Dialogue with loved ones – July 2025

अपनों से अपनी बात…

मेरे प्रिय आत्मीय,

शुभाशीर्वाद,

गुरु पूर्णिमा का पावन पर्व आ रहा है और इस पावन पर्व की पूर्णता के साथ ही शिव मास, श्रावण मास प्रारम्भ होता है। प्रत्येक साधक गुरु, शिव और ईश्वर का नमन अवश्य करता है। ध्यान, साधना पूजा भी करता है, फिर भी उसके मन में इतनी अधिक छटपटाहट क्यों है? उसका अन्तर्मन इतने अधिक द्वंद्व और विरोधाभासों से क्यों भरा हुआ है?

एक बात बताओं मुझे जीवन में स्थाई सुख आनन्द चाहिये या क्षणिक सुख आनन्द? जीवन में स्थाई श्रीलक्ष्मी चाहिये या भोग-विलास के लिये धन का प्रवाह।

जीवन में शांति, संतोष चाहिये या निरन्तर भाग-दौड़। कुछ लोग निरन्तर भाग-दौड़ को कर्म मान लेते है यह उनके जीवन का सबसे बड़ा भ्रम है और जो एक बार इस भ्रम जाल में उलझ जाता है वह उस भ्रम में ही भटकता रहता है और उसके सारे प्रयास और अधिक और अधिक की ओर ही गतितशील होते है और इस चक्रव्यूह से पूरे जीवन नहीं निकल पाता है।

    How much is too much जीवन में हमारे लिये कितना अधिक (अधिक से अधिक) है। जिस व्यक्ति ने इस सीमा को जान लिया है वह अपने जीवन में सदैव सन्तुष्ट, सुखी और आनन्दित रहता है और जिसने कितना अधिक आवश्यक है उसकी सीमा को नहीं जाना तो वे सीमाएं ही उसे घेरकर बन्धन में डाल देती है। सम्बन्ध हो, प्यार हो, नशा हो, कार्य हो, शरीर हो, मन हो उसकी सीमाएं निर्धारित करना ही तो साधना ही है और यह साधक ही कर सकता है।

जीवन को क्षण भंगुर कहा गया है। यह कथन सबसे अधिक भ्रम पैदा करने वाला है। जीवन क्षण भंगुर नहीं है। जीवन निरन्तर बहने वाली नदी के समान है। जीवन प्रवाह का नाम है, इस प्रवाह में आप अपनी जीवन नैय्या किस प्रकार से चलाते हो उसका नाम कर्म है।

यदि हम अल्पकालीन आनन्द के लिये अपना धन और समय व्यर्थ कर दें तो क्या यह बुद्धिमानी होगी? दस घण्टे मोबाईल में रेग्युलर घुसे रहे और दस घण्टे बाद विचार करें कि क्या मुझे इन दस घण्टों में आनन्द मिला? शायद कुछ क्षण मिला होगा, लेकिन क्या यह आनन्द स्थाई रहा, तो फिर ऐसा आनन्द क्षण भंगुर आनन्द है हमें तो ऐसे आनन्द की ओर जाना चाहिये जो स्थाई हो। हमें ऐसी लक्ष्मी की ओर जाना चाहिये जो स्थाई हो, हमें ऐसी श्री की ओर जाना चाहिये जो स्थाई रूप से यश प्रदान करने वाली हों। हमें ऐसा कार्य करना चाहिये जो हमारे मन को सन्तुष्टि और आनन्द प्रदान करें।

ऐसा आनन्द तभी प्राप्त होगा तब हमारे जीवन में शक्ति, भक्ति और समर्पण का सहयोग होगा। जब यह सहयोग हो जाता है, तो मन क्षणिक सुखों की ओर नहीं भागता है। मन को उस स्थान पर स्थिर करना पड़ता है जहां आत्मिक आनन्द, आत्मिक प्रेम अैर आत्मिक शांति का निरन्तर अनुभव हो। इस हेतु अपने मन के द्वार स्वयं खोलने पड़ते है क्योंकि आनन्द बाह्‌‍य वस्तुओं में आ ही नहीं सकता है। आनन्द तो भीतर ही है और भीतर के आनन्द के लिये कर्म, ध्यान और साधना का संयोग होना आवश्यक है।

    आन्तरिक आनन्द से ही हमारा मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य जुड़ा हुआ है। यह काल चक्र ऐसा है कि हमारा मन यह सोचने लगता है कि सुख अगली चीज प्राप्त करने में है और फिर सोचता है कि आनन्द तो उसमें है ही नहीं और अगली चीज में मिल जायेगा, शायद?

गुरु रूप में मैं कोई चमत्कार नहीं करता। गुरु-शिष्य को भावनात्मक स्थिरता प्रदान करते है और जब यह स्थिरता आ जाती है तो बाहरी परिस्थितियों से आन्तरिक शांति भंग नहीं होती और जब भावनात्मक लचीलापन बढ़ता है जो जीवन की चुनौतियों का सामना शांति और स्पष्टता से करने की क्षमता में अपार वृद्धि हो जाती है।

क्यों बाहरी मान्यताओं का अन्तहीन पीछा कर रहे है? उसको छोड़ों, अपने मन को ही ध्यान और शून्य भाव की ओर ले जाओं। आन्तरिक सन्तुलन स्थापित करो। जो बात मैं कह रहा हूं वह श्रीकृष्ण ने गीता के बाहरवें अध्याय में 13वे श्लोक से 19 वें श्लोक तक कह चुके है –

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च।
निर्ममो निरहंकार: समदु:खसुख: क्षमी ॥१३॥
संतुष्ट: सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चय:।
मय्यार्पितमनोबुद्धियों मद्भक्तः स मे प्रिय: ॥१४॥
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च य:।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो य: स च मे प्रिय: ॥१५॥
अनपेक्ष: शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथ:।
सर्वारम्‌‍भपरित्यागी यो मद्भक्त: स मे प्रिय: ॥१६॥
यो न हृष्यति न द्व्‌ेष्टि न शोचति न काड्क्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्य: स मे प्रिय: ॥१७॥
सम: शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयो:।
शीतोष्णसुखदु:खेषु सम: संग्ङविवर्जित: ॥१८॥
तुल्यनिन्दास्तुतिमौनी संतुष्टो येन केनचित्‌‍‍ ।
अनिकेत: स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नर: ॥१९॥

    शिष्य-साधक वह है जिसे किसी से भी द्वेष भाव न हो, सबका मित्र हो, सबके प्रति उसमें करुणा हो। ममता और अहंकार रहित हो तथा दुःख और सुख में सम रहे, विचलित न हो, क्षमाशील हो, सदा सन्तुष्ट रहे, योगी हो अर्थात्‌‍ उसका मन और इन्दियां उसके वश में हो और ईश्वर में दृढ़ आस्थावान हो।

मन और बुद्धि दोनों ईश्वर में अर्पित, समर्पित हो। न उसको किसी से उद्वेग हो और न उसके कारण किसी को उद्वेग हो अर्थात्‌‍ हर्ष, अमर्ष, भय और उद्वेग रहित हो।

जिसे किसी चीज की अपेक्षा न हो, अन्दर-बाहर से शुद्ध हो, कुशल हो, पक्षपात जिसमें नहीं हो तथा जो दुःखों से भी मुक्त हो वह साधक है। जो न किसी से अति प्रसन्न होता है, न किसी से अति दुःखी होता है, न शोक करता है और न अनन्य कामना करता है, जो शुभ और अशुभ का त्याग कर चुका है, जिसके शत्रु और मित्र समान हों, मान-अपमान में भी आसक्ति रहित हो।

जो निन्दा और स्तुति में भी सम हो, मननशील हो, प्रत्येक स्थिति में संतुष्ट हो और जिसका अपना मन ही गृह हो तथा जिसकी मति स्थिर हो वह साधक है, वही ईश्वर का प्रिय है, गुरु भक्त है।

आओं हम सब मिलकर भक्तिमय, आनन्दमय, प्रेममय संसार की रचना करें और साक्षी भाव से जीवन जीयें।

-नन्द किशोर श्रीमाली 

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