Dialogue with loved ones – July 2024

अपनों से अपनी बात…

मेरे प्रिय आत्मीय,

शुभाशीर्वाद,

    एक बात तो स्पष्ट है संसार में प्रत्येक मनुष्य के मन में एक अर्जुन भाव है, अर्जुन भाव का अर्थ है जिसके मन में द्वंद्व हो, संशय हो और एकाग्रता नहीं हो। इन तीन बातों का समाधान मनुष्य युगों-युगों से चाहता है। यही तीन महत्वपूर्ण बातें आप शिष्य मुझसे भी करते हो।

    आज नहीं, हजारों वर्ष पहले अर्जुन ने भी यही प्रश्न श्रीकृष्ण से किया,

चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढ़म्‌‍। तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्‌‍॥

    हे कृष्ण मेरा यह मन बड़ा ही चंचल है। प्रमथन अर्थात्‌‍ बार-बार मथने वाला है, यह मन बड़ा ही दृढ़ और बलवान है इसलिये मुझे ऐसा लगता है कि इसको वश में करना वायु को वश में करने की भांति दुष्कर है।

    श्रीकृष्ण ने बहुत सरल शब्दों में इसका उत्तर दिया –

असंशय महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्‌‍। अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥

    अर्जुन तुम बिल्कुल सही कह रहे हो, निःसन्देह यह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है, पर सदैव याद रखों इस मन को भी निरन्तर अभ्यास और वैराग्य द्वारा वश में किया जा सकता है।

    सबकी एक ही बाधा है, मन को वश में करना। यदि मन को वश में करना है तो अभ्यास अर्थात्‌‍ साधना को अपनाना ही पड़ेगा। साधना के द्वारा मन की भावनाएं दृढ़तर होती है, बली होती है और चल रहे मंथन से विशुद्ध मक्खन निकलता है और छाछ अलग रह जाती है। श्रीकृष्ण इसके साथ एक ओर बात कह रहे है वैराग्य।

    अब सामान्य मनुष्य को यह समझ में नहीं आता है कि संसार में रहकर वैराग्य का भाव कैसे बनायें।

    अभ्यास करने को, साधना करने को सभी आतुर है। पर क्या सबकी साधना आनन्द के लिये है या भोगों के लिये है।

    क्या आपने कभी विचार किया है कि भोग से आनन्द प्राप्त होगा या शांति से आनन्द प्राप्त होगा। बार-बार भोगों की तृष्णा से तो आनन्द प्राप्त नहीं हो सकता है।

    अब प्रश्न आ गया है कि साधना कैसे करें? इस सम्बन्ध में स्पष्ट उत्तर रामभक्त तुलसीदास जी ने विनय पत्रिका में लिखा है –

जेहि उपाय सपनेहुं, दुरलभ गति, सोइ निसि-बासर कीजै॥
जानत अर्थ अनर्थ-रूप, तमकूप परब यहि लागे।

तदपि न तजत स्वान अज खर ज्यों, फिरत बिषय अनुरागे॥
भूत-द्रोह कृत मोह-बस्य हित आपन मैं न बिचारो।

मद-मत्सर-अभिमान ग्यान-रिपु, इन महं रहनि अपारो॥
बेद-पुरान सुनत समुझत रघुनाथ सकल जगब्यापी।

बेधत नहिं श्रीखंड बेनु इव, सारहीन मन पापी।
मैं अपराध-सिंधु करुनाकर! जानत अंतरजामी।
तुलसिदास भव-ब्याल-ग्रसित तव सरन उरग-रिपु-गामी॥

    हे प्रभु! आपका क्या दोष है? दोष तो सब मेरा है। मुझे जानकारी है कि जिन उपायों से मुझे भुक्ति-मुक्ति नहीं मिल सकती, वही मैं दिन-रात करता हूं। विषयों में आसक्त रहकर पीछे-पीछे भटकता हूं। इन्द्रियों का भोग स्थायी नहीं है यह जानते हुए भी मैं आसक्त रहता हूं। अज्ञानवश दूसरों के साथ द्रोह करता हूं, अपना हित नहीं सोचता। ज्ञान के शत्रु मद-ईष्या, अहंकार है मैं उन्हीं में रचा-पचा रहता हूं। वेद, पुराण सब सुनता हूं, जानता हूं कि भगवान ही सारे संसार को चला रहे है लेकिन यह बात मैं मन में स्थापित नहीं कर पाता हूं। हे ईश्वर आप गरुड़गामी है, संसार रूपी सर्प के दंश से बचा सकते है। आपके आते ही मेरे भीतर व्याप्त सर्पदंश और भय रूपी सर्प सब समाप्त हो जायेगा। बस एकबार मुझे अपनी भक्ति में लीन कर दो।

    तो इसका एक ही उपाय है अपने इष्ट के सामने, अपने गुरु के सामने, अपने भगवान के सामने सब खोल दो। आपको यह जानना है कि आप क्या हो? आपका मन कैसा है, आपके विचार कैसे है? आपकी कल्पनाएं कैसी है? आपकी वाणी कैसी है? यदि मन, विचार, कल्पना, वाणी ही दूषित हुई तो फिर समर्पण कैसे होगा? उद्धार कैसे होगा? कल्पनाएं कैसे साकार होगी? प्रार्थना करते हो शरीर वही रहता है और मन कहीं ओर घूम रहा है, क्या ऐसा व्यक्तित्व आपका होना चाहिये?

    सब खोल दो, सोचों हमने अपने जीवन में विशेष क्या किया? घर, परिवार का पालन पोषण किया तो क्या महान्‌‍ किया? ईश्वर का ध्यान किया वह भी डर से, ऐसा ध्यान करो कि गुरु ही, इष्ट ही मेरा सच्चा जीवन है, वही मेरी श्वास है, वही मेरे प्राण है।

    एक बात ओर कह दूं, जीवन में भोग आवश्यक है –

भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्तास्तपो नप तप्तं वयमेव तत्पाः।
कालो न यातो वयमेव यातास्तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः॥

    बस सन्तुलन होना चाहिये। अपने इष्ट के प्रति उतनी अधिक तीव्र भक्ति होनी चाहिये जितनी तीव्र भोगों के प्रति लालसा है। जितना संसार में मन लगे उतना ही भोग करो और जीवन को आनन्दमय बनाने के लिये उससे भी ज्यादा अपने हृदय में भक्ति को आधार दो। भक्ति समर्पण का श्रेष्ठतम्‌‍ स्वरूप है। हृदय हो भक्ति भरा, समर्पण से आपूरित।

    21 जुलाई को गुरु पूर्णिमा का महान्‌‍ पर्व आ रहा है। मेरे लिये यह पर्व विशेष है। सद्गुरु को समर्पण का दिवस और आदिगुरु शिव को सर्वस्व समर्पण का दिवस है। ये जीवन अमृत प्रदाता शिव का दिया हुआ है और इस जीवन में सदैव गुरु भक्ति, शिव भक्ति बनी रहे, सुकृत कार्य करता रहूं और अपने शिष्यों के आनन्द मंगल की कामना करता रहूं। इस जीवन में साधना बल में निरन्तर वृद्धि होती रहे।

    आप और हम डाकोर जी, गुजरात में मिलेंगे और जो किसी अतिआवश्यक कारण से ना आ सके, वे एक काम करें, गुरु पूर्णिमा का दिवस पूरी तरह से अपने गुरु को समर्पित कर दो, उनकी भक्ति में अपने आपको सराबोर कर दो। गुरु का अहर्निश वरदान प्रत्येक शिष्य को अवश्य ही प्राप्त होता है और प्राणों से प्राणों के सम्बन्ध स्थाई हो जाते है। बहुत-बहुत आशीर्वाद….

-नन्द किशोर श्रीमाली 

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