकि रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।’

ये जो आपकी भावना है, यह ही आपके जीवन का आधार है और इन भावनात्मक प्रश्नों के सम्बन्ध में हमारे ॠषियों ने उपनिषदों में कहा, ब्रह्मा ने वेदों के माध्यम से व्यक्त किया और भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा।

देखों भाई, धर्म है सनातन और जो सनातन है वह सत्य है और जो सत्य पचास हजार साल पहले था वही सत्य आज भी और पचास हजार साल बाद सार्थक रहेगा।

धर्म का अर्थ है नियम। जीवन में जब विशुद्ध नियम होते है तो उनकी पालना करने से मनुष्य को अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति अवश्य होती है। वह अपने जीवन में कभी भी विचलित नहीं होता। सात नियम है, सात नियम धर्म का ही स्वरूप है। इन नियमों का जो पालन करता है वही श्रेष्ठ साधक और शिष्य है।

याद रखना, धर्म का अर्थ है नियम और जो नियम का नियमित रूप से, नियम का नित्य पालन करता है वह संसार चक्र में कभी पीड़ित नहीं होता, परास्त नहीं होता, कभी भ्रमित नहीं होता।

मैंने इन नियमों को शिष्य धर्म के रूप में स्थापित करने का विचार किया है। केवल शिष्य के लिये नहीं, प्रत्येक व्यक्ति के लिये सात धर्म, नियम परम आवश्यक है।

प्रथम धर्म नियम – अपनी आत्मा को जानना, अपने मन को जानों। सदैव अपने अन्तर्मन में प्रवेश करने का प्रयास करते रहना। अन्तर्मन में ही ब्रह्म का वास है और सभी प्रकार की प्रसन्नता का केन्द्र है । ध्यान के माध्यम से, साधना के माध्यम से उस अन्तर्मन में उतरों, सभी प्रश्नों के उत्तर अवश्य प्राप्त होंगे।

दूसरा धर्म नियम – व्यर्थ के बंधन तोड़ना। विचार करो क्यों आपने अपने जीवन में सैकड़ों बंधन व्यर्थ के बांध रखे है? उनसे मुक्त होने के लिये आपको ही प्रयास करना पड़ेगा। व्यर्थ के बंधन मन और आत्मा पर बोझ ही डालते है। तोड़ों व्यर्थ के बंधन।

तीसरा धर्म नियम – धरती अर्थात्‌‍ स्थूल को जीतना। अरे भाई! स्थूल को जीतने का अर्थ है – उससे ऊपर उठना। यदि हम स्थूल चीजों से प्रभावित हो जायेंगे और उनसे अधिक मोह करने लगेंगे तो सबसे बड़ा बंधन हो जायेगा।

चौथा धर्म नियम – आकाश को देखना, बहुत विशेष बात है। आकाश को देखने का मतलब है अपने इष्ट को देखना। वह इष्ट निराकार रूप में, ब्रह्म रूप में विद्यमान है। उस ब्रह्म को अपने भीतर भी अनुभव करना और बाहर भी अनुभव करना।

पांचवा धर्म नियम है – जगत में रहकर साक्षी भाव से रहना। यह संसार चक्र तो लाखों वर्षों से चल रहा है हम तो कुछ काल के लिये आये है। यदि इसमें बहुत अधिक involve हो गये तो तुम्हारी आत्मा कभी तृप्त नहीं हो सकेगी। जीवन अशांत हो जायेगा, जो चल रहा है उसे श्रेष्ठ करने का प्रयत्न करें। पर अपने सम्पूर्ण अस्तित्व को ही उसमें डूबा नहीं दे। आपके व्यक्तित्व के हजार गुण स्वरूप है। अपने व्यक्तित्व के सभी आयामों को देंखे।

छठा धर्म नियम है – मस्त रहना, यह नियम थोड़ा कठिन है। आपने आनन्द और मस्ती को अपने कुछ कार्यों से, धन-सम्पत्ति से, दूसरों से आगे निकलने की क्रिया से जोड़ दिया है। इस क्रिया में केवल भाग दौड़ ही रहेगी मस्ती कहां से जायेगी? क्रिया करते रहे, पर आनन्द के साथ करें, अनमने मन के साथ नहीं। जब मस्त रहना, आनन्द में रहना आपका स्वभाव बन जायेगा तो हृदय की मुस्कान मुख मण्डल से भी झलकेगी और ध्यान रखना प्रसन्न व्यक्तित से मिलकर हर व्यक्ति प्रसन्न होता है। प्रसन्न रहने वाले के जीवन में ही मित्र-सहयोगी बनते है। केवल चिन्ता करते रहोंगे, दुःखी होते रहोंगे तो फिर निराशा ही आयेगी और आप जानते हो कि निराशा जीवन का विष है, निराशा आपके स्वास्थ्य को खा जाती है। अरे भाई! 2-4 बाधाएं आ गई तो क्या। प्रसन्न मन से चुनौतियों को स्वीकार करो। प्रसन्न मन से क्रिया करो। बाधाओं को चुनौती समझ कर हल करो प्रसन्न मन से।

सांतवा धर्म नियम है – सत्यता, दया, संयम, अक्रोध और मौन धारण करना। पंच सिद्धान्तों पर यह धर्म थोड़ा कठिन लगता है लेकिन जब आपके मन में ये भाव स्थापित होते है तो आपके व्यक्तित्व की आभा प्रकाशित होती है। आपके भीतर से व्यर्थ के निराशाजनक भाव समाप्त हो जाते है।

असत्य मार्ग पर किसी की उन्नति नहीं होती…, क्रोध से कोई कार्य पूरा नहीं होता, कार्य पूरा होता है संयम से। अपने स्वयं के प्रति दया रखें, दूसरों के प्रति भी रखें। दया कठोर मन को तरल बना देती है। तरलता में सरसता है, कठोरता में रुकाव है।

क्यों व्यर्थ का बोलें, वाक्‌‍शक्ति का उचित उपयोग करे और मौन रहना बहुत बड़ी साधना है।

अब आपको मेरी एक गुरु आज्ञा है, इन सप्त गुणों के साथ, सप्त नियमों के साथ एक नियम और धारण कर लेना। अपने पूरे जीवन में बाल सुलभ पवित्रता रखना, सदैव सीखने की प्रवृति रखना, उत्सुकता रखना, आशा रखना। चीजों को समझने, सीखने का भाव रखना। इस बाल सुलभ पवित्रता में शिष्यता है, इसी में प्रचण्ड शक्ति है, यही ईश्वरीय शक्ति है।

गुरु पूर्णिमा 20-21 जुलाई 2024 को कृष्ण धाम डाकोर जी गुजरात में मिलेंगे। सभी निखिल शिष्य इसी भाव के साथ एकत्र हों कि हमारे जीवन का आधार गुरु है ..

गुरु कृपा ही केवलमं… गुरु कृपा ही केवलम्‌‍…गुरु कृपा ही केवलम्‌‍…

-नन्द किशोर श्रीमाली 

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