Dialogue with loved ones – February 2025
अपनों से अपनी बात…
मेरे प्रिय आत्मीय,
शुभाशीर्वाद,
श्रीमद्भागवत गीता का सबसे महत्वपूर्ण श्लोक है, जिसमें श्रीकृष्ण उद्घोष कर रहे है –
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे॥
हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है तब मैं स्वयं को प्रकट करता हूं। साधु पुरुषों के रक्षण, दुष्कृत्य करने वालों के नाश तथा धर्म संस्थापना के लिये मैं प्रत्येक युग में प्रगट होता हूं।
ध्यान देना श्रीकृष्ण ने अर्जुन को भारत कह कर सम्बोधित कर रहे है। अर्जुन भारत का प्रतीक व्यक्ति है। अर्जुन का असली नाम भारत नहीं है, उसे श्रीकृष्ण ने अलग-अलग स्थानों अर्जुन को अलग-अलग नामों – पार्थ, जिष्णु, किरीटिन्, श्वेतवाहन, भीभस्तु, विजय, फाल्गुन, सव्यसाची, धनंजय, गाण्डीवधन्वन्, गुडाकेश, परन्तप, कौन्तेय, कपिध्वज से सम्बोधित कर उसे ज्ञान दे रहे है। उसे उत्साह प्रदान कर रहे है, उसके मन में छाये हुए विषाद को समाप्त करने का प्रयास कर रहे है। उसे उसके जीवन का उचित मार्ग ढूंढ़ने हेतु कह रहे है। उसे कर्मयोग, ज्ञानयोग प्रदान कर रहे है।
भारत एक शब्द नहीं है, भारत एक सनातन संस्कृति है एक जीवन्त पद्धति है जो हजार-दो हजार, पांच हजार वर्ष में विकसित नहीं हुई है और कोई नहीं कह सकता है कि हमारी संस्कृति में, सनातन धर्म में एक ही देव है, एक ही गुरु है, एक ही विचार धारा है।
हजारों-हजारों, लाखों-लाखों ज्ञानियों की, गुरुओं की विचार धारा का अद्भुत संगम हमारा यह सनातन धर्म जिसमें ईश्वर के साकार स्वरूप की प्रार्थना भी है और निराकार स्वरूप को भी उतनी ही प्रधानता है।
सबने एक मत से ब्रह्म को स्वीकार किया है। वह ब्रह्म जो मनुष्य के जीव के शरीर में भी है और वही ब्रह्म पूरे जगत में प्रवाहमान हो रहा है अर्थात् ब्रह्म का ना कोई आदि है ना कोई अन्त है। यही जीवात्मा भी है और यही परमात्मा भी है। यही जीव और परमात्मा परस्पर जुड़े हुए है इसीलिये यह बात कहीं गई है ‘यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे’ जो जीव में है वह ब्रह्माण्ड में है जो-जो जीव में है वह ब्रह्माण्ड में हैं।
इतना विशुद्ध सत्य पर आधारित सनातन धर्म जो जीवन जीने की पद्धति है उसमें भी छिद्रान्वेषण होने लगा है।
क्या यह सौ-दो सौ, चार सौ साल में हुआ, हजार साल में हुआ? कहीं न कहीं हमें इस प्रश्न पर विचार करना ही होगा।
यदि हम अपने आपसे प्रेम करते है, अपने परिवार से प्रेम करते है, अपने समाज, देश से प्रेम करते है तो उस ईश्वरीय सत्ता को भी असीम प्रेम करना पड़ेगा जिसने हमें यह सुन्दरत्म जीवन और जीवन के साथ जीवन जीने की शैली, पद्धति, ज्ञान और आधार प्रदान किया। वेद-उपनिषद् हजारों-हजारों साल पहले रचित हुए और जिस प्रकार एक समुद्र में हजारों नदियां आकर मिल जाती है और वह महासागर कहलाता है तो हमारा सनातन धर्म एक महासागर है जिसमें अपने कल्याण के साथ विश्व कल्याण की भावना है।
अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम्। उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥
यह मेरा है, यह उसका है; ऐसी सोच संकुचित चित्त वोले व्यक्तियों की होती है; इसके विपरीत हमारा चिन्तन तो सम्पूर्ण धरती को एक परिवार के समान मानता है।
यह विषय मुझे बहुत मथता रहता है, कभी पीड़ा होती है, कभी प्रसन्नता होती है और एक विचार आता है कि यह संक्रमण काल है। इसमें मंथन चल रहा है और इस मंथन से अमृत अवश्य निकलेगा। विष बहुत निकल चुका है। वातावरण के साथ-साथ भावनाएं, आचार-विचार, कर्म भी विषाक्त हो गये है और अब इस विष के समापन का दौर प्रारम्भ हो गया है।
मैं बहुत सरल बात पूछता हूं, आप अपने अन्तर्मन पर हाथ रखकर विचार करना कि क्या आप अपने आपको इस सार्वभौमिक ईश्वरीय सत्ता का अंश समझते है या नहीं।
हम अपने प्रत्येक पर्व को, त्यौहार के रूप में सम्पन्न करते है। हमारा प्रत्येक पर्व ईश्वर को समर्पित होता है और पुनःर्जन्म का सिद्धान्त हमारी आत्मा में स्थापित है इसलिये हम अपने जीवन में सदैव और सदैव शुभ का ही चिन्तन करते है।
हमारे भारत वर्ष में प्रमुख त्यौहार उत्सव है – चैत्र नवरात्रि, उगादि, राम नवमी, हनुमान जयंती, अक्षय तृतीया, नृसिंह जयंती, गुरु पूर्णिमा, श्रावण मास, रक्षा बंधन, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, गणेश चतुर्थी, अनंत चतुर्दशी, श्राद्ध पक्ष, ओणम, आश्विन नवरात्रि, दशहरा, शरद पूर्णिमा, करवा चौथ, धन त्रयोदशी, दीपवली, गोवर्धन पूजा, छठ, अक्षय नवमी, कार्तिक पूर्णिमा, लोहड़ी, मकर संक्रान्ति, पोंगल, बसन्त पंचमी, महाशिवरात्रि, होली इत्यादि।
अब आप बताओं आपने इतने पर्वों में कब-कब उस परम सत्ता से, ईश्वर से जुड़ने का प्रयास किया। यह उत्सव परम सत्ता से जुड़कर अपने अन्तर्मन को सुख-शांति, संतोष, चेतना, देने के लिये ही है। पर्व केवल मनाने के लिये नहीं होते, पर्व उस सत्ता को समझने और गुरु द्वारा प्रदत्त ज्ञान को आत्मसात् करने के अवसर होते है। हर पर्व अपनी एक अलग व्याख्या लिये हुए है। केवल कथा कहानियों में मत जाईये, उसके मूल भाव को समझ कर अपने स्वयं के अन्तर्मन से जुड़िये तब 33 कोटि देवता (33 करोड़ नहीं) अलग 33 प्रकार के गुणों से युक्त देव शक्ति का अनुभव आपको अवश्य होगा और यह ज्ञान ही जीवन में एकता, सद्भाव, स्वउन्नति, शांति, प्रेम और ईश्वरीय सत्ता के प्रति समर्पण का भाव रक्त कण-कण में संचारित करता है। तब आप इस सृष्टि में अपना प्रत्येक क्षण आनन्द से व्यतीत करते है। सुख और दुःख से परे, हर समय यह अनुभव होता है कि गुरु सत्ता, ईश्वरीय सत्ता के प्रतीक रूप में मेरे जीव में विद्यमान है और मुझे धर्म चरित्र के साथ, धर्म भावों के साथ अपने जीवन में गतिशील होना है।
धर्मादर्थः प्रभवति धर्मात्प्रभवते सुखम्। धर्मेण लभते सर्वं धर्मसारमिदं जगत्॥
धर्म धन लाता है, धर्म सुख लाता है, धर्म सब लाता है, वास्तव में संसार का सार धर्म ही है। धर्म धन का कारण है, धर्म सुख का कारण है, धर्म सबका कारण है, वास्तव में संसार का सार धर्म ही है। जय सनातन धर्म….
-नन्द किशोर श्रीमाली
Coming soon…
Nand Kishore Shrimali