Dialogue with loved ones – August 2024
अपनों से अपनी बात…
मेरे प्रिय आत्मीय,
शुभाशीर्वाद,
गुरु पूर्णिमा महोत्सव अत्यन्त आनन्द के साथ सम्पन्न हुआ। पूरे भारतवर्ष में भी सभी शिष्यों ने अपने-अपने स्थानों पर आयोजन किया, उन सभी को बहुत-बहुत आशीर्वाद। इस शुभ अवसरपर जो आनन्द भाव प्राप्त हुआ उसे अपने हृदय में संजोकर रखना और जब भी गुरु स्मरण करो इन क्षणों का स्मरण करना। नित्य गुरु पूर्णिमा आपके जीवन में होगी। नित्य-नित्य आनन्द रस का प्रवाह होता रहेगा।
यही प्रत्येक साधक के मन में निरन्तर जिज्ञासा रहती है, एक खोज की भावना रहती है कि मैं निरन्तर और निरन्तर आनन्द प्राप्त करूं।
प्रिय शिष्य, एक परिभाषा अच्छी तरह से समझ लो कि सुख और आनन्द में बड़ा अन्तर है। सुख और दुःख जीवन की घटनाओं पर निर्भर करता है, जबकि आनन्द चिरन्तन भाव है और वह सुख और दुःख से परे है। हम हमारे जीवन में निरन्तर क्रियाशील रहते है तो यह संभव है कि कुछ परिणाम हमारे अनुकूल होगें और कुछ परिणाम हमारे प्रतिकूल होगें। इसमें मनुष्य का कोई दोष नहीं है। जिस प्रकार दिन-रात होते है उसी प्रकार यह भी जीवन की क्रम है।
साधक को एक बात विशेष ध्यान देनी चाहिये कि वह सुख-दुःख को अपने जीवन में कहीं इतना आधार न बना दे कि वह हर समय विचलित रहे। साधक सुख में गर्व और अभिमान से भर जाता है और दुःख में पीड़ा, संताप, विचलन के गहरे सागर में डूब जाता है, फिर वह अपने प्रयत्नों से सुख की तलाश के लिये और अधिक हाथ-पैर मारता है।
प्रिय साधक एक बात अच्छी तरह से जान लों सुख और दुःख दोनों ही अस्थायी है। यह तुम्हारा मन अस्थिर है इस कारण सुखों के क्षणों का भी पूर्ण आनन्द भोग नहीं पाते हो और दुःखों के समय एकदम अवसाद में चले जाते हो।
इन अवसाद के क्षणों से निकलने के लिये बहुत प्रयत्न करना पड़ता है। यह प्रयत्न शरीर का नहीं है, यह प्रयत्न मन का प्रयत्न है कि आप अपने जीवन में हर स्थिति को, हर घटना को किस तरह से देखते हो। जिस दिन आपने यह जान लिया कि दुःख अस्थायी है, दुःख का काल बहुत कम होता है। सुख का काल सदैव बड़ा होता है लेकिन हम अपने मन में यह समझ बैठते है कि दुःख का काल बड़ा है और सुख का काल छोटा है, इसीलिये हर समय चिन्ता में रहते है।
जब कार्य पूर्ण होते है, तो निश्चित रूप से सुख आता है लेकिन उन क्षणों में भी हमारा विचलन युक्त मन चिन्ता करने लगता है कि सुख का काल तो बहुत छोटा रहेगा, आगे दुःख आ सकते है। यह आशंका, यह चिन्ता ही सुखों के आनन्द को क्षीण कर देती है।
आप चाहते है दुःख अस्थायी हो, सुख सदैव स्थायी हो तो भाई जगत के क्रम में दोनों ही स्थायी नहीं है। इसलिये साधक को सुख और दुःख की चिन्ता ही नहीं करनी चाहिये। आप जानते है, चिन्ता करने से सबसे अधिक पीड़ा मन को होती है और ये मन अपनी बात को किसी के साथ साझा नहीं करता। सुखकाल में तो साझा के लिये अनेक लोग आ जाते हैं लेकिन दुःख काल में आप सदैव अकेले होते हो। अब प्रश्न यह है कि इसका उपाय क्या है?
सुख और दुःख से परे एक भाव है वह है आनन्द भाव। मैं स्पष्ट कहता हूं कि सुख को भी आनन्द से भोगों और दुख को भी आनन्द से भोगों, इसका भी सरल उपाय है।
आपके इष्ट कौन है? आपके इष्ट है – गुरु, शिव और शक्ति, ये तीनों अपने भक्तों को, अपने साधकों को निरन्तर और निरन्तर आनन्द प्रदान करते है। जब इनमें आपकी आस्था, भक्ति और विश्वास भाव सदैव प्रबल रहता है, बलवान रहता है तो आप सुख-दुःख के भावों में गोते नहीं लगाते है, विचलित नहीं होते हो।
आपको यह पूर्ण विश्वास भाव होना चाहिये कि गुरु, शिव और शक्ति सदैव आपके साथ है। केवल साथ ही नहीं है, आपका हाथ पकड़े हुए है, सदैव आपको संभाले हुए है। जब गुरु ने हाथ पकड़ा है और आद्या शक्ति के आप साधक हो तो फिर व्यर्थ की चिन्ता क्यों करते हो? चिन्ता व्यर्थ है और व्यर्थ वस्तु का, व्यर्थ भाव का सदैव त्याग करना चाहिये।
यह चल रहा है श्रावण मास, शिव और शक्ति का मास। आपको यह विश्वास होना चाहिये कि मेरी बात का शिव श्रवण कर रहे है। शक्ति मेरी बात का श्रवण कर रही है और आपके पास अपनी बात कहने का एक मात्र माध्यम है संकल्प के साथ साधना और निरन्तर अभिषेक। शिव का भी अभिषेक करना है और अपने मन का भी अभिषेक करना है।
व्यर्थ की चिन्ता करते-करते, आपका मन शुष्क हो गया है, रसहीन हो गया है और कई बार आपको लगता है कि आप अपना जीवन काट रहे है।
एक सिद्धान्त सदैव ध्यान रखों, जो बीत गया सो बीत गया। उसकी चिन्ता करने से किसी भी फल की प्राप्ति नहीं हो सकती। अभी तो आपको अपने जीवन में और अधिक फल प्राप्त करने है। सुख का एक ही माध्यम है अपने आपको रस से परिपूर्ण कर अपने भीतर विष को स्थान नहीं देना है। सब व्याधियों की जड़ मन की शुष्कता है। अपने मन को शिव भाव से आप्लावित करें।
आप अपने शिव का अवलोकन करो, सदैव निःस्पृह भाव से रहते है। ऐसा नहीं है कि उन्हें ससार की कोई चिन्ता नहीं । अपने परिवार की कोई चिन्ता नहीं है। उनके परिवार में शक्ति है, कार्तिकेय है, गणपति है, शुभ-लाभ और ॠद्धि-सिद्धि है और तो और शेर भी है, चूहा है, सांप भी है, मोर भी है, नन्दी भी है, इनके परिवार में भूत-प्रेत-पिशाच, गंधर्व, मनुष्य गण, सारे गण फिर भी विचलित नहीं होतेे, क्योंकि वे सदैव तपस्या से रत रहते और अपना तीसरा नेत्र जाग्रत रखते है और इसलिये हमारे शिव महामृत्युंजय है, मृत्यु को जीतने वाले है, महाकाल है, काल भी उनके अधीन है और काल अर्थात् समय भी उनके अधीन है। इसी कारण शक्ति के संयोग से संसार के प्राणियों में वे निरन्तर और निरन्तर रस भाव संचालित करते है।
काल को क्या याद करते हो ‘महाकाल’ को याद करो,
मृत्यु को क्या याद करते हो ‘महामृत्युंजय’ को याद करो,
अपने कार्य मुस्कराते हुए करो, निरन्तर मुस्कान आवश्यक है, सदैव रस और आनन्द से परिपूर्ण रहो…
-नन्द किशोर श्रीमाली
Coming soon…
Nand Kishore Shrimali