Upanishad Varnit Guru Poojan
नमामि निखिल जयन्ती – 21 अप्रैल
गुरु ही आधार हैं
गुरु ही ब्रह्म हैं
उपनिषद् वर्णित गुरु पूजन
गुरु का अर्थ है – ज्ञान, तुप्ति, आनन्द, मस्ती और पूर्णता
जिसकी खोज, चाह प्रत्येक साधक जीवात्मा को रही है और आगे भी रहेगी।
यही पूर्णता का भाव प्राप्त करने की क्रिया गुरु पूजन है, पूजन का अर्थ समर्पण ही है।मम् प्राण स्वरूपं देह स्वरूपं चिन्त्य स्वरूपं
समस्त स्वरूपं गुरु आवह्यामि नमः
गुरु जन्मोत्सव, गुरु पूर्णिमा और संन्यास जयन्ती के अवसर पर प्रत्येक साधक को विशेष गुरु पूजन अवश्य सम्पन्न करना चाहिये।21 अप्रैल गुरु जन्मोत्सव पर्व है, इस दिन उपनिषद् वर्णित यह गुरु पूजन सम्पन्न करें।
यह संसार क्या है? किसने बनाया? क्यों बनाया? और ब्रह्म, जीव, आत्मा तथा माया ये क्या हैं? ये ज्वलन्त प्रश्न तभी से हैं, जब से मानव-जाति ने प्रकृति के प्रांगण में आंखें खोलीं…और आज भी ये प्रश्न अनसुलझे ही प्रतीत होते हैं। इन प्रश्नों का समाधान सतत खोजा जाता रहा है, किन्तु उपनिषद् काल में इन्हीं विशेष प्रश्नों पर अधिकाधिक चिन्तन और मनन हुआ; इसीलिए उपनिषद् काल में अध्यात्म से सम्बन्धित जो सिद्धान्त प्रतिपादित किये गये, वे सभी मौलिक और स्थायी माने गये हैं। उपनिषदों के इन्हीं प्रगाढ़ चिन्तनों के कारण ही सभी ‘उपनिषद् प्रतिपादित शास्त्रीय सिद्धान्त’ प्रमाण के साथ अनुसरण किये जाते हैं। ‘सर्वोपनिषदो गावो’ भगवद्गीता का यह कथन सर्वमान्य प्रमाण है।
आत्मा अजर-अमर है, जीव और ब्रह्म एक हैं, साकार एवं निराकार आदि मौलिक विचार हैं – ये सभी उपनिषद् काल की ही देन हैं, अतः उस काल को आज भी उपनिषदों का स्वर्णिम काल भी कहते हैं।
उपनिषद् काल में अध्यात्म सम्बन्धी उदात्त चिन्तन के पीछे गुरु के दायित्व का बोध उद्भासित होता है, क्योंकि उन्होंने ही बताया है- ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ सबका प्रादूर्भाव परब्रह्म से ही हुआ है। उससे भिन्न कुछ भी नहीं है, इसलिए किसी से भेदभाव करना या किसी को छोटा-बड़ा समझना अनुचित है। आत्म दृष्टि से सब पूर्ण रूप से समान हैं।
आज की भयावह विषम समस्याओं का इन वाक्यों से स्वतः ही समाधान हो जाता है, कि मानव समाज की एकता और समानाधिकार का इससे स्पष्ट प्रमाण और क्या हो सकता है। इन शिक्षाओं को नष्ट करने के लिए गुरुत्व की आवश्यकता होती है, उपनिषद् काल में गुरुत्व को समझा गया, उसी का परिणाम है, कि वह काल अभी भी स्वर्णिम युग के रूप में स्मरण किया जाता है।
तत्कालीन गुरुओं को मालूम था, कि किन बिन्दुओं को कम्पित करने से कुण्डलिनी जागरण की क्रिया सम्भव होती है, और शिष्य के सौभाग्य को जाग्रत किया जाता है, इसीलिए वे उपनिषद् कालीन ॠषि अभी भी जीवित हैं, अपने ज्ञान के माध्यम से।
उपनिषद् का अर्थ है – गुरु के पास जाना और उनके चरणों के समीप बैठना, दिव्य ज्ञान को प्राप्त करने के लिए; क्योंकि उस ज्ञान को प्राप्त करने का एक ही माध्यम है ‘गुरु’, भारतीय अध्यात्म साहित्य में उपनिषद् काल उदात्त एवं श्रेयस्कर माना गया है, हमारी बहुत-सी परम्पराएं इसी काल के ॠषियों की देन हैं, जब चिद्घन अखण्ड ज्ञान की अजस्त्र धारा प्रवाहित हुई; और आज भी वह ज्ञान की गरिमा भारत को महिमा मण्डित की हुई है।
गुरु का अर्थ है – ज्ञान, तृप्ति, आनन्द, मस्ती और पूर्णता; जिसकी खोज सदैव इस जीवात्मा को रही है… और रहेगी। उपनिषद् काल में ॠषियों, महर्षियों और ज्ञानियों की श्रेणी उजागर हुई, अवश्य ही उनमें गुरुत्व के प्रति पिपासा रही है, तभी यह ज्ञान उस काल में अभिव्यक्त हुआ।
उस काल के ॠषियों ने जिस पद्धति से गुरुत्व को प्राप्त किया; पूजा की वह पद्धति सभी साधकों को ज्ञात हो, जिससे वे शीघ्र लाभान्वित हो सकें, उसी प्रयास की यह लघु कड़ी है। साधक का प्रथम कर्त्तव्य यही होता है, कि वह चैतन्य गुरु की प्राप्ति के लिए अहर्निश प्रयास करे… प्राप्ति के बाद आराधना तथा पूजा कैसे करें, वह पूजन की प्रक्रिया निम्न है –
साधकों को चाहिए कि ब्रह्म मुहूर्त में उठकर, स्नानादि से निवृत्त होकर पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठें।
‘प्र्राची हि देवानां दिक्’
‘देवताओं की दिशा पूर्व है’ इसीलिए पूर्व की ओर मुख करके बैठना चाहिए, पूर्वाभिमुख बैठने का प्रमुख कारण, सूर्य का पूर्व से उदय होना है, क्योंकि सूर्य तेजस्विता, शक्ति तथा आरोग्यता का प्रतीक हैं और वे हमें प्राप्त हों, इसी उद्देश्य से पूजा काल में पूर्वाभिमुख ही बैठने का प्रावधान है।
पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठने के बाद आंखों को बन्द कर लें, अपने मन तथा इन्द्रियों को बाह्य विषयों से हटाकर एकाग्र करने का प्रयास करें तथा हृदय में या आज्ञा चक्र में गुरु का ध्यान करें, धीरे-धीरे इस प्रयास से मन शान्त होने लगेगा, बाह्य विषयों से हटकर अन्तः प्रवेश करने का मन स्वाभाविक ही बनने लगेगा। तत्पश्चात् ‘प्राणायाम’ करना चाहिए। इससे अन्तः प्राणश्चेतना जाग्रत होती है और साधक को शीघ्र सफलता प्राप्त होती है।
इसके बाद अपने सामने एक छोटी-सी चौकी रख लें, उस पर पीला या लाल वस्त्र बिछा लें, मध्य में किसी प्लेट या थाली में दिव्य ‘गुरु यंत्र’ को स्थापित करें तथा साथ में ‘गुरु चित्र’ भी स्थापित कर लें, धूप-दीप जलाकर निम्न क्रमानुसार पूजन करें –
आचमन
तीन बार आचमनी से दाहिनें हाथ में जल लेकर ग्रहण करें। आचमन का अर्थ है – ‘क्लीं, श्रीं और ऐं’ इन तीनों शक्तियों को अपने भीतर धारण करने की प्रक्रिया।
न्यास
न्यास का अर्थ – ‘शरीर के भीतर धारण करना’। दायें हाथ के अंगूठे और अनामिका उंगली को मिलाकर नीचे लिखे मंत्र का उच्चारण करते हुए जिन अंगों का संकेत हो, उन्हें स्पर्श करें और भावना करें, कि मेरे ये अंग शक्तिशाली और पवित्र हो रहे हैं –
अंग न्यास
ॐ हृदयाय नमः – हृदय
परमतत्त्वाय शिरसे स्वाहा – सिर
नारायणाय शिखायै वषट् – शिखा
गुरुभ्यो कवचाय हुम् – भुजाओं
नमः नेत्रत्रयाय वौषट् – नेत्रों
ॐ अस्त्राय फट् – तीन ताली बजाएं।
कर न्यास
ॐ – अंगुष्ठाभ्यां नमः।
परमतत्त्वाय – तर्जनीभ्यां नमः।
नारायणाय – मध्यमाभ्यां नमः।
गुरुभ्यो – अनामिकाभ्यां नमः।
नमः – कनिष्ठिकाभ्यां नमः।
ॐ – करतलकर पृष्ठाभ्यां नमः।
ध्यान
अपने आज्ञा चक्र पूज्य गुरुदेव का ध्यान करते हुए निम्न मंत्रों को बोलें-
यो विश्वात्मा विविधविषयान् प्राश्य भोगान् स्वाधिष्ठान्,
पश्चाच्चान्यान् स्वमतिविषयान् ज्योतिषा स्वेन सूक्ष्मान्।
सर्वानेतान् पुनरपि शनैः स्वात्मनि स्थापयित्वा;
सर्वान् विगतगुणगणः पात्वसौ नस्तुरीयः॥
श्री गुरु चरणेभ्यो नमः ध्यानं समर्पयामि।
‘जो गुरुत्व (स्थूल शरीर में आकर) शुभाशुभ कर्मजनित भोगों को भोग कर अपनी ‘स्व’ शक्ति द्वारा कल्पित सूक्ष्म विषयों को अपने ही प्रकाश से भोगते हुए, धीरे-धीरे समस्त जागतिक प्रपंचों को अपने भीतर समाहित कर निर्गुण रूप में स्थित हो जाते हैं, वह तुरीय स्वरूप सद्गुरु हमारी रक्षा करें।’
आसन
दाहिने हाथ में पुष्प लेकर गुरुदेव को आसन दें –
आदिबुद्धाः प्रकृत्यैव सर्वे धर्माः सुनिश्चिताः।
यस्यैवं भवति शान्तिः सोऽमृतत्वाय कल्पते॥
सकृते कल्याण त्वां पुष्पासनं समर्पयामि नमः।
आह्वान
दोनों हाथ सामने उठाकर आह्वान करें-
मम प्राण स्वरूपं, देह स्वरूपं, चिन्त्य स्वरूपं,
समस्त स्वरूपं गुरुं आवाहयामि नमः।
न निरोधो न चोत्पत्ति र्न बद्धो न च साधकः।
न मुमुक्षुर्न वै मुक्तः इत्येषा परमार्थता॥
श्री गुरु चरणेभ्यो नमः इदमावाहनं समर्पयामि।
‘न प्रलय है, न उत्पत्ति; न बद्ध है, न मुक्त है; यही गुरुत्व की परमार्थता है। मैं हृदय से उनका आह्वान करता हूं।’
पाद्य
गुरु चरण प्रक्षालन हेतु आचमनी से जल अर्पित करें-
न कश्चिज्जायते जीवः संभवोऽस्य न विद्यते।
एतत् तदुत्तमं सत्यं यत्र किंचिन्न जायते॥
श्री गुरु चरणेभ्यो नमः इदं पाद्यं समर्पयामि।
‘कोई भी जीव उत्पन्न नहीं होता, उसके जन्म की सम्भावना ही नहीं है, सत्यता यही है कि किसी वस्तु की उत्पत्ति ही नहीं होती। ऐसे निरामय गुरुत्व को पाद प्रक्षालन के लिए जल समर्पित करता हूं।’
अर्घ्य
दाहिने हाथ में जल लेकर निम्न मंत्र पढ़ें –
यस्मिन् सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद् विजानतः।
तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वंमनुपश्यतः॥
ॐ देवो तवा वै सर्वां प्रणतवं परिसंयुत्वाः सकृत्वं सहेवाः।
श्री गुरु चरणेभ्यो नमः अर्घ्यं समर्पयामि नमः।
आचमन
तीन आचमनी जल गुरु चरणों में अर्पित करें-
ॐ हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापि हितं मुखम्।
तत्त्वं पूषन्नपा वृणु सत्यधर्माय दृष्टये॥
श्री गुरु चरणेभ्यो नमः इदमाचमनीयं जलं समर्पयामि।
‘सूर्यमण्डलस्थ उस परमतत्त्व का मुख हिरण्यमय पात्र से ढंका हुआ है। हे गुरुदेव! मुझ साधक को आत्मा की उपलब्धि के लिए उस आवरण को दूर कर दें।’
स्नान
स्नान के लिए गुरु चरणों में जल समर्पित करें-
यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद सः।
अविज्ञातं विजानतां विज्ञातमविजानताम्॥
श्री गुरु चरणेभ्यो नमः स्नानीयं जलं समर्पयामि।
‘ब्रह्म, जिसे ज्ञात नहीं है वही ब्रह्म को जानता है, जिसे ज्ञात है वह नहीं जानता, क्योंकि वह जानने वालों का बिना जाना हुआ तथा न जानने वालों का जाना हुआ है।’
वस्त्र/उपवस्त्र
यद्वाचानमभ्युदितं येन वागभ्युदीयते।
तदेव ब्रह्मत्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते॥
श्री गुरु चरणेभ्यो नमः वस्त्रोपवस्त्रं समर्पयामि।
‘जो वाणी का विषय नहीं है, किन्तु वाणी जिससे समर्थ होती है, उसी को ब्रह्म जानो। जिस वस्तु की लोग उपासना करते हैं, वह ब्रह्म नहीं है।’
यज्ञोपवीत
विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्यायाऽमृतमश्नुते॥
श्री गुरु चरणेभ्यो नमः यज्ञोपवीतं समर्पयामि।
‘जो विद्या और अविद्या दोनों को जानते हैं, वह अविद्या के माध्यम से विद्याओं को जानकर अमरत्व को प्राप्त कर लेेते हैं।’
गन्ध
चन्दन, केशर अथवा कुंकुम से तिलक करें और उसके बाद निम्न मंत्र पढ़ें-
यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षूंषि पश्यति।
तदेव ब्रह्म तद्, विद्धि नेदं यदिदमुपासते॥
श्री गुरु चरणेभ्यो नमः गन्धं समर्पयामि।
जिसे नेत्र नहीं देख सकते, किन्तु जिनकी सहायता से नेत्र अपने विषयों को देख पाते हैं, वही ब्रह्म हैं।
पुष्प
यच्छोत्रेण न श्रृणोति येन श्रोत्रमिंद श्रुतम्।
तदेव ब्रह्म तद्विद्धि नेदं यदिदमुपासते॥
श्री गुरु चरणेभ्यो नमः पुष्पहारं समर्पयामि।
‘जिसे कान नहीं सुन सकते, किन्तु श्रोत्र जिनकी शक्ति से अपने विषयों को सुन पाते हैं, वे ही ब्रह्म हैं।’
धूप
तस्मादृचः साम यजूंषि दीक्षा,
यज्ञाश्च सर्वे क्रतवो दक्षिणाश्च।
संवत्सरश्च यजमानश्च लोकाः;
सोमो यत्र पवते यत्र सूर्यः॥
श्री गुरु चरणेभ्यो नमः धूपमाघ्रापयामि।
‘उस परब्रह्म स्वरूप गुरुत्व से ॠग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, दीक्षा, यज्ञ, दक्षिणा, संवत्सर, यजमान, सोम तथा सूर्य उत्पन्न हुए।’
दीप
एको देवः सर्वकाभूतेषु गूढः,
सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।
कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः;
साक्षी चेतो केवलो निर्गुणश्च॥
श्री गुरु चरणेभ्यो नमः दीपं दर्शयामि।
‘शरीर आदि समस्त भूतों में स्वप्रकाश, अद्वितीय ब्रह्म ही आत्मरूप में विद्यमान हैं, वह अविद्या से आच्छन्न होने के कारण गुप्त हैं, अर्थात् सभी उसे नहीं जान सकते।’
नैवेद्य
किसी पात्र में मिष्ठान रखकर नैवेद्य अर्पित करें तथा निम्न मंत्र बोलें –
यद्यत्पश्यतिचक्षुर्भ्यां तत्तदात्मेति भावयेत्,
यद्यच्छृणोति कर्णाभ्यां पश्येद् ब्रह्ममयं जगत्।
श्री गुरु चरणेभ्यो नमः नैवेद्यं निवेदयामि।
‘जो कुछ नेत्रों से देखा जाता है, वह सभी ब्रह्म है; कानों से जो-जो सुना जाता है, वह सभी भी ब्रह्म ही है, ऐसी ही भावना करें, इस दृष्टि से संसार को ब्रह्ममय समझें।’
आचमन
ॐ प्राणाय स्वाहा,
ॐ अपानाय स्वाहा,
ॐ व्यानाय स्वाहा,
ॐ उदानाय स्वाहा,
ॐ समानाय स्वाहा।
इस संदर्भ को बोल कर पांच बार आचमन करें।
ताम्बूल
सादे पान में लौंग, इलायची रखकर ताम्बूल समर्पित करें-
तमेव विदित्वाति मृत्युमेति।
नान्याः पन्थाः विद्यतेऽयनाय॥
श्री गुरु चरणेभ्यो नमः ताम्बूलं समर्पयामि।
‘उस गुरुत्व को जानकर ही साधक मृत्यु के पार जा सकता है, जीवन को पूर्णता देने के लिए आत्म-ज्ञान के सिवाय अन्य मार्ग नहीं है।’
मूल मंत्र
॥ॐ श्रीं निं खिं लं श्रीं ॐ॥
इस मंत्र का ‘गुरु माला’ से तीन माला जप करें।
नीराजन (आरती)
ॐ असतो मा सद्गमय,
तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्योर्माऽमृतं गमय॥
आब्रह्मन् ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायतां मा राष्ट्रे,
राजन्युः शूरऽइषध्योऽलि व्याधी महारथो,
जायतां दोग्धी धेनुर्वोढा न उपाशुः सप्तिः,
पुरन्धियोषाजिष्णु रथेष्ठाः सभेयो युवास्य,
यजमानस्य वीरो जायतां निकामे निकामे नः
पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो नऽओषधयः
पच्यन्तां योगक्षेमो नः कल्पताम्।
श्री गुरु चरणेभ्यो नमः नीराजनं समर्पयामि।
जल आरती
ॐ असौ यस्ताम्रोऽअरुण उतबभ्रुः सुमंगलः। ये चैन (गूं)
रुद्राऽअभितो दिक्षुश्रिताः सहस्त्रशोऽवैषा (गूं) हेडऽईमहे।
शान्ति पाठ पढ़कर दीप के चारों ओर तीन बार आचमनी से जल घुमावें।
पुष्पाञ्जलि
सर्वाननशिरोग्रीवः सर्वभूत गुहाशयः।
सर्व व्यापी स भगवान् तस्मात् सर्वगतः शिवः॥
नानासुगन्धपुष्पाणि यथा कालोद्भवानि च।
पुष्पाञ्जलिर्मया दत्ता गृहाण गुरुनायक॥
श्री गुरु चरणेभ्यो नमः पुष्पांजलि समर्पयामि।
‘गुरु का मुख, सिर, कंठ सभी ओर हैं, गुरु सर्वव्यापी हैं और समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित हैं, अतएव वे सर्वव्यापी एवं सर्व कल्याणकारी हैं।’
नमस्कार
यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते,
येन जातानि जीवन्ति,
यत् प्रत्यभिसंविसन्ति तद्विजिज्ञासस्व,
तद् ब्रह्मेति।
परास्य शक्ति र्विविधैव श्रूयते।
स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च॥
श्री गुरु चरणेभ्यो नमः नमस्कारं समर्पयामि।
विशेषार्घ्य
दाहिने हाथ में जल लेकर निम्न मंत्र पढ़ें-
सर्वकर्मा सर्वकामः सर्वगन्धः सर्वरसः,
सर्वमिदभगयात्तेऽवाक्यानादर एष म;
आत्मान्तर्हृदय एतद् ब्रह्मैतमितः
प्रेत्याभि सं भवितास्मीति यस्य
स्यादद्धा विचिकित्सास्तीति ह
स्माह शाण्डिल्य शाण्डिल्यः।
श्री गुरु चरणेभ्यो नमः विशेषार्घ्यं समर्पयामि।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्ण मुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।
इस मंत्र को बोल कर एक आचमनी से जल पूजा की पूर्णता हेतु निर्माल्य पात्र में छोड़ दें।
ॐ शान्तिः। शान्तिः॥ शान्तिः॥।
– प्राण प्रतिष्ठा न्यौछावर – 410/-
Namaami Nikhil Jayanti – 21 April
Gurus is the Basis
Guru is the Brahma
Guru Poojan as described in Upanishad
Guru means – Knowledge, Satiation, Joy, Energy and Perfection
Every Sadhak, every living being has been seeking Him, and will continue to seek in future
Guru Poojan is the expression of this sense of perfection. Poojan means surrendering everything onto Him
Mam Praan Swaroopam Deha Swaroopam Chintya Swaroopam
Samast Swaroopam Guru Aavhyaami NamaH
Every Sadhak should definitely perform Special Guru Poojan on Guru Janmotsava (Birthday), Guru Poornima and Sanyaas Jayanti
21 April is Guru Janmotsava festival (Gurudev’s Birthday). Perform this Guru Poojan as elucidated in the sacred Upanishad scriptures.
What is this world? Who created it? Why was it created? And what is Brahma, Life-Jeeva, Spirit-Aatma and Illusion-Maya? These vivid questions have been staring at us ever since the first human beings opened their eyes in the lap of nature … And even today these questions seem unanswered. Mankind has been constantly trying to seek solution to these questions. These questions were deeply analyzed, researched and meditated during the era of the Upanishads, and therefore the spiritual principles-philosophies laid down during that phase, are still considered to be the most authentic and complete. The intensive analysis within the Upanishads has ensured ultimate-perfection level of all “Upanishad classical spiritual principles“. The Bhagwad Gita supports this philosophy through “Sarvopanishado Gaavo” principle.
The Upanishads have finalized the basic principles of – Soul is ever immortal, Both Being and the Brahma are one, Real and Virtual are philosophical perspectives. This era is still referred to as the golden age of Upanishads.
The Upanishads have stressed on the importance of Guru on the spiritual philosophical thoughts. They have stated that – “Sarva Khalvidam Brahma” i.e. everything originated from Ultimate ParBrahma. Nothing is distinct from Him, and therefore it is inappropriate to discriminate or distinguish among various beings. Everyone is completely identical, if seen from the soul-spirit perspective.
The fact that these golden sentences automatically solve today’s frightening terrible problems, is the most obvious evidence of singularity and equality of human society. Guru-element spirit is mandatory to comprehend these teachings. The Upanishad-era accorded a very high pedestal to Guru-element, and as a result, that period is still remembered as the golden age.
Those wise Gurus had comprehended the significant trigger points for Kundalini activation, leading to enhanced fortune -luck of the disciples. Thus those Upanishad-era sages are still alive, through their knowledge.
The literal meaning of Upanishad is – to approach Guru and sit by His feet to attain divine wisdom. The only medium to realize that ultimate knowledge is the “Guru“. Our spiritual literature considers the Upanishad-era as the most auspicious-remarkable time period. Most of our traditions have been gifted by the sages of that age, the period of torrential flow of deep spiritual knowledge. This respect for knowledge has continued to glorify India to this day.
Guru denotes – Knowledge, Fulfillment, Joy, Energy, and Perfection, which every soul has been seeking since times immemorial, and will continue to seek in future. The Upanishad-era saw emergence of specific distinctions among monks, sages and ascetics leading to expression of deep knowledge-wisdom, this would have been the intermediate result of this endless unabating thirst for knowledge and wisdom.
All Sadhaks should benefit-educate from the process of attaining Gurutatva – Guru-element spirit as elucidated by the sages of that Golden era. This article is a small effort in that direction. The primary duty of every Sadhak is to make continuous efforts to attain an enlightened conscious Guru… The following procedure details the process to worship and pray Guru, after realizing Him –
The Sadhaks should wake up in the Brahma Muhurtha, purify himself through bath, and sit facing East direction.
“Praachi Hi Devaanaam Dik”
“East is the holy direction of Gods“, therefore we should sit facing East. The Sunrise from the East is the primary reason to sit facing the East direction. Sun represents Intensity, Energy and Health, and all of us aspire to attain them. Therefore it is mandatory to sit facing the East direction.
After sitting towards East direction, the Sadhak should close his eyes, concentrate his mind and senses by removing focus from the outer world, and meditate on the holy form of Guru in either Hridya Chakra or Aagyaa Chakra. This process will slowly calm your mind and the desire to leave outer world and enter inwards will become natural. Thereafter, the Sadhak should perform “Praanaayam“. It activates the inner conscience and the Sadhak gets success rapidly.
Then place a wooden board in front of you, and spread a Yellow or Red coloured cloth on it. Setup divine “Guru Yantra” in a plate in the center, and you should also setup a “Guru-Picture“. Light Dhoop (incense) and Deep (Ghee-Lamp) and start worship rite in the following order –
Aachaman
Take water three times with Aachamani using right hand. The literal meaning of Aachaman is the process to imbibe the three divine powers of “Kleem“, “Shreem” and “Ayeim“.
Nyaasa
Nyaas means – To acquire within the physical body. Join the thumb and ring-finger of right hand together, and touch them on the specific parts of the body chanting following Mantras, whilest feeling flow of enhanced energy and divinity within these body-parts-
Anga Nyaasa
Om Hridyaaya NamaH – Heart
Paramatatvaaya Shirase Swahaa – Head
Naaraayanaaya Shikhaayei Vakshat – Hair-Tuft on head
Gurubhyo Kavachaaya Hum – Arms
NamaH Netratrayaaya Voukshat – Eyes
Om Astraaya Phat – Clap three times
Kar Nyaasa
Om – Angushthaabhyaam NamaH | (Both Thumbs)
Paramatatvaaya – Tarjaneebhyaam NamaH | (Both Index-Fingers)
Naaraayanaaya – Madhyamaabhyaam NamaH | (Both Middle-Fingers)
Gurubhyo – Anaamikaabhyaam NamaH | (Both Ring-Fingers)
NamaH – Kanishthikaabhyaam NamaH | (Both Small-Fingers)
Om – Karatalakara Prishthaabhyaam NamaH | (Both Palms)
Dhyaan
Meditate on the divine form of Pujya Gurudev in your Aagya Chakra chanting following Mantras –
Yo Vishwaatmaa Vividhavishayaana Praashya Bhogaan Swaadhishthaana,
Pashchaachchaanyaana Swamativishayaana Jyotishaa Swena Sukshmaana |
Sarvaanetaana Punarapi ShaneH Swaatmani Sthaapayitvaa;
Sarwaana VigatagunaganaH Paatvasou NastureeyaH ||
Shree Guru CharanebhyoH NamaH Dhyaanam Samarpayaami |
“Let the Almighty Gurudev (within the Physical form) , the beholder of the sacred Guru-Tatva Spirit, one who imbibes the entire universe in His own self, whilest radiating the divine spiritual energy thoughout the entire universe, shield us.”
Aasan
Taking flowers in right hand, offer seat to Gurudev –
AadibuddhaaH Prakrityeiva Sarve DharmaaH SunischitaaH |
Yasyeivam Bhavati ShaantiH SoSmritatvaaya Kalpate ||
Sakrite Kalyaanam Tvaam Pushpaasanam Samarpayaami NamaH |
Aahvaan
Raising both hands, invoke Gurudev to bless us with His divine presence –
Mama Praana Swaroopam, Deha Swaroopam, Chintya Swaroopam,
Samast Swaroopam Gurum Aavaahyaami NamaH |
Na Nirodho Na Chotpatti Nra Baddho Na Cha SaadhakaH |
Na Mumukshurna Vei MuktaH Ityeshaa Paramaarthataa ||
Shree Guru Charanebhyo NamaH Idamaavaahanam Samarpayaami |
“Neither destruction nor creation, neither bound nor free; this itself is the primacy of Guru spirit. I invoke Him deeply from my heart.”
Paadhyam
Offer water with aachamani to wash Gurudev’s feet –
Na Kashchijjaayate JeevaH SambhavoSsya Na Viddhyate |
Etat Taduttamam Satyam Yatra Kinchinna Jaayate ||
Shree Guru Charanebhyo NamaH Idam Paadhyam Samarpayaami |
“No being gets created, there is no possibility of any birth, the divine truth is that nothing gets created. I offer water to wash feet of such divine Guru spirit.”
Ardhya
Chant following Mantra taking water in right hand –
Yasmin Sarvaani Bhutaani Aatmeivaabhud VijaanataH |
Tatra Ko MohaH KaH ShokaH EkatvammanupasyataH ||
Om Devo Tavaa Vei Sarvaa Pranatavam ParisanyutvaaH Sakritvam SahevaaH |
Shree Guru Charanebhyo NamaH Ardhyam Samarpayaami NamaH |
Aachaman
Offer three Aachmani (spoonful) of water into Guru feet-
Om Hiranmayen Paatren Satyasyaapi Hitam Mukham |
Tatvam Pukshannapaa Vrinu Satyadharmaaya Drishtaye ||
Shree Guru Charanebhyo NamaH Idamaachamaneeyam Jalam Samarpayaami |
“The divine light radiations of Almighty spirit are wrapped in Hiranyamaya. O Gurudev! Please remove this cover to enable my soul to progress ahead.”
Snaan
Offer water onto Guru feet for ritual bath –
Yasyaamatam Tasya Matam Matam Yasya Na Veda SaH |
Avigyaatam Vijaanataam Vigyaatamavijaanataam ||
Shree Guru Charanebhyo NamaH Snaaneeyam Jalam Samarpayaami |
“Only the one who does not know Brahma, understands Him, and the one who knows Brahma, doesn’t understand Him; because He is incomprehensible to those who know Him and comprehensible to those who don’t know Him.”
Vastra-Upvastra
Yadvaachaanambhyuditam Yena Vaagabhyudeeyate |
Tadeva Brahmatvam Viddhi Nedam Yadidamupaasate ||
Shree Guru Charanebhyo Vastropavastram Samarpayaami |
“Understand and Comprehend Brahma, whose Divine self itself is not a topic-subject of the speech, but It rather stimulates the speech. That what people worship is not Brahma at all.”
Yagyopaveeta
Vidhyaam Chaavidhyaam Cha Yastadvedobhayam Saha |
Avidhyaa Mrityum Teetrvaa VidhyaayaaSmritamashnute ||
Shree Guru Charanebhyo NamaH Yagyopaveetam Samarpayaami |
“Those who know both Knowledge and Ignorance, they learn knowledge through ignorance to achieve the Ultimate state.”
Gandha
Offer tilak with Chandan (sandalwood), Kesar (Saffron) or Kumkum (Vermilion) and chant following Mantra –
Yachchakshushaa Na Pashyati Yena Chakshunshi Pashyati |
Tadeva Brahma Tada, Viddhi Nedam Yadidamupaasate ||
Shree Guru Charanebhyo NamaH Gandham Samarpayaami |
“That what eyes cannot see, but that what enables the eyes to view its perspectives, is the Brahma.”
Pushpa
Yachchhotrena Na Shrinoti Yena Shrotramidam Shrutam |
Tadeva Brahma Tadviddhi Nedam Yadidamupaasate ||
Shree Guru Charanebhyo NamaH Pushpahaaram Samarpayaami |
“That what ears cannot hear, but that what enables the ears to hear their sound, is the Brahma.”
Dhoopa
TasmaadrichaH Saam Yajoonshi Deekshaa,
Yagyaascha Sarve Kritavo Dakshinaashcha |
Sanvatsarashcha Yajamaanashcha LokaaH;
Somo Yatra Pavate Yatra SooryaH ||
Shree Guru Charanebhyo NamaH Dhoopamaardhaapayaami |
“Rigveda, Yajurveda, Saamdeva, Atharvaveda, Diksha, Yagya, Dakshinaa, Sanvatsara, Yajmaan, Soma and Surya were created from the Ultimate ParBrahma form of Guru spirit.”
Deepa
Eko DevaH Sarvakaabhuteshu GoodhaH |
Sarvavyaapee Sarvabhutaantaraatmaa ||
KarmaadhyakshaH SarvabhootaadhivaasaH ;
Saakshee Cheto Kevalo Nirgunascha ||
Shree Guru Charanebhyo NamaH Deepam Samarpayaami |
“The Almighty Brahma exists in spiritual state within physical forms of all beings in this universe, He exists incognito due to ignorance, and therefore everyone cannot comprehend Hiṃ”
Neivedhya
Offer Neivedhya in form of sweets in a dish and chant following Mantra –
Yaddhatpashyatichakshubhryaam Tattadaatmeti Bhaavayeta,
Yaddhachchhrinoti Karnaabhyaam Pashyed Brahmaamayam Jagat |
Shree Guru Charanebhyo NamaH Neivedhyam Samarpayaami |
“Think golden thoughts that whatever we see through our eyes is all Almighty Brahma, whatever we hear through our ears, is also all Almighty Brahma; consider this entire world as Brahmaamaya.”
Aachaman
Om Praanaaya Swaahaa,
Om Apaanaaya Swaahaa,
Om Vyaanaaya Swaahaa,
Om Udaanaaya Swaahaa,
Om Samaanaaya Swaahaa |
Perform Aachaman 5 times after chanting the above contexṭ
Taambul
Offer Plain paan with Loung (cloves) and Elaichi (Cardamom) –
Tamev Viditvaati Mrityumeti |
NaanyaaH PanthaaH ViddhyateSyanaaya ||
Shree Guru Charanebhyo NamaH Taambulam Samarpayaami |
“The Sadhak can transcend death only after comprehending the Guru spirit, there is no other way than knowledge-of-the-self to achieve perfection in life.”
Main Mantra
|| Om Shreem Neem Kheem Lam Shreem Om ||
Chant 3 mala (rosary-rounds) of this Mantra with “Guru Mala“.
Neerajan (Aarti)
Om Asato Maa Sadgamaya,
Tamaso Maa Jyotirgamaya MrityormaaSmritam Gamaya ||
Aabrahman Braahmano Brahmavarchasee Jaayataam Maa Raashtre,
RaajanyuH ShoorSIshdhyoSli Vyaadhee Mahaaratho,
Jaayataam Dogadhee Dhenurvodhaa Na UpaashuH SaptiH,
Purandhiyokshaajishnu RatheshthaaH Sabheyo Yuvaasya,
Yajamaanasya Veero Jaayataam Nikaame Nikaame NaH
Parjanyo Varshatu Falavatyo NaSAushathayaH
Pachyantaam Yogakshemo NaH Kalpataam |
Shree Guru Charanebhyo NamaH Neeraajanam Samarpayaami |
Jal Aarti
Om Asou YastaamroSaruna UtababhruH SumangalaH | Ye Chein (Gum)
RudraaSabhito DikshushritaaH SahastrashoSveishaa (Gum) HedaSeemahe |
After chanting Shaanti-paath, rotate water filled Aachmani three times around the Deepa.
Pushpaanjali
SarvaananashirogreevaH Sarvabhoota GuhaashyaH |
Sarva Vyaapee Sa Bhagwaan Tasmaat SarvgataH ShivaH ||
Naanaasugandhapushpaani Yathaa Kaalodbhavaani Cha |
Pushpaanjalirmayaa Dattaa Grihaana Gurunaayaka ||
Shree Guru Charanebhyo NamaH Pushpaanjali Samarpayaami |
“The face, head and neck of Guru is ever-present across all directions, Guru is omnipresent and is within the heart of all beings, thus He is omnipresent and omni-benigṇ.”
Namaskaar
Yato Vaa Imaani Bhutaani Jaayante,
Yena Jaataani Jeevanti,
Yat Pratyabhisanvisanti Tadvijigyaasasva,
Tad Brahmoti |
Paraasya Shakti Virvidheiva Shruyate |
Swaabhaavikee Gyaanabalakriyaa Cha ||
Shree Guru Charanebhyo NamaH Namaskaaram Samarpayaami |
Visheshaardhya
Chant following Mantra taking water in right hand –
Sarvakarmaa SarvakaamaH SarvagandhaH SarvarasaH,
SarvamidabhagayaatteSvaakyaanaadara Eksha Ma;
Aatmaantahridaya Etada BrahmoutamitaH
Pretyaabhi Sam Bhavitaasmeeti Yasya
Syaadaddhaa Vichikitsaasteeti Ha
Smaaha Shaandilya ShaandilyaH |
Shree Guru Charanebhyo NamaH Visheshaardhyam Samarpayaami |
Om PoornamadaH Poornamidam Poornaat Poorna Mudachyate |
Poornasya Poornamaadaaya Poornamevaavashishyate |
After chanting this Mantra, drop a spoonful of water through Aachamani to complete the worship.
Om ShaantiH| ShaantiH || ShaantiH |||
Consecrated and sanctified articles – 410 /-