Sadguru Tatva

सद्गुरु तत्व
मैंने समझा गुरु को…
तो समझ गया खुद को…

 

देह भाव से देखने में, श्री गुरु भी एक साधारण मनुष्य की भांति ही दिखते हैं। किन्तु, वे भीतर से आत्म-भाव में पूर्णतया प्रतिष्ठित हैं।
 अतः उन्हें देखना आत्मदर्शन है।  उन्हें सुनना वेद श्रवण है। शारीरिक या मानसिक रूप से उनका सामीप्य पा लेना आत्मा के स्पंदन से स्पंदित होने जैसा है।
बाहर का सम्पर्क न रहे तो शिष्य को अंतर में उतरना ही पड़ता है। तब उसे पता चलता है कि बाहर के श्रीगुरु वास्तव में उसकी अंतरात्मा ही हैं, जो अब भीतर से ही उसका मार्ग-निर्देशन कर रहे हैं।

गुरु-तत्व – एक चिन्तन

आत्मा की अवस्था को दर्शाने के लिए एक कथा है – एक निर्धन व्यक्ति था। आंखों में ज्योति न थी। जैसे-तैसे जीवन चल रहा था। उसे एक दुर्गम स्थान पर स्थित एक ऐसी गुफा का पता चल गया था जिसके विषय में दूसरा कोई नहीं जानता था। अतः उस गुफा में सिर्फ वही व्यक्ति जा सकता था। गुफा में अकूत सम्पत्ति थी। वहां एक से एक ऐसे ऐसे बहुमूल्य माणिक-मोती आदि थे कि यदि किसी को, एक भी रत्न मिल जाए तो जीवन से दारिद्रय का सदा-सदा के लिए लोप हो जाए। हां, एक तरफ उस गुफा में तांबे के सिक्कों का एक बड़ा ढेर भी था। वह अंधा रात्रि की निस्तब्धता में, जब दूसरे सो रहे होते, वहां उस गुफा में चला जाता। दृष्टि तो थी नहीं, इधर उधर टटोलता फिरता। बेश कीमती रत्न चारों और बिखरे होते, पर उसे उन रत्नों का पता न चलता। माणिक-मोती हाथ लग कर भी छूट जाते। हां, हिलाने-डुलाने से तांबे के सिक्कों की ढेरी खन-खन कर बज उठती। वह अंधा उन सिक्कों को ही अंजुली में भर चुप-चाप बाहर आ जाता। अब भला तांबे के सिक्कों का क्या मूल्य? दिन भर में ही ख़र्च हो जाते। रात होते ही वह अंधा फिर उसी गुफा की ओर बढ़ चलता। यही क्रम चलता रहा।

 

यह कथा जन-साधारण के जीवन की सटीक झांकी है। यह अंधेरी गुफा हमारे भीतर ही है – गहन निद्रा की अवस्था – सुषुप्ति। निद्रा के दौरान हम सभी इस गुफा में नित्य प्रवेश करते हैं और इसमें संचित धन को लेकर बाहर आते हैं। अंधे की उपमा इसलिए दी गई है कि जब हम सुषुप्ति में होते हैं तब हमारी चेतना विलुप्त रहती है। हम यह देख नहीं सकते कि सुषुप्ति में हमारी अवस्था क्या है, हम आत्मा के कितने निकट हैं, हमारे पास शक्ति एवं ज्ञान के मोती-माणिक का कितना वृहद् भंडार है – एक भी रत्न उठा लिया तो दरिद्रता का लोप संभव है। पर चेतना न होने से हम मनचाही संपदा नहीं उठा पाते। तांबे के सिक्कों जैसा, शक्ति और ज्ञान का छोटा-मोटा उच्छिष्ट, जो भी हाथ लगता है, उसे ही लेकर गुफा से बाहर (जाग्रत अवस्था में) आ जाते हैं। इससे हमें नित्य के जीवन के लिए कामचलाऊ शक्ति, स्फूर्ति व ज्ञान तो मिलते हैं, पर कुछ विशिष्ट नहीं मिलता। यदि हम चैतन्य हो कर सुषुप्ति में प्रवेश करें तो तुरीयावस्था, आत्मा की स्थिति, का बोध हो जाएगा और शक्ति तथा ज्ञान की अतुलनीय संपदा हाथ लग जाएगी। आत्मा का यह अनुभव ही अध्यात्म का आधार है।

 

सद्गुरु – तुमसे ही तुम्हारा परिचय

 

 

यही आत्मा का अनुभव तो सद्गुरु प्रदान करते हैं। न कुछ लेना, न कुछ देना – तुमसे ही तुम्हारा परिचय करवा देना, बस यही तो गुरु का ज्ञान है, गुरु की क्रिया है, गुरु की शक्ति है।

 

शिव सूत्र में एक सूत्र है – चैतन्यम् आत्मा – अर्थात् आत्मा विशुद्ध चैतन्य है। यह बात जान लेने की है। मन एवं इन्द्रियों के माध्यम से इसी तरह इन्द्रियवश बहने पर मनुष्य की चेतना भी उनके रंग में रंग जाती है।

 

कोई हमसे पूछे तुम कौन हो तो हम कहेंगे – मैं (यह) नाम हूं, मैं छोटा हूं, मैं बड़ा हूं, मैं स्वामी हूं, मैं नौकर हूं, मैं (अपना) शरीर हूं, मैं (अपनी) धारणाएं हूं। पर यह सारे विवरण अधूरे और तात्कालिक हैं। समय व परिस्थिति के साथ बदल जाते हैं। मसलन, अपने बच्चों के सामने हम स्वयं को बड़ा कहेंगे, पर अपने बुज़ुर्गों के सामने हम बच्चे हो जाएंगे। जब हम पढ़ते थे तो स्वयं को विद्यार्थी कहते थे। बाद में हम स्वयं को अपने व्यवसाय व गृहस्थी से जोड़ कर देखने लगे। बुढ़ापे में स्वयं को कुछ और ही बताएंगे। हां, हम अपने को कुछ भी बताएं, हम कहते हैं – मैं यह (अपना परिचय – अपनी आइडेन्टिटी) हूं। अब आइडेन्टिटी कोई भी हो हमारे प्रत्येक उत्तर का आरंभ होगा मैं से और अंत होगा हूं परन्तु ये दो शब्द अवश्य रहेंगे।

 

मैं हूं’ यही शुद्ध चैतन्य है – शुद्ध अहं विमर्ष। यही आत्मा का अनुभव है। जब चेतना अंतर में बहने लगे तो अंततः अपने शुद्ध स्वरूप में निर्विषयी हो यही अनुभव देती है कि ‘मैं हूं’।

 

चैतन्य तो आत्मा ही है

 

 

जब हम सोने लगते हैं, निद्रा में बेसुध हो जाते हैं, इंद्रियां भी बेसुध हो जाती हैं, उनके सभी क्रिया कलाप रुक जाते हैं। जागृत अवस्था में भी उनकी यात्रा वहीं तक है, जहां चैतन्य (चेतना) रूपी आत्मा उन्हें ले जाए। यह आत्म-चैतन्य ही आंखों की आंख है, कानों का कान है, नासिका की नासिका है, जिह्वा की जिह्वा है, स्पर्श का स्पर्श है। यह चैतन्य ही आत्मा है, उससे अभिन्न है। यह चैतन्य ही हमारी इन्द्रियों और मन को परिचालित कर रहा है, पर उनकी पकड़ से परे है। यही निग्रह है।

 

यह निग्रह टूटे, तभी आंख की आंख, कान के कान, नासिका की नासिका, जिह्वा की जिह्वा, स्पर्श के स्पर्श का बोध हो, आत्म-दर्शन हो,  ईश्‍वर का आस्वाद मिले। निग्रह का आवरण गिर जाए और सत्य का प्रकटीकरण हो पाए, यह ईश्‍वर का पंचम कृत्य है – अनुग्रह। अनुग्रह से ही भगवत् दर्शन (या आत्म-दर्शन) संभव है। ईश्‍वर ने अनुग्रह का कार्य गुरु के सुपुर्द कर रखा है।
आज विज्ञान का युग है। मानव मन बहुत विकसित हो गया है और तीक्ष्ण बुद्धि का स्वामी है। सभी तर्क में पारंगत हैं। अधिकतर लोग शिक्षित हैं। नाना प्रकार के विषयों की सूचनाएं इन्टरनेट के माध्यम से सहज में उपलब्ध हैं। इसलिए शिक्षित लोगों में गुरु की आवश्यकता के प्रति शंका होना स्वाभाविक है। किन्तु, अनुभव की बात यह है कि सूचनाओं को संग्रहीत कर उनके ज्ञाता होने मात्र से व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध नहीं होता। शिव सूत्र कहते हैं – ज्ञानम् बंधः। वह ज्ञान जो स्वतः स्फूर्त या अनुभव जनित न होकर सूचना या तर्क पर आधारित हो बंधन ही है।

 

बाहर से संचित किया गया सूचना परक ज्ञान सहायक तो हो सकता है, किन्तु प्रायोगिक, व्यावहारिक, कार्यरूपित नहीं हो सकता। गुरु वह है जो किसी भी विषय के संबंध में सूचना तो दे ही, उसे अंतस् में उतार कर व्यवहार में लाने का सहज मार्ग भी दर्शाए।

 

गुरु ही सिद्ध पूर्ण पुरुष

 

 

अध्यात्म के क्षेत्र में श्री गुरु ऐसे महामना हैं, जो सिद्ध हैं। सिद्ध का अर्थ है पूर्णतया सत्य-निष्ठ, सिद्ध ऐसे पूर्ण पुरुष हैं, जो अखंड शिष्य परंपरा में साधना करते हुए अपने श्री गुरु की कृपा से सत्य के अटूट अनुभव में अडिग रूप से प्रतिष्ठित हो गए हैं। सिद्ध गुरुओं में एक अनोखा सामर्थ्य है। शक्तिपात की रहस्यमयी दीक्षा। इसके द्वारा वे साधक को उसकी आंतरिक दिव्यता की झलक देकर, उसे अंतस में छिपे सत्य के प्रति जागरूक कर देते हैं।

 

शक्तिपात का शाब्दिक अर्थ है – शक्ति का अवतरण। इसमें श्री गुरु अपनी पूर्णतया जागृत आध्यात्मिक शक्ति का एक पुंज शिष्य में प्रविष्ट करा देते हैं। एक विलक्षण घटना घट जाती है। शिष्य की सुप्त आध्यात्मिक शक्ति जागृत हो जाती है।

 

शिष्य की भौतिक काया उसके माता-पिता की देन है। किन्तु, शक्तिपात दीक्षा उसे बोध करा देती है कि भौतिक शरीर के पीछे और कितने सूक्ष्म शरीर कार्यरत हैं और उसकी साधना-यात्रा का उद्देश्य है इन सभी शरीरों के पीछे कार्यरत आत्मा को जान पाना। यह शिष्य का दूसरा जन्म है। वह द्विज कहलाने का अधिकारी बन जाता है।

 

गुरु – अन्तर्मन की सुवास

 

 

दीक्षा के बाद भौतिक शरीर तो ज्यों का त्यों रहता है। किन्तु उसके भीतर चेतना के प्रवाह की दिशा बाहर से भीतर की ओर होने लगती है। पहले चेतना अहंकार, बुद्धि, मन व इंद्रियों के माध्यम से बाहर की ओर बह रही थी। अब इन्द्रियां बाहर झांकने में उतनी उत्सुक नहीं रह जातीं। चेतना का प्रवाह दिशा बदलने लगता है। इन्द्रियां और मन दोनों ही अंतर्मुखी होने लगते हैं। यहीं से उस अविरल साधना यात्रा की शुरूआत होती है जो शिष्य को एक दिन गुरु ही बना देगी अर्थात् उसे गुरुत्व से युक्त कर देती है, वास्तविक सिद्धत्व से युक्त करती है।

 

स्वामी तो आत्मा ही है

 

 

कठोपनिषद में एक सुन्दर प्रसंग है। शिष्य नचिकेता गुरु यमराज से पूर्णत्व का पाठ पढ़ने गया। यमराज मानव मात्र के विषय में रथ का एक सटीक उदाहरण देते हुए नचिकेता को कहते हैं – आत्मानम् रथिनम् विद्धिः।  यमराज कहते हैं, हे नचिकेता! यह शरीर एक रथ के जैसा है। आत्मा इसका स्वामी (रथिन्) है। बुद्धि सारथी है। मन लगाम है। रथ में जुते हुए घोड़े इंद्रियां हैं। ये घोड़े जिस राजमार्ग पर दौड़ रहे हैं वह विषय-वासनाओं की तुष्टि का पथ है। इस उपमा के माध्यम से यमराज नचिकेता को कहते हैं कि आत्मा ही एकमेव जानने योग्य वस्तु है। जिसने आत्मा का दर्शन कर लिया वह स्वामी हो गया।

 

गुरु का शिष्य को बुद्धत्व-दान, यह एक रहस्यमयी विद्या है। आरंभ में गुरु के समीप आने वाले जिज्ञासु में विद्यार्थी का भाव अधिक होगा। वह गुरु से शास्त्रोक्त ज्ञान की अपेक्षा रखेगा। गुरु की सिखावनी को अपनी मान्यताओं के परिप्रेक्ष्य में परखने का प्रयास करेगा। ऐसे विद्यार्थी को गुरु से कुछ बहुत अधिक प्राप्त नहीं होता। किन्तु, गुरु का व्यक्तित्व सम्मोहक है, उनका आकर्षण इतना प्रबल होता है कि यदि विद्यार्थी कुछ दिन गुरु के पास टिक गया तो अनायास ही गुरु से बंधने लगता है। दोनों के बीच विश्‍वास का एक मधुर सूत्र बन जाता है। अब वह विद्यार्थी गुरु की सिखावनी का बौद्धिक विवेचन छोड़ उसे अभ्यास में उतारने लगता है।

 

गुरु और शिष्य – आन्तरिक निकटता

 

 

यहां से शिष्यत्व की यात्रा का सूत्रपात हो जाता है। जैसे जैसे शिष्यत्व घनीभूत होता है, शिष्य की रुचि महज़ किताबी ज्ञान में उतनी नहीं रहती। उसके अभ्यासों में अधिकाधिक नियमितता और गहनता आने लगती है। गुरु के प्रति उसका अनुराग बढ़ता चला जाता है। वह गुरु के आस-पास बने रहने का, उनकी उपस्थिति को अपने भीतर आत्मसात करने का, पूर्ण प्रयास करता है। गुरु का एक-एक, रंग-ढंग बड़ी तन्मयता से देखता है। धीरे-धीरे उसकी जिज्ञासा के स्वरूप में एक सूक्ष्म परिवर्तन आने लगता है। अब उसकी उत्सुकता यह जानने में उतनी नहीं होती कि मेरे गुरु क्या कर रहे हैं, बल्कि यह जानने में होती है कि मेरे गुरु जो कुछ भी कर रहे हैं कैसे कर रहे हैं। शिष्य गहराई से निरखता है कि मेरे गुरुदेव कैसे उठते-बैठते हैं, कैसे चलते-फिरते हैं, कैसे भोजन ग्रहण करते हैं, कोई उन्हें पुष्प गुच्छ दे तो वे उसे कैसे सहेजते हैं, कोई प्रश्‍न पूछे तो उसे कैसे उत्तर देते हैं, कैसे अभ्यागतों का स्वागत करते हैं, आदि आदि। गहन आत्मीयता के इस अभ्यास से शिष्य की गुरु के साथ आंतरिक निकटता बढ़ती जाती है। उसे गुरु से बहुत कुछ प्राप्त होने लगता है।

 

गुरु ही मेरे आराध्य

 

 

अंतिम सीढ़ी यह है कि शिष्य भक्त में बदल जाता है। अब गुरु के साथ शारीरिक नैकट्य की आवश्यकता भी नहीं रहती। गुरु कहीं भी हों वे भक्ति भाव से भरे हुए शिष्य के आराध्य बन गए हैं। शिष्य का मन उनमें तल्लीन है, सिर्फ़ उनके ही विषय में सोचता है। शिष्य के अंतस् में गुरु का ही वास है, उनका ही सान्निध्य है। वह किसी से भी मिले, उसके मन में यही धारणा रहती है कि मेरे श्री गुरु ही इस व्यक्ति के रूप में मेरे पास आए हैं। जीवन में कोई परिस्थिति पैदा हो, वह उसका स्वागत यह सोच कर करता है कि यह मेरे श्री गुरु की देन है। इस तरह शिष्य और गुरु एकरूप होने लगते हैं। अब, शिष्य शरीर से ही अलग है। उसका मन पूर्णतया रिक्त हो गया। उस रिक्त मन में गुरु पूर्णरूपेण उतरता चला जाता है। यह एक अभूतपूर्व संयोग है। शिष्य और गुरु का फ़र्क गया। शिष्य गुरु की तरह चलता है, बोलता है, सभी कर्म करता है। शीघ्र ही, वह गुरु ही हो जाता है।

 

गुरु चित्त की अनुभूति

 

 

देह भाव से देखने में, श्री गुरु भी एक साधारण मनुष्य जैसे दिखते हैं। किन्तु, वह भीतर से आत्म-भाव में पूर्णतया प्रतिष्ठित हैं। उनके मुख से जो भी निर्गत है वह वेद वाक्य ही है। उनके शरीर से जो रश्मि पुंज प्रवाहित हो रहा है, वह आत्मा का स्पंदन है। अतः उन्हें देखना आत्मा का दर्शन है। उन्हें सुनना वेद श्रवण है। शारीरिक या मानसिक रूप से उनका सामीप्य पा लेना आत्मा के स्पंदन से स्पंदित होने जैसा है। श्री गुरु की चित्त वृत्तियां पूर्णतया शान्त हो गई हैं। मन निःशेष हो गया है। उनसे संबंध जुड़ गया तो हमें उनकी अंतर स्थिति की कुछ-कुछ झलक मिलने लगती है। इसीलिए पतंजलि के योग सूत्र में एक सूत्र है – वीतराग विषयं व चित्तम्।

 

गुरु मिले – मन भटकना बन्द

 

 

अर्थात्, निर्विचार होने का एक सहज मार्ग यह भी है कि हम ऐसे महापुरुष के चिन्तन में चित्त को लगा दें जो पूर्ण वीतरागी हैं। यह सर्व विदित है कि हम जिस व्यक्ति के गुणों का आदर पूर्वक चिन्तन करते हैं वे गुण हमारे भीतर स्वतः पनपने लगते हैं। श्री गुरु बाहर से देखने में इस जगत के प्रतीत होते हैं। पर, भीतर से वे पूर्ण वीतरागी हैं। अतः उनका चिन्तन करने से हमारे चित्त का विक्षेप स्वयमेव क्षीण होने लगता है। मन इधर उधर भटकना छोड़ शुद्ध चैतन्य की गहन प्रशान्ति की ओर आपो-आप बढ़ निकलता है। समय आने पर योग घटेगा, आत्म-दर्शन उपलब्ध हो सकेगा। इसीलिए उक्ति है – गुरुकृपा हि केवलम् – गुरुकृपा ही एकमेव अवलम्बन है।

 

अकसर लोगों में यह भय होता है कि गुरु की शरण में जाने का अर्थ है कि अपने जीवन की बागडोर हमेशा के लिए किसी और को पकड़ा देना और अपनी वैचारिक स्वतंत्रता को खो देना। पर, असलियत कुछ और ही है। सद्गुरु की महत्ता इसमें है कि वे बाहर से रूप-गुण सम्पन्न दिखते हैं पर भीतर से रूपातीत एवं गुणातीत हैं। इसी में गुरु की उपादेयता का रहस्य है। शिष्य को श्रीगुरु के साथ अंतरंग संबंध जोड़ना है। यह घटना घटे, इसके लिए श्रीगुरु का शरीर सहज माध्यम है। नए-नए शिष्य को श्री गुरु बहुविध आश्रय देते हैं। उसके आस-पास बने रहते हैं। साधना के अतिरिक्त समय-समय पर वे लौकिक जगत के विषय में भी कुछ-कुछ सलाह देते हैं। शिष्य को लगता है कि मेरे श्री गुरु मुझे कितना चाहते हैं, मुझे सदा निकट रखते हैं। यह निकटता शिष्य की अंतर-यात्रा को चलाने में सहायक बनती है।

 

गुरु तो स्वतंत्र बनाते हैं

 

 

पर, वास्तविकता यह है कि श्री गुरु को शिष्य को परतंत्र बनाए रखने में कोई दिलचस्पी नहीं। प्रत्येक क्षण श्री गुरु को अपनी अंतर्दृष्टि से यह पता रहता है कि उनके शिष्य की साधना कैसी चल रही है। एक दिन जब वे जान जाते हैं कि शिष्य यथेष्ट रूप से परिपक्व हो गया है और उसमें यह योग्यता विकसित हो गई है कि वह भीतर ही भीतर आत्मा से स्वयं संपर्क साध सके, तो श्री गुरु ऐसी जुगत बिठाते हैं कि शिष्य भौतिक रूप से उनसे दूर हो जाए। बाहर का सम्पर्क न रहे तो शिष्य को अंतर में उतरना ही पड़ता है। तब उसे पता चलता है कि बाहर के श्रीगुरु वास्तव में उसकी अंतरात्मा ही हैं, जो अब भीतर से ही उसका मार्ग-निर्देशन कर रहे हैं। इस अंतरंग संबंध के चलते, शिष्य गुरु के बाह्य शरीर के आकर्षण के बंधन से भी मुक्त हो जाता है। अब आत्म-साक्षात्कार की यात्रा के मार्ग की एक बहुत बड़ी बाधा न रही। उसके लिए ईश्‍वर प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त हो गया।

 

तुम बनो आत्मनिर्भर

 

 

ऐसे उदाहरण हमें अपने चारों ओर रोज़ाना देखने को मिलते हैं। बच्चा चलना सीख रहा हो तो उसकी मां आरंभ में हाथ पकड़ कर चलाती है। बाद में जैसे ही वह देखती है कि बच्चा कुछ डग बिना सहारे चल रहा है, वह उसका हाथ छोड़ देती है ताकि वह स्वयं आत्मनिर्भर हो बिना सहारे के चल सके। जब हम बाग़ में पौधे रोपते हैं तो शुरू शुरू में उनकी बहुत देख भाल करते हैं – मिट्टी में खाद डालते हैं, पौधों को रोज़ सींचते हैं, उन्हें जानवरों से बचाने के लिए चारों और बाड़ बनाते हैं। धीरे धीरे पौधे जड़ पकड़ कर बड़े हो जाते हैं। अपनी ख़ुराक मिट्टी से स्वयं खींचने लगते हैं। जानवरों की पहुंच से परे चले जाते हैं तब उन्हें हमारी देख-भाल की आवश्यकता नहीं रहती। फिर हम उन्हें देखते भी नहीं। बाग अपने आप फलता-फूलता रहता है।

 

यही घटना गुरु-शिष्य संबंध में घटती है। श्री गुरु सद शिष्य को आत्मनिर्भरता का प्रसाद देते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो श्री गुरु व्यक्ति नहीं तत्व हैं – ईश्‍वर की अनुग्राहिका शक्ति के तत्व। गुरु तत्व के प्रति शिष्य में जितना समर्पण होगा आत्मानुसंधान की उसकी यात्रा उतनी ही निर्बाध गति से चलेगी। श्री गुरु गीता में इसी गुरु तत्व के अनुशीलन के विषय में भगवान शंकर देवी पार्वती को कहते हैं –

 

मन्नाथः श्रीजगन्नाथः मद्गुरु श्री जगद्गुरुः ।
ममात्मा सर्वभूतात्मा तस्मै श्रीगुरवे नमः॥
गुरुतत्व को आदरपूर्वक नमन्

 

गुरु तत्व की चर्चा हो तो शिष्यत्व की चर्चा करना आवश्यक है। शिष्य का अर्थ है – वह जो सीखने को तत्पर हो। शिष्य वह है जिसे अपनी जानकारियों का आग्रह या घमण्ड नहीं है। वह मन से खुला हुआ है और कहीं से भी कुछ भी मिले उसे व्यवहार की कसौटी पर कसकर अपने अनुभव के परिप्रेक्ष्य में परखने को तैयार रहता है। ऐसा व्यक्ति साधना में अग्रणी होता है और एक के बाद एक पड़ाव पार करता चला जाता है। अतः सत्य की तलाश हो तो शिष्य भाव को पुष्ट करना आवश्यक है। श्रीगुरु के रूप में ईश्‍वर की अनुग्राहिका शक्ति स्वयमेव आकर्षित हो जीवन में उतर आएगी।

 

गुरु तो ईश्‍वर का अनुग्रह है, जो शिष्य को इस जीवन में मिले हैं इस अनुग्रह शक्ति का निरन्तर विकास कीजिए – मन के द्वार खोलिये गुरु तो भीतर आने के लिए तत्पर हैं, उन्हें मन के सिंहासन पर विराजमान कीजिये।

 

॥ शुभस्य शीघ्रम्॥

SadGuru Tatva Element

I understood Gurudev …

Then I managed to comprehend myself…

Physically, from the external body, Shree Guru looks just like an ordinary man. However, within Himself, He is the Ultimate Complete embodiment of Perfection.

So, to see Him is similar to viewing the soul. Listening to Him is similar  to hearing to the Vedas. Gaining proximity to Him either physically or mentally, is similar to the resonant flow of soul vibrations.

When the physical contact breaks, the disciple has to go within his consciousness. Then he realizes that in reality, Shree Guru is always within his inner soul, who is now guiding him from within.


Guru-Tatva Element – A reflection

A fictional story illustrates fully the state of the soul – There was a poor man. He was blind in his eyes. He was somehow leading his life. He had found a cave in an inaccessible location, about which no-one else knew. So, only he could enter that cave. The cave was full of vast treasures. It contained so many invaluable and rare jewels-pearls, that even a single gemstone was sufficient to completely eliminate penury from his life. Moreover, there was also a big heap of copper coins in a side of the cave. That blind man used to go into the cave in the dark quietness of the night, while others were sleeping. He could not see, so he just used to grope everywhere. Precious stones used to lie scattered around, but he was not aware of them. He used to leave ruby pearls, even after touching them. However, the copper stones used to make a clinging sound when moved. That blind man used to collect those copper stones in his hands, and return back. Now what good were those copper coins? These used to get spent within the day. He used to return back to the cave at the night-fall. This sequence used to continue daily.

The story is an accurate representation of the life of the general public. This deep dark cave is within us – the state of deep sleep – Sukshupti. We daily enter this cave during our sleep and return back with the accumulated wealth. The blind metaphor has been used because during Sukshupti sleep, our consciousness is inactive. We cannot see our state during Sukshupti, how near are we to our soul, we have such a vast treasure-trove of Shakti power and Wisdom-Knowledge pearls and jewels – even a single one can wipe out our poverty. But we cannot pick-up the desired wealth in the absence of consciousness. A tiny-weeny little bit of wisdom-power, like a copper coin, whatever we could grope, we bring it back from the deep cave into our awakened state. These small pickings provide us with a little bit of energy, vigour and knowledge to run our daily lives, but nothing special. If we enter the Sukshupti state in full consciousness, then we will realize the state of Soul, the Turiyawastha, and we will then realize an incomparable wealth of knowledge and power. This experience of the soul is the basis of the spirituality.

 

SadGuru – Your introduction to yourself

SadGuru provides this experience of the soul. Not to take anything, not to give anything – just introduce yourself to you, just this is the knowledge-wisdom of SadGuru, the process of SadGuru, the energy of SadGuru.

The Shiva Sootra contains a sootra – Cheitanyam Aatma – i.e. the soul is  pure consciousness. This is the only fact to comprehend. The human consciousness flowing along with the mind and the senses, gets coloured with the shades of these senses.

If someone queries us “Who are you” then we will reply – I am (this) name, I am small, I am big, I am the owner, I am the servant, I am (my) body, I have (my) beliefs.  But all of these details are incomplete and incidental. They change with time and circumstances. For example, we will call ourselves as a grown-up in front of our children, but we will become children in front of our elders. When we used to study, we used to call ourselves as students. Later we started to view ourselves from the prism of our business-job and family. We will call ourselves as something else in our old age. Yes, whatever we call ourselves, we do say – I am (my introduction – my identity). Whatever be our identity, our answer will start from I and will end at am, these two words will always remain.

“I am”, this is pure consciousness – Shuddh Aham Vimarsha. This is the experience of the soul. When consciousness starts to flow into our inner self, then eventually in its purest form it provides an experience that “I am”.

 

Consciousness is the Soul itself

When we fall asleep, we become delirious within sleep, all our senses get into a trance, all of their process-activities stop. Their reach in the awakened state is also till that stage – where Cheitanya (consciousness) soul takes them to. This self-consciousness is the vision of the eyes, the audibility of the ears, the breath of the nostrils, the taste of the tongue, the touch of the skin. This consciousness is the soul, it is integrally merged within it. The consciousness is driving our senses and our mind, but it is beyond their grasp or control. This is the Nigrah (subjugation).

When this subjugation breaks, then one becomes conscious of the vision of the eye, the audibility of the ear, the the breath of the nostrils, taste of the tongue, the touch of the skin, the sense of the self, and the manifestation of the God. The demolition of this subjugation layer, and the manifestation of the real truth, this is the fifth act of God – the Anugrah (Grace). The Divine vision (or soul-vision) is possible only through this grace. God has handed over the responsibility of grace to Guru.

This is an era of science. The human mind has highly evolved now and is the owner of deep intellect. Everyone is an expert in argument-debate. Most of the people are educated. Information on various subjects and topics is easily available through internet. Therefore it is natural for a suspicion about the necessity of Guru to arise among the literate people. However, our experience teaches us that mere collection of information and learning of these information does not make a person wise. The Shiva Sootra states – Gyaanam BandhaH. The knowledge which is not self-evolved or is not experience-generated, but rather based merely on information or arguments is just a binding bondage.

The information based knowledge collected externally can be a good assistant, however it cannot compete against the experiential, practical and action-based knowledge. Guru is the one who not only imparts knowledge about a particular topic, but also guides and demonstrates a simple way to imbibe and utilize that information practically.

 

Guru is the Perfect Siddha Personality

Shree Guru is a magnificent personality in the spiritual field, who is an accomplished Siddha. Siddha means perfectly connected with Truth, Siddha is such a perfect personality that one who has continued to perform Sadhana in the eternal disciple tradition, has manifested with accurate truth experience with the grace of Shree Guru. The Siddha Gurus have a unique ability. The mysterious Diksha-initiation of Shaktipaat. They activate the inner truth, by imparting a divine sense through this Shaktipaat.

The literal translation of Shaktipaat is – Incarnation of Shakti power. Shree Guru transfers a part of His perfectly activated spiritual energy into the disciple. A remarkably singular event occurs. The latent spiritual sense of the disciple activates.

The physical body of the disciple is a gift from the parents. But the Shaktipaat Diksha provides him the perception of the multiple hidden divine body-forms operating within the physical body, and the supreme goal of his Sadhana-meditation is to comprehend the spirit-soul driving these divine body-forms. This is the second birth of the disciple. He becomes entitled to be called twice-born.

 

Guru – The Fragrance of Conscience

The physical body remains same after the Diksha-initiation. However the inner conscious starts flowing from outside to inside. Previously, the conscious was flowing out through ego, intellect, mind and senses. However, now the senses lose their interest in peeping outside. The direction of flow of conscious changes. Both senses and the mind start streaming inside. This is the initiation point of the continuous Sadhana journey which will one day transform the disciple into a Guru, i.e. will impart Guru element into him, and will equip him with real Siddha element.

 

The Soul itself is the Master

There is a beautiful context in Kathopanishad. The disciple Nachiketa went to Guru Yamraj to learn the art of Perfection. Yamraj explained to Nachiketa while illustrating the human senses with a simple example of a chariot – Aatmaanam Rathinam ViddhiH. Yamraj explained that Hey Nachiketa! This body is like a chariot. The soul is the owner-master. The intellect is the driver-charioteer. The mind is the bridle. The senses are the horses in the chariot. These horses are racing on the highway, which is the path of satiation of the desires-lust. Yamraj explained to Nachiketa with this metaphor that the soul is the only object worth understanding. Whomsoever realized the soul, became the master.

The divine Buddha-tatva element benevolence of Guru towards His disciples is a mysterious knowledge. In the beginning the curious disciple will have more student-like curiosity. He will expect scripture textbook knowledge from the Guru. He will try to evaluate the Guru’s teachings according to the perspective of his own beliefs. Such a student does not gain a lot of knowledge from the Guru. However, the personality of Guru is hypnotic, his attraction is so strong that if a student manages to stay with Guru for few days, he automatically starts to bind with the Guru. A sweet bondage of trust develops between the both. Now that student starts to practically assimilate the Guru’s teachings, instead of intellectual evaluation.

 

Guru and the disciple – Inner Proximity

This initiates the journey of the discipleship. As the discipleship condenses within the disciple, the disciple’s curiosity in bookish intellectual knowledge decreases. A regularity and intensification starts developing in his practical exercises. His devotion towards Guru enhances. He tries his utmost to remain in close proximity to the Guru, and to imbibe His presence within himself. He observes each action and word of Gurudev very deeply. Gradually a subtle change develops in his curiosity. Now he is not curious to know about the actions of his Gurudev, rather he now wants to comprehend whatever Guru is doing, how is He doing. The disciple deeply evaluates how his Gurudev sits, how does He move, how does He partake food, how does He caress a bouquet if someone gifts to Him, how does He answer the questions which anyone asks, how does He welcome the visitors etc. etc. This exercise of deep observations enhances the inner proximity with Guru. He starts to gain a lot from the Guru.

 

Guru is my adoring Deity

In the final step, the disciple converts into a devout. Now there is no need to stay within close proximity of the Gurudev. Wherever the Guru is, He has become the adoring deity of the devoted disciple. The mind of the disciple is completely engrossed within Him, he thinks only and only about Him. Only Guru resides within the inner mind of the disciple, and He is the only companion. Whomsoever he meets, he believes that my Shree Guru has come to meet me in the form of this person. He welcomes any circumstance developing in life with the belief that this is a gift from my Shree Guru. Thus the inner self of disciple and the Guru start merging. Now, the disciple is different from the Guru only in his body. His mind has become completely blank. The Guru element continuously perfectly imbibes within this empty mind. This is an unprecedented situation. The differentiation between the Guru and the disciple evaporates. The disciple walks like the Guru, he speaks like Him, he acts like Him. Soon, he transforms into the Guru.

 

The experience-sensation of Guru mind

In physical view, the Guru looks like an ordinary man. However, from within, He is perfectly expressed in His inner self. The divine aura light emanating from His body is the vibration of the soul. Therefore mere seeing grants vision of the soul. Listening to Him is akin to listening to the holy Vedas. Obtaining a proximity to Him either physically or mentally is similar to developing resonance in the pulse-beats of the souls. All desires of Shree Guru have become completely quiet. His mind is completely liberated. Developing a connection with Him grants us some little glimpses of His inner mind. Therefore a sootra in Patanjali’s Yoga Sootra states – Vitraaga Vishyam Va Chittam.

 

Meeting with Guru – Wondering of the mind Stops

Meaning, another simple method to become completely thoughtless is to pour all our thoughts in thinking about a great person who is fully detached. It is well known that whatever attributes of others we respect, those attributes start developing in our mind automatically. Shree Guru physically appears like an ordinary person from this world from the outside. However, He is completely detached from inside. Thus thoughts about Him automatically starts waning our attachments. The mind automatically starts moving into deep pure concentration of profound tranquillity instead of wondering about.  The fortune will come at the opportune time, and it will be possible to visualize the self. Therefore it is stated – Gurukripa Hi Kevalam – The grace of the Guru is the sole method.

People often fear that surrendering ourselves to the Guru means handing over the reins of your life to someone forever and to lose our own ideological independence. The reality is something else. The significance of SadGuru is that He looks like the one endowed with good look-qualities from the exterior, but within His real self, He is the embodiment of Perfection. This is the intimate mystery of Guru. The disciple needs to merge his inner self with Shree Guru. The body of Shree Guru is a mere medium to enable this process to occur. Shree Guru supports and nurses new disciples in multiple ways. He stays within their easy reach. He also sometimes imparts advice about various topics of the temporal world, apart from providing guidance about Sadhanas. The disciple feels that how much my Shree Guru likes me, He always keeps me near Him. This proximity becomes a useful accessory in the inward journey of the disciple.

 

Guru makes us Independent

However, the reality is that Shree Guru has no interest in making the disciple dependent. Shree Guru keeps monitoring the progress of Sadhana of His disciple at each moment through His inner self. When He realizes one day that the disciple has attained capability, and that he has developed the ability to directly link with the inner soul independently, then Shree Guru creates the circumstances for the disciple to physically stay away from Him. The disciple will have to enter into the inner self in the absence of any external contact. Then he realizes that the outer Shree Guru is in reality his own conscious self, who is now guiding-directing him from the inside. This inner linked connection also liberates the disciple from the attractive bondages of Guru’s exterior form. Now the major obstacle on the way to self-realization has disappeared. The path to realization of God is now ready for him.

 

You should become Self-Reliant

We see multiple such examples around us daily. When a child starts learning to walk, first his mother teaches him to walk by holding his hands. Then when she notices that the child can now take a few steps without any support, she lets go of her hands so that the child can now walk independently without any support. When we plant saplings in the garden, then initially we give them a lot of care – add fertilizers and manure, water the plants daily, and build a fence to protect them from animals. Slowly the plants take root, and grow up. They start to pull their own food from the earth. They grow beyond the reach of the animals and then they no longer require our protection. We do not even see them after that. The garden grows and thrives on its own.

A similar event takes place in the Guru-disciple relationship. Shree Guru oblates the self-reliance attribute to the Sad disciple. Within this perspective, Shree Guru is not a personality, rather He is the Guru element, the element of divine offering. The higher the intensity of dedication within the disciple for the Guru element, the faster and smoother will be his journey to realize his own self. Lord Shankar explained this context to Goddess Parvati in Guru Gita as –

MannathaH ShreejagannathaH Mduru Shree JagduruH |

Mamaatmaa Sarvabhutaatmaa Tasmei Shreeguruve NamaH ||

 

Reverential bow-salute to Guru-element

A reference to discipleship is necessary while discussing about the Guru-element. The literal meaning of the disciple is – one who is willing to learn. A disciple is one who does not have any pride or interst in showing-off of his knowledge. His mind is completely open, and whatever he gets from anywhere, he is ever-ready to evaluate its practicality within the perspective of his own experience. Such a person leads in the Sadhanas and keeps on scaling one summit after the another. Therefore it is necessary to strengthen the discipleship to search for the ultimate Truth. The gifting divine power will Herself be attractively drawn in life within the form of Shree Guru.

Guru is the grace of God, whom the disciple has achieved in this life, continue to develop this power of grace – open the doors of your mind, Guru is ready to venture inside, seat Him on the holy throne of your mind.

|| Shubhasya Sheegram ||

error: Jai Gurudev!