Dialogue with loved ones – April 2025

अपनों से अपनी बात…

मेरे प्रिय आत्मीय,

शुभाशीर्वाद,

रसेश्वर महामृत्युंजय शिव की आराधना के साथ महाकुंभ का आनन्द सभी साधकों ने ग्रहण किया। वास्तव में यह महाशिवरात्रि अद्वितीय, अनूठी और कल्पना से परे थी। पूरे आर्यावर्त के समस्त सनातन धर्मीयों को शुभकामना और आशीर्वाद जिन्होंने सनातन धर्म की आस्था, परम्परा, विश्वास, पौराणिक महत्व, आध्यात्मिक महत्व, धार्मिक महत्व को पुनः जाग्रत किया।

सनातन धर्म, शाश्वत्‌‍ धर्म है और जो शाश्वत्‌‍ होता है वह कभी समाप्त नहीं होता। केवल शिव और सनातन ही शाश्वत्‌‍ है। यह सनातन धर्म, हमारा धर्म किस कारण से कुछ काल के लिये सो गया था? इन कारणों की व्याख्या करने का कोई अर्थ नहीं है। अतीत पर लाठी पटकने से कुछ नहीं होता है।

एक बात चमत्कारिक है और वह चमत्कार है 65 करोड़ सनातन धर्मीयों का एक साथ जाग्रत होना और यह अग्नि एकाएक प्रकट हुई और मेरा विचार है कि हम सबमें यह सनातन अग्नि व्याप्त है और ईश्वरीय चेतना से यह एक साथ सम्पूर्ण रूप से दैदीप्यमान हई, प्रखर रूप से जाग्रत हुई और इसका सीधा अर्थ है कि हमारी आस्था, हमारा विश्वास, हमारी श्रद्धा सत्य पर आधारित है, विशुद्ध है और यह ब्रह्म ज्योति हम सबमें पूर्ण रूप से स्थापित है।

इस ब्रह्म ज्योति को निरन्तर किस प्रकार से जाग्रत रखना है यह हमारा स्वयं का कर्तव्य है। आप हम और सभी सनातन धर्मी यह ‘शिव संकल्प’ लेते है कि हमारी यह ब्रह्म ज्योति हम अपने कार्यों द्वारा, व्यवहार द्वारा निरन्तर जाग्रत रखेंगे।

इसके लिये हमें अपने भीतर के कुंभ को अमृत युक्त करना पड़ेगा, उसमें निरन्तर अमृत का प्रवाह प्रवाहित करना पड़ेगा।

यथा कुम्भो जलपूर्णस्तथा देहो रसैर्युतः

    केवल प्रयाग में ही कुंभ नहीं है, जहां गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम होता है। हमारे भीतर भी एक कुंभ है, जिसमें संगम होता है और यह कुंभ तीन स्वरूपों का प्रतीक है। कुंभ अर्थात्‌‍ घड़ा, कुंभ अर्थात्‌‍ हमारा शरीर और इस कुंभ में स्थित है हमारा मन और तीसरा महत्वपूर्ण आत्मिक जल है, अमृतजल है चेतना। यमुना है शरीर, गंगा है मन और सरस्वती है चेतना।

यह शरीर हम सबको दिखाई देता है और इस शरीर में जो मन है उसे भी हम जानते है और यह हमारा मन शरीर को जाग्रत रखता है, इस शरीर को कामना पूर्ति के मार्ग पर ले जाता है। मन बार-बार प्रभाव डालता रहता है। देह तो केवल एक अश्व की भांति है जिस पर मन सवार है। जहां मन ले जाना चाहता है जो कार्य करना चाहता है वह मन आपसे करा ही लेता है। इसलिये शरीर के माध्यम से जो सुख-दुःख हम अनुभव करते है वह वास्तव में मन की ही क्रियाएं है।

मन के जीते जीत है, मन के हारे हार

    मनुष्य न जीतता है, न हारता है वह तो स्थूल है।केवल जीतता और हारता मन ही है और जब मन हारने लगता है तो चिन्ता, अवसाद, निराशा, आवेग, हिंसा का प्रादुर्भाव होता है और जब मन जीतने लगता है तो शरीर के माध्यम से उत्साह, उमंग, जोश, प्रसन्नता, प्रकट होने लगती है।

शरीर स्थूल है, मन सूक्ष्म है और उससे भी सूक्ष्मतर है चेतना जिसे साधारण शब्दों में ज्ञान कहा गया है। वास्तविक स्वरूप में चेतना का स्थान तो ज्ञान से भी उच्चतर स्थिति में और यह चेतना जो साधक सदैव जाग्रत रखती है, वह साधक अपने शरीर और मन का संयोजन सही प्रकार से कर पाता है।

चेतना को आप शक्ति समझों। शरीर शक्ति उत्पन्न नहीं करता है। मन शक्ति उत्पन्न नहीं करता है। शक्ति उत्पन्न करती है चेतना।

या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते।

    इस चेतना के चारों ओर ही हमारा जीवन चलता है। चेतना का अर्थ है – जाग्रती। आध्यात्मिक भाषा में चेतना का अर्थ है – अपने भीतर की ज्ञान ज्योति को प्रज्जवलित रखना और इस चेतना का विस्तार ब्रह्माण्ड में चारों ओर फैला हुआ है।

ईश्वर भी चेतना का ही स्वरूप है। हमारा शरीर ईश्वर से रोज-रोज नहीं मिल सकता है। हमारा मन नित्य प्रति ईश्वर से, परमात्मा से नहीं मिल सकता है लेकिन हमारी चेतना का सम्पर्क नित्य आद्या शक्ति से, ईश्वरीय शक्ति से, परमात्मा से, ब्रह्म से निरन्तर सम्पर्कित रह सकता है। मनुष्य-मनुष्य में अन्तर शरीर और मन का नहीं है। सबके शरीर और मन एक जैसे ही होते है। जिसकी चेतना का स्तर जितना तीव्र और उच्च होता है वहीं अपने इस सांसारिक जीवन में उच्चता की सीढ़ियां चढ़ता है। चेतना ही शक्ति के प्रवाह को निश्चित करती है। चेतना ही शक्ति के प्रवाह को बिखरने नहीं देती हे। चेतना ही बुद्धि को स्थिर रखती है। चेतना ही विवेक को जाग्रत रखती है, चेतना ही ज्ञान स्तर, तंत्र स्तर का उर्ध्वपात करती है।

इसीलिये गुरु केवल गुरु मंत्र नहीं देते है। केवल ॐ परमतत्वाय नारायणाय गुरुभ्यो नमः का मंत्र देकर नहीं रुकते। गुरु मंत्र के साथ चेतना मंत्र भी प्रदान करते है और वह चेतना मंत्र है – ॐ हृीं मम प्राण देह रोम प्रतिरोम चैतन्य जाग्रय हृीं ॐ नमः।

चेतना आत्मज्ञान का स्वरूप है और आत्मज्ञान अदृश्य होता है। आपके कुंभ में भी आत्मज्ञान अदृश्य है और यह कुंभ की प्रक्रिया आपके जीवन में निरन्तर और निरन्तर गतिशील रहती है। शरीर की शक्ति आप स्वयं विकास कर लेंगे, मन की शक्ति को भी आप प्रबल कर देंगे। चेतना की शक्ति के प्रदाता शिष्य के सद्गुरु ही होते है। जो उसके कार्यों में चेतना शक्ति के रूप में विद्यमान होकर उसके शरीर, मन को और चेतना को एक सूत्र में पिरोते है।

गुरु जीवन के अमृत सूत्र है, चेतनावाहक है। अपनी और गुरु की चेतना को सदैव सम्पर्क में रखों। कौन शिष्य-साधक गुरु की चेतना को अपनी चेतना के साथ जोड़ता है वहीं उसकी साधना और तपस्या है। चेतना का सम्बन्ध ही स्थाई सम्बन्ध है, शाश्वत्‌‍ सम्बन्ध है। वह सम्बन्धों के सूक्ष्मतर तार, तरंगें कभी टूटनी नहीं चाहिये। प्रवाह शिष्य की ओर से बराबर होता रहे।

जीवन की यात्रा शरीर के माध्यम से चैतन्य होने की यात्रा है, केवल्य की यात्रा है।

निखिल अवतरण दिवस 21 अप्रैल की आप सभी को शुभकामनाएं, अपनी चेतना को तीव्र बनाते रहो, तीव्र बनाते रहो। चेतना ही अमृत है जो जीवन में सभी रसों को प्रदान करती है।

-नन्द किशोर श्रीमाली 

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