Who will understand? Who will make you Understand?

कौन समझेगा?

कौन समझायेगा?
यह प्रश्‍न बड़ा विचित्र है?

 

अपना आंकलन करिये
अपने आप पर ध्यान दें

 

मनुष्य का जीवन चक्र, जीवन क्रम में आपसे ईश्‍वर यह अपेक्षा रखता है कि आपको स्वयं को आदर्श बनाना है और यह जीवन यात्रा पूर्ण करनी है। यही भाव बार-बार दोहराना है। 

 

असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु

 

पुत्र, स्त्री, धन और घर में आसक्ति का अभाव, प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में सदा ही चित्त का समभाव में रहना और विषय आसक्त लोगों से प्रेम न होना ही ज्ञानी का सच्चिदानंद स्वरूप का सार है।
गीता के इस श्‍लोक में जीवन का महान् दर्शन है। जो यह स्पष्ट करता है कि समस्याओं का स्रोत दूसरा नहीं हम स्वयं है। मोह की अधिकता जब आसक्ति के रूप में अपना जाल फैलाती है तो हर आदमी को अपने हिसाब से कार्य करता देखना चाहते हैं। उसके मन-मस्तिष्क पर अपना आधिपत्य देखना चाहते हैं।

 

हमारा मन संसार पर आधिपत्य जमाना चाहता है और इस स्थिति में हमारा यह विचार अपने आपको बहुत बड़ा और अजेय मानने लगता है तो इस स्थिति में क्या होता है? जब हम दूसरों पर आधिपत्य जमाने का प्रयास करते हैं तो हमारा स्वयं का विकास शून्य हो जाता है और दूसरे का चिन्तन ही सौ प्रतिशत चलने लगता है। इसके परिणाम स्वरूप, व्यक्ति की स्वयं की शांति नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है। व्यक्ति के जीवन का मूल उद्देश्य, प्राथमिक आवश्यकता अपनी आत्मा को शांति प्रदान करना है उस उद्देश्य से हट जाता है, विचलित हो जाता है। केवल और केवल दूसरों के बारे में विचार करता रहता है।

 

याद रखिये! इस संसार में हजारों समस्याएं हैं और हजारों सुख-सुविधाएं हैं। आपके जीवन की परम शांति केवल और केवल स्वयं के आत्म अवलोकन, आत्म विचार और आदर्श व्यवहार में ही है।

 

इस संसार में माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी-बच्चे आपका समाज, आपके मित्र, संसार का हर सम्बन्ध आप नहीं हो। आपका जन्म अकेले ही हुआ था और अकेले ही आपको जाना है। आपको अकेले ही अपने मन, बुद्धि और ज्ञान का सुख अथवा दुःख भोगना है।

 

तुलसीदास जी कहते है –

 

कोउ न काहुं सुख दुःख कर दाता॥ 
निज कृत कर्म भोग सब भ्राता॥

 

यह जीवन न तो दूसरों के दुःख के कारण दुःखी है और न दुसरों के सुख के कारण सुखी है। इस जीवन में अपने किये हुए कार्य और ज्ञान का भोग सभी स्वयं करते हैं। कोई दूसरा इसके लिये जिम्मेदार नहीं है और न ही कोई दूसरा आपके सुख और दुःख के लिये दोषी है।

 

सत्य तो यह है कि आपका अन्तःर्मन यही चाहता है कि आप सब के साथ अच्छा व्यवहार करें लेकिन आपका अन्तःर्मन यह चाहता है कि आपके यश, धन, उपलब्धि और प्राप्ति की स्थिति में कोई कमी नहीं आए। यह सब स्थितियां आपके पास सदैव-सदैव बनी रहे।

 

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण का जीवन चरित्र एक बड़ी ही सटीक बात बताता है कि हर मनुष्य का अपने परिवार, सम्बन्ध आदि के प्रति जो कर्त्तव्य भाव है वह पूर्ण निष्ठा से सम्पन्न किया जाए लेकिन जब कर्म के मार्ग में यदि आसक्ति उत्पन्न हो गई तो जीवन के ये सारे सम्बन्ध आपके स्वयं के ऊपर एक बेड़ी, हथकड़ी बंधन बनकर रह जाते हैं। जिसमें आपका अस्तित्व ही फंस जाता है। तब न तो आप अपने सम्बन्धों के हो पाते हैं और न ही कोई आदर्श स्थापित कर पाते हैं।
जब आप आसक्ति और सम्बन्धों के जाल में फंस कर अपने अस्तित्व को खत्म करने लगते हैं तो आप विचार करें कि आप अपनी स्वयं की ही, अनदेखी कर रहे हैं। आप स्वयं अपने अस्तित्व की ओर, अपने व्यक्तित्व की ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं।

 

 

अपना ध्यान अपने पर केन्द्रित करें

 

आज हर घर में एक अजीब द्वंद्व है सबको ठीक करने की सोच में आदर्श वातावरण बनाने के नाम पर बड़ा ही कलह हो रहा है। कोई पिता अपनी संतानों को, तो कोई बेटा अपने मां-बाप, भाई, बहिनों को आदर्श की परिभाषाएं समझाने में लगा है। हर कोई यह सोच रहा है कि सब गलत है, वही सही है। हर व्यक्ति अपने अनुसार ही दूसरों को आचरण करते देखना चाहता है और यहीं से प्रारम्भ होता है मानव जीवन का संघर्ष। ऐसा संघर्ष जिसका कोई अन्त नहीं है।
शायद यह उचित रहता कि हम अपने आप पर ही अपना ध्यान केन्द्रित करें और दूसरों से सम व्यवहार, अच्छा व्यवहार करें। उनके कर्मों का फल भोगने के लिये उन्हें ही छोड़ दें। यदि आप स्वयं अपना व्यक्तित्व सशक्त बना लेते हैं तो आपके परिवार के लोग, आपके समाज के लोग अपने आप आपका अनुसरण करने लगेंगे।

 

याद रखिये कि इस समाज में दूसरे सभी व्यक्ति आपका शारीरिक शोषण, मानसिक शोषण, अदृश्य शोषण का भाव लिये हुए तैयार बैठे हैं। आप स्वयं अपने से अधिक इन बाहरी व्यक्तियों का चिन्तन कर रहे हैं। दूसरों की अपेक्षा इसी से आपको स्पष्ट हो जायेगा कि दूसरों से जो आप अपेक्षा कर रहे हैं, आप अपने आपको थोपने का प्रयास कर रहे हैं। उससे आपके जीवन में कितनी अशांति आ गई है। केवल इतना विचार करें कि आपका जन्म अकेले हुआ है या सब लोगों के साथ, अच्छे व्यवहार के साथ आपको केवल और केवल अपनी जीवात्मा के उत्थान के बारे में सोचना है।

 

 

सबका अपना कर्म – अपना भाग्य

 

माता-पिता, भाई-बहन, पुत्र-पुत्रियां, सगे-सम्बन्धी, संसार का हर रिश्ता अपने कर्म के अनुसार भोग्य भोग रहा है। न तो आप उसके दुःख के कारण दुःखी हैं और न ही उसके सुख के कारण सुखी हैं। बस आपका कर्त्तव्य यही है कि आप सब से आदर्श, संतुलित व्यवहार रखें, समय-समय पर सहायता और सहयोग करें। अपने आदर्श रिश्तों को निभाएं, लेकिन सबके कर्म विधान के मार्ग में बाधाएं नहीं बनें। सबको अपने अनुसार बनाने का प्रयत्न कर अपने आपको दुःखी व्यक्तित्व न बनायें। अपने आप पर अपना ध्यान केन्द्रित करें।

 

मनुष्य का जीवन चक्र, जीवन क्रम में आपसे ईश्‍वर यह अपेक्षा रखता है कि आपको स्वयं को आदर्श बनाना है और यह जीवन यात्रा पूर्ण करनी है। यही भाव बार-बार दोहराना है।
मनुष्य में अपरिमित शक्ति है, असीमित शक्ति है। आपके व्यक्तित्व में वह शक्ति है, उसकी खोज और उसे जाग्रत करने की ललक बनाए रखें। सबसे पहले स्वयं को एकाग्र कर, अपने आपको अन्तर्मुखी कर स्वयं को जानने का प्रयत्न करें।
दूसरों की समस्या में सहयोग दे लेकिन अपने आपको उन समस्याओं में उलझाएं नहीं क्योंकि आपकी मदद करने की भी एक सीमा है, उसके बाद आपका कोई कार्य सामने वाले को सुख नहीं दे पायेगा। उसे स्वयं समस्याओं से बाहर निकलने और उसके व्यक्तित्व को उसे स्वयं समझने दें। कहीं ऐसा न हो कि आपका सहयोग उस पर बोझ ही बन जाए, उसका व्यक्तित्व ही दब जाए। हर एक को अपने प्रयत्नों द्वारा सफल होने दें।

 

कौन समझेगा, कौन समझायेगा यह प्रश्‍न बड़ा विचित्र है? हर व्यक्ति अपने हिसाब से सोचना चाहता है कोई व्यक्ति अपने बारे में सहानुभूति प्राप्त करने के लिये छल करता है तो कोई अपनी शक्ति के अनुसार क्रोध करता है। इस स्थिति में आप क्या कर सकते हैं। यह सवाल बड़ा गंभीर है।

 

‘कौन समझेगा, कौन समझायेगा’

 

हर स्थिति में जो चल रहा है, उसमें आप अपनी भूमिका का आंकलन करें और समभाव से चिन्तन करें। घर-परिवार, समाज-देश सब में आप केवल और केवल अपनी भूमिका का विचार करें। आप अपना कार्य करें। किसी पर अपना एकाधिकार न जतायें। याद रखिये, आपका जीवन और समय निश्‍चित है। इसमें आपको यह सिद्ध करना है, अपनी भूमिका निश्‍चित करनी है। जो सुख दूसरों पर आधारित होता है वह आगे चलकर आपको केवल और केवल दुःख ही देगा। अतः दूसरों से बहुत सारी अपेक्षाएं रखने की बजाय स्वयं को इतना शक्तिशाली बनाएं कि आपको दुष्ट लोगों के सहयोग की आवश्यकता ही नहीं पड़े या किसी दूसरे व्यक्ति पर आपकी निर्भरता ही न रहे।
इस बात का आप दुःख नहीं करें कि आपने सबके साथ बहुत अच्छा किया और आपके अपनों ने ही आपके साथ छल-कपट किया है। अरे भाई! यह तो जीवन का सत्य है कि जब तक आप स्वयं शक्ति सम्पन्न और सबल नहीं होंगे, तब तक दूसरे आपका शोषण करते रहेंगे। आप एक ही काम करें, स्वयं को एकाग्र कर स्वयं को सशक्त बनाएं।

 

दूसरों की सहायता करें, उनको प्यार दे लेकिन कई संघर्ष ऐसे हैं जो उन्होंने स्वयं चुने हैं, तो ऐसी स्थिति में दूसरों के उन संघर्षों में अपने आपको उलझाने की बजाए उन्हें अपने मार्ग पर चलने दें। हर व्यक्ति के हर कर्म के लिये आप जिम्मेदार नहीं हो सकते। याद रखिये आप किसी के कर्मों को न तो सुधार सकते है, न ही बिगाड़ सकते हैं। आप विचार दे सकते हैं, प्रेरणा दे सकते हैं। इस विचार को सदैव ध्यान रखें।
अपने व्यक्तित्व को ऐसा बनाएं की आपको देखकर लोग जीवन की परिभाषाएं सीखें। सदैव ध्यान रखें कि आप स्वयं में केन्द्रित रहकर ही सम्पूर्ण समाज का उत्थान कर सकते हैं। समाज में आदर्श स्थिति प्रदान कर सकते हैं। अपने व्यक्तित्व को महान् बनाने के लिये निरन्तर लगे रहें – लगे रहें।

 

महानता स्वयं के व्यक्तित्व के उत्थान में है। अपने व्यक्तित्व को सरल, स्वाभाविक, सहज बनाएं और सम भाव से इस जीवन रूपी यात्रा पथ पर चलते रहें।

 

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धर्म अर्थात् आत्मा का शुद्ध भाव
धन, सम्पत्ति, सुख-सुविधा और कीर्ति प्राप्त करने के बाद भी जीवन में असंतोष की प्यास शेष रह जाती है। कारण कि जीवन में शान्ति नहीं मिलती और आत्मा का हित शान्ति में स्थित है। आत्मिक दृष्टि से सदाचरण ही शान्ति का एकमात्र उपाय है।

 

धर्माचरण अपने शुद्ध रूप में सदाचरण ही है। धर्म की परिभाषा है ‘वत्थुसहावो धम्मो’ अर्थात् वस्तु का ‘स्वभाव’ ही धर्म है। स्वभाव शब्द में भी बल ‘स्व’ पर है ‘स्व’ के भाव को स्वभाव कहते है। यदि हमारा स्वभाव ही धर्म है तो प्रश्‍न उठता है, हमारा स्वभाव क्या है? हम नित्य-प्रति हरदिन झूठ बोलते हैं, कपट करते हैं, येन-केन प्रकारेण धन कमाने में ही लगे रहते हैं अथवा आपस में लड़ते रहते हैं, क्या यह हमारा स्वभाव है? हम क्रोध करते हैं, लोभ करते हैं, हिंसा करते हैं, क्या यह हमारा स्वभाव है?
वास्तव में यह हमारा स्वभाव नहीं है। क्योंकि प्रायः हम सच बोलते हैं मात्र लोभ या भयवश झूठ बोलते हैं। यदि हम दिन भर क्रोध करें तो जिंदा नहीं रह सकते। थोड़ी देर बाद जब क्रोध शान्त हो जाता है, तब हम कहते हैं कि हम सामान्य हो गए। अतः हमारी सामान्य दशा क्रोध नहीं, शान्त रहना है। क्रोध विभाव दशा है और शान्त रहना स्वभाव दशा है। अशान्ति पैदा करने वाले सभी आवेग-आवेश हमारी विभाव दशा है। शान्तचित्त एवं सदाचार में रत रहना ही हमारा स्वभाव है और अपने ‘स्वभाव’ में रहना ही हमारा धर्म है।
धर्म की यह भी परिभाषा है ‘यतस्य धार्यती सः धर्मेण’ धारण करने योग्य धर्म है। यह भी स्वभाव अपेक्षा से ही है। सदाचार रूप शुद्ध ‘स्वभाव’ को धारण करना ही धर्म है। इसीलिए यह निर्देश है कि स्वभाव में स्थिर रहो। यही तो धर्म है और हमारा शाश्‍वत् स्वभाव, सदाचरण क्योंकि हमारे जीवन का अंतिम लक्ष्य शान्ति ही है
Who will Comprehend?
Who will Explain?

This is a strange question?

Analyze Yourself!

Focus on Your Self

Within the human Life Cycle, in various stages of this life, God
expects that you will lead an ideal model life and that you will
accomplish the journey of this life completely. You should repeat this
sentiment recurrently.

Asaktiranbhiswadagam Putradaargrihaadishu |
Nityam Cha Samchittatvamishtanishtopapatishu ||

Lack of attachment towards children, spouse, wealth and home, a
balanced equanimity within the mind towards favorable and unfavorable objectives, a lack of love towards indulgent and pleasure-seeking people; this entirely summarizes the Sacchidanand essence of a wise person.

The above verse  of Geeta imbibes a deep philosophy of life. This
verse clarifies that the source of obstacles is none else but
ourselves. When the tentacles of attachment spread out, then we desire everyone to perform as per our own wish. We desire to control their mind and intellect.

Our mind wishes to dominate the world, and this thought itself makes us feel great and invincible, then finally what happens in this
situation? When we strive to dominate others, then our own growth
halts and our mind gets completely busy 100% with thoughts about the other. This results in disruption and destruction of peace of our own self. The core objective of a person’s life, the primary purpose within life is to provide peace to one’s own soul; we get diverted and
distracted from this basic goal. We just think about the lives of others.

Remember! There are thousands of problems in this world and similarly there are thousands of amenities. The ultimate peace within your life exists only in own self-observation, self-analysis and model behavior.
You are not part of the worldly relations of your parents, siblings,
spouse, children, your society, your friends, or of the world. You
were born alone and you will die alone as well. You alone have to
undergo the pleasures or sorrows of your mind, intellect and
knowledge.

Tulsidasji states –

 Kou Na Kaahun Sukh Dukh Kar Daata ||
 Nij Krit Karm Bhog Sab Bhrata ||

This life is not sad because of the sorrows of others and similarly is
not happy due to the pleasures of others. Everyone undergoes the
results of his own actions and knowledge. No one else is responsible
for this and no one is guilty for your happiness or sorrow.

The truth is that your inner-soul desires that everyone amongst you
treat everyone fair and squarel and that your mind desires enduring
fame, wealth, achievement and attainment. It wishes for such lifelong
eternal positions.

The Model life of Maryada Purushottam Lord Rama and Lord Krishna’s teaches the fact that every man should fulfill all responsibilities and duties towards his family and relationships with full dedication, but if one develops attachments while doing these tasks, then these life relationships become the restraints and shackles for the self.

This limits your own existence. Then neither you are able to fulfil
your relationships, nor can you achieve Perfection and Totality.
When you start destroying your own existence while stuck in the trap
of attachment and relationships, then you should consider that you are ignoring your own self.  You yourself are not paying attention to your personality and being.

Focus your attention on your own self
Today, every home is undergoing a strange conflict, a great discord is
occurring in the name of rectifying everyone, and creating a perfect
atmosphere. A father is teaching the definition of ideals to his
children, a son to his parents, and a brother to his sister. Everyone
believes that he himself is right, and everyone else is in the wrong.

Everyone desires others to behave as per his own perspective, and this is the beginning of the struggle of human life. A conflict, which has no end. Maybe it would have been better if we had concentrated on ourselves and shown good conduct and behavior towards others. Leave others to bear the consequences of their deeds. If you strengthen your own personality, then your family and your society will automatically follow you.
Remember that every person in the society is ready to exploit and
abuse you physically and mentally. You yourself are thinking more
about others rather than own self.  This will become obvious to you
that whatever you expect from others, you yourself are trying to
impose on them. This has created so much turmoil in your own life.

You only have to think whether you were born alone, or in the company of others.  You should think only about your own upliftment by behaving well with others.

Everyone’s own deeds – own fate
Parents, siblings, children, relatives-relations, every relationship
in the world is experiencing their own fate, according to their own
karma deeds. You are neither sad due to their sorrow nor are you happy due to their pleasure. Your ideal duty is that you retain an ideal, balanced behavior with everyone, assist and support them whenever needed from time to time. Maintain your ideal relationships, but do not become obstacles to others. Do not make yourself miserable by trying to cast everyone as per your own wishes. Focus your attention on your own self.
In this life cycle, in the various stages of this life, God expects
from you that you will lead an ideal model life and will complete this
life journey. This sentiment should be repeated regularly.
Man has infinite power, unlimited power. Your personality contains
this power, keep striving to search and activate this power. First
focus on self, concentrate on self to try to understand your own self.
You should help others in resolving their problems, but do not get
stuck in the net of their problems because there is a limit of your
assistance, after which any of your action will not provide happiness
to others. Let him or her get out of their own problems on their own
and let them understand their own personality. Lest your cooperation
becomes a burden on him or her, and crushes their personality.  Let
everyone succeed by their own efforts.

Who will understand, Who will explain, this question is very bizarre?
Every person wants to think in terms of own self, someone deceives to obtain sympathy while the other one becomes angry according to his strength. What can you do in this situation. This question is very
serious.

“Who will understand, Who will explain”
Analyze your role and do a balanced assessment, whatever is occurring in any situation. You should think deeply about your role in your family-house or society-country. Do your own work.  Do not force yourself on others. Remember, your life and time is limited. You have to prove yourself, and define your role within this limitation.  The happiness based on others will certainly yield only sorrow in future.Therefore, instead of making multiple expectations from others, you should make yourself so powerful that you do not require support of the wicked or are not dependent on any other person.
You should not regret the fact that you behaved very well with others
while your very own deceived and betrayed you. Oh brother! This is
true fact of life that others will continue to exploit you until you
yourself become strong and empowered. You perform only one task,focus on self and make yourself strong and empowered.
Help others, love them but there are some struggles which they themselves have chosen. In such situations let them continue on their path instead of getting engaged in their conflicts. You cannot be
]responsible for every action of everyone. Remember you can neither
improve nor worsen deeds of others. You can only provide advice or
motivation. Always keep this fact in mind.

Elevate your personality so that other people learn the definition of
life from you. Always remember that you can uplift the entire
community only by concentrating on self. You can provide ideal model environment in the society. Always stay engaged in developing and elevating your personality.
Greatness is in the growth of own personality. Make your personality
simple, natural and uniform; and continue smoothly on this path of
journey of life.

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 Religion i.e.  Pure sense of soul
There is always a thirst of dissatisfaction in life even after
obtaining money, wealth, luxuries-amenities and fame. Because the life lacks peace and soul is interested only in the peace. Moral behavior with a spiritual sense is the only path to peace.
Spiritual Behavior is the purest form of moral conduct. Religion is
defined as “Vatthushavo Dhammo” i.e. the “nature’ of object is itself
the  religion. The word Savbhav (Natural conduct) also emphasizes the term “Sav” (Moral), the expression of “Sav” is called Savbhav.  If our natural conduct is itself religion, then the question arises, What is
our nature? We regularly continuously tell lies, deceives others,
stoop to any level to earn money or fight with each other, is it our
nature? We indulge in anger, greed and violence, is it our nature?
In reality, this is not our nature. Because we primarily speak the
truth, we tell lies only due to greed or fear. We cannot survive if we
stay angry throughout the day. The anger subsides after some time, and we say that we have now become normal. Thus, our primary condition is not anger, rather it is peace and calm. Anger is contrary to our nature, and calmness is natural behavior. All impulses and charges causing disturbance are contrary to our nature. Our nature is to stay peaceful with virtuous moral conduct; and our religion is to live as per our “nature”.

Another definition of religion is “Yatasya Dhaaryati Sa:H Dharmen” i.e. whatever can be taken, is the religion. It is also an expectation of our natural behavior. Moral nature with pure virtuous conduct is the religion. Therefore, it is directed to be steadfast in natural conduct. This moral conduct and eternal natural behavior is the religion, because peace is the ultimate goal of our life.

error: Jai Gurudev!