Mystery of Shiva and Shakti
सृष्टि का आधार
शिव और शक्ति का मिलन
शिव और शक्ति का रहस्य
शिव इस सृष्टि का परम सत्य हैं और शिव ही सुंदर हैं। उनकी आराध्य त्रिपुर सुंदरी ही माता भुवनेश्वरी हैं। शिव मृत्युंजय’ हैं, तो शक्ति काली, बगला, तारा, भुवनेश्वरी हैं।
हर जीवात्मा के शरीर आधार चक्र में शक्ति स्थापित हैं और सिर के ऊपर सहस्रार में शिव बैठे हैं परंतु वे नीचे नहीं उतरते, स्वयं शक्ति ही सारे चक्रों का भेदन कर उनसे जा मिलती है।
आदिशक्ति मूल महाशक्ति कुमारी रूप में हैं। वहीं पार्वती, नवदुर्गा, दशमहाविद्या हैं, सीता, राधा, लक्ष्मी, सरस्वती भी वही हैं। शिव शक्ति जब कृपा करते हैं, जीव सभी पाशों से मुक्त होकर सभी धर्मों, सभी रहस्यों को देख व समझ लेता है।
शिव शक्ति का प्रेम ही ऐसा है कि ये एक दूसरे के बिना रह नहीं सकते।
शिव त्रिकोण ऊर्ध्वमुख है, वहीं शक्ति त्रिकोण अधोमुख है। शिव शक्ति की लीला तो परम आनंद प्रदान करती है।
साधकों से आग्रह है कि वे इस सारगर्भित लेख को बार-बार पढ़ें, शिव शक्ति आपके जीवन में व्याप्त है, उस शिव भाव से अपने आपको आनन्दित करें, शक्ति भाव आपके जीवन की हर क्रिया में है उसे जाग्रत कर अपने जीवन को श्रेष्ठतम् बनाएं।
शिव ही सर्वस्व
शिव और शक्ति – ये परम तत्व के दो रूप है। शिव और शक्ति एक दूसरे के पूरक है। एक के बिना दूसरा अधूरा है, शिव पुराण में कहा गया है –
एवं परस्परपेक्षा शक्तिशक्तिमतो: स्थिता
न शिवेन विना शक्तिर्न शक्तया विना शिवः॥
शक्ति और शिव को सदा एक दूसरे की अपेक्षा रहती है। न शिव के बिना शक्ति रह सकती हैं और न शक्ति के बिना शिव रह सकते हैं।
जो सृष्टि में है वही पिण्ड में है – ‘यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे।’ समस्त शरीरों का अन्तिम आधार एक परम आध्यात्मिक शक्ति है जो अपने मूल रूप में अद्वैत परमात्मा शिव से अभिन्न एवं तद्रूप है। समस्त शरीर एक स्वतः विकासमान दिव्य शक्ति की आत्माभिव्यक्ति है। वह शक्ति अद्वैत शिव से अभिन्न है। वही आत्म चैतन्य आत्मानंद, अद्वैत परमात्मा अपने आत्म रूप में स्थित होती है तब शिव कहलाती है और जब सक्रिय होकर अपने को ब्रहमाण्ड रूप में परिणत कर लेती है तथा दिक, काल सीमित असंख्य पिण्डों की रचना, विकास तथा संहार में प्रवृत्त होती है, तथा अपने को अनेक रूपों में व्यक्त करती है, तब शक्ति कहलाती है। यह शक्ति पिण्ड में कुण्डलिनी के रूप में स्थित है। यही शक्ति महाकुण्डलिनी के रूप में ब्रह्माण्ड में स्थित है।
शिव पुराण के अनुसार शिव-शक्ति का संयोग ही परमात्मा है। शिव की जो पराशक्ति है उससे चित्त शक्ति प्रकट होती है। चित्त शक्ति से आनंद शक्ति का प्रादुर्भाव होता है, आनंद शक्ति से इच्छाशक्ति का उद्भव हुआ है, इच्छाशक्ति से ज्ञानशक्ति और ज्ञानशक्ति से पांचवीं क्रिया शक्ति प्रकट हुई है। इन्हीं से निवृत्ति आदि कलाएं उत्पन्न हुई हैं।
चित्त शक्ति से नाद और आनंदशक्ति से बिंदु का प्राकट्य बताया गया है। इच्छाशक्ति से ‘म’ कार प्रकट हुआ है। ज्ञानशक्ति से पांचवां स्वर ‘उ’ कार उत्पन्न हुआ है और क्रियाशक्ति से ‘अ’ कार की उत्पत्ति हुई है। इस प्रकार प्रणव (ॐ) की उत्पत्ति हुई है।
शिव से ईशान उत्पन्न हुए हैं, ईशान से तत्पुरुष का प्रादुर्भाव हुआ है। तत्पुरुष से अघोर का, अघोर से वामदेव का और वामदेव से सद्योजात का प्राकट्य हुआ है। इस आदि अक्षर प्रणव से ही मूलभूत पांच स्वर और तैंतीस व्यजंन के रूप में अड़तीस अक्षरों का प्रादुर्भाव हुआ है। उत्पत्ति क्रम में ईशान से शांत्यतीताकला उत्पन्न हुई है। ईशान से चित्त शक्ति द्वारा मिथुनपंचक की उत्पत्ति होती है।
अनुग्रह, तिरोभाव, संहार, स्थिति और सृष्टि इन पांच कृत्यों का हेतु होने के कारण उसे पंचक कहते हैं। यह बात तत्वदर्शी ज्ञानी मुनियों ने कही है। वाच्य वाचक के संबंध से उनमें मिथुनत्व की प्राप्ति हुई है। कला वर्णस्वरूप इस पंचक में भूतपंचक की गणना है। आकाशादि के क्रम से इन पांचों मिथुनों की उत्पत्ति हुई है। इनमें पहला मिथुन है आकाश, दूसरा वायु, तीसरा अग्नि, चौथा जल और पांचवां मिथुन पृथ्वी है।
आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी – पंचतत्वों का रहस्य
इनमें आकाश से लेकर पृथ्वी तक के भूतों का जैसा स्वरूप बताया गया है, वह इस प्रकार है – आकाश में एकमात्र शब्द ही गुण है, वायु में शब्द और स्पर्श दो गुण हैं, अग्नि में शब्द, स्पर्श और रूप इन तीन गुणों की प्रधानता है, जल में शब्द, स्पर्श, रूप और रस ये चार गुण माने गए हैं तथा पृथ्वी शब्द, स्पर्श, रूप , रस और गंध इन पांच गुणों से संपन्न है। यही भूतों का व्यापकत्व कहा गया है अर्थात शब्दादि गुणों द्वारा आकाशदि भूत वायु आदि परवर्ती भूतों में किस प्रकार व्यापक है, यह दिखाया गया है।
इसके विपरीत गंधादि गुणों के क्रम से वे भूत पूर्ववर्ती भूतों से व्याप्य हैं अर्थात गंध गुणवाली पृथ्वी जल का और रसगुणवाला जल अग्नि का विस्तार है, इत्यादि रूप से इनकी व्याप्तता को समझना चाहिए। पांच भूतों (महत तत्व) का यह विस्तार ही सृष्टि रचना रहस्य कहलाता है।
शिव शक्ति रहस्य – शिवम
शिव शक्ति जब कृपा करते हैं, जीव सभी पाशों से मुक्त होकर सभी धर्मों, सभी रहस्यों को देख व समझ लेता है। कहीं विरोध नहीं, किसी का अपमान नहीं, कोई धर्म छोटा नहीं, सभी देव-देवी पूजनीय हैं। शिव इस सृष्टि का परम सत्य हैं और शिव सुंदर हैं। उनकी आराध्य त्रिपुर सुंदरी ही माता भुवनेश्वरी हैं। शिव मृत्युंजय’ हैं, तो शक्ति काली, बगला, तारा, भुवनेश्वरी हैं। निराकार ब्रह्म जब साकार रूप धारण करता है, जब वह महाशून्य से प्रकट होकर सगुण रूप धारण करता है, तो शिव कहलाता है और उसकी शक्ति मां भगवती ही मूल आदि शक्ति के नाम से विख्यात है। जीव कई पाशों में बंधा है, वह आत्मदर्शन की चाह रखता है, आत्मा-परमात्मा के दर्शन की चाह रखता है, शिव और शक्ति साकार रूप धारण कर जीव का कल्याण करते हैं, उसकी अभिलाषा पूरी करते हैं।
महाकाल और महाकाली
राम यही हैं, श्याम भी यही हैं- लीलाभेद के कारण अनेक रूपों में लीला करते हैं। मातृसत्ता की कृपा के बिना यह सृष्टि नहीं बन सकती, इसलिए संसार में जहां ‘म’ है वहीं पूर्णता है। ए में ‘म’, राम में ‘म’, श्याम में ‘म’, प्रेम में ‘म’, आत्मा-परमात्मा में ‘म’, परंतु परमात्मा में दो म’ शिव शक्ति की एकता का बोध कराते हैं। भगवती के किसी भी बीजाक्षर में ‘म’ का उच्चारण बिंदु के बदले करने से विशेष मंत्र चैतन्य होता है। यह सृष्टि काल आधारित है इसलिए शिव महाकाल प्रथम और आद्या महाकाली प्रथमा ही मूल शक्ति हैं। शिव के अनेक रूप हैं जो महाकल्याणकारी हैं। वहीं आद्या शक्ति भी नाना रूपों में लीला करती हैं। हर जीवात्मा के शरीर आधार चक्र में शक्ति स्थापित हैं और सिर के ऊपर सहस्रार में शिव बैठे हैं परंतु वे नीचे नहीं उतरते, स्वयं शक्ति ही सारे चक्रों का भेदन कर उनसे जा मिलती हैं।
शिव परम तत्व हैं परंतु उन्हें भी शक्ति प्रदान करने वाली, साथ रहने वाली आदि जगदंबा ही परब्रह्म परमेश्वरी हैं। शिव गुरु हैं, परमात्मा हैं। बिना इनकी कृपा के शक्ति को कौन जानेगा? जब जीवात्मा में शिव तत्व का प्रवेश होता है तभी जीव शक्ति को समझ पाता है। वेद, पुराण, तंत्र, शास्त्र आदि को पढ़कर अध्यात्म को नहीं समझा जा सकता है। इससे ज्ञान का विकास होगा, समझने की लालसा जगेगी, जानने की, देखने की तड़प पैदा होगी परंतु यह तो गुरु मार्ग की साधना है, शिव रूपी कृपा करेंगे तभी सही रास्ता मिलेगा। वैसे शिव शक्ति के पूर्ण रहस्य को जीव कभी नहीं जान सकता, वे बुद्धि, दृष्टि, ज्ञान से भी परे हैं।
शिव अर्धनारीश्वर
शिव के अर्धनारीश्वर रूप में शक्ति उनके वाम भाग में विराजमान हैं, वहीं हरिहर रूप में वाम भाग में विष्णु विराजमान हैं। हर पुरुष में स्त्री छुपी होती है। उसी तरह हर स्त्री में पुरुष छुपा होता है। शक्ति भिन्न-भिन्न रूप धारण कर सृष्टि का संचालन करती है। शक्ति को हर जीव संभाल नहीं पाता परंतु शिव प्रेम हैं, परमात्मा हैं, सब कुछ हैं, इसी कारण शिव पिता व शक्ति माता हैं। दोनों के प्रति प्रेम ही उच्च स्थिति प्राप्त कराता है। जीवन में शिव तत्व का विकास हो, उनका नियम, उनका गुण आ जाए, तो शक्ति स्वयं शिव से मिलन करती हैं- यही तो रहस्य है कुण्डलिनी शक्ति का। साधक जब निष्ठा पूर्वक ध्यान, योग, जप करता है, तो कुंडलिनी सारे चक्र को भेदकर शिव से मिलन कर ही लेती है। शिव और शक्ति के अनेक रूप धारण करने का यही रहस्य है। व्यक्ति को शिव और शक्ति की उपासना का ज्ञान गुरु के मार्ग दर्शन से प्राप्त होता है।
शक्ति शिव से मिलकर शांत होती है
महाकाल महाकाली के नीचे लेटे हैं, शिव के लेटने का मूल कारण शक्ति के उग्र रूप से सृष्टि को बचाना है, वहीं कालिका के सौम्य रूप से सृजन कराना है। शिव को नीचे देख काली की उग्रता समाप्त हो गई। जो शिव के भक्त हैं उन्हें शक्ति को भी प्रसन्न करना पड़ेगा और जो शक्ति के उपासक हैं, उन्हें भी शिव को पूजना पड़ेगा- यही तो आखिरी सत्य है। उपासना दक्षिण तथा वाम दोनों पद्धतियों से की जाती है। तंत्र शास्त्र कहता है कि वाम मार्ग योगियों के लिए भी कठिन है। यदि गुरु योग्य, तपस्वी व सच्चा नहीं हो, तो वाचाल, मांसाहारी, शराबी बन साधक भटक जाएगा। अतः दक्षिण मार्ग को अपनाना उचित है।
दस महाविद्या और शिव
आदिशक्ति मूल महाशक्ति कुमारी रूप में हैं। वहीं पार्वती, नवदुर्गा, दशमहाविद्या हैं, सीता, राधा, लक्ष्मी, सरस्वती भी वही हैं। शिव शक्ति जब कृपा करते हैं, जीव सभी पाशों से मुक्त होकर सभी धर्मों, सभी रहस्यों को देख व समझ लेता है। कहीं विरोध नहीं, किसी का अपमान नहीं, कोई धर्म छोटा नहीं, सभी देव- देवी पूजनीय हैं। शिव इस सृष्टि का परम सत्य हैं, और शिव सुंदर हैं और उनकी आराध्य त्रिपुर सुंदरी ही माता भुवनेश्वरी हैं। शिव मृत्युंजय हैं, तो शक्ति काली, बगला, तारा, भुवनेश्वरी हैं। सभी शिव या शक्ति रूपों की पूजन पद्धतियां, यंत्र मंत्र अलग-अलग हैं। वे साधक के कर्मानुसार फल देते हैं। शिव शक्ति कलातीत, शब्द ज्ञान से परे हैं।
शिव और बीजाक्षर
परमात्मा का पवित्र प्रणव बीज ऐं है। वहीं शक्ति का प्रणव ह्रीं है। शिव शक्ति के रहस्य की एक छोटी अनुभूति शिव का बीजाक्षर ह्रां, ह्रीं हैं। वहीं शक्ति के बीजाक्षर ह्रीं, क्रीं, श्रीं, ऐं, क्लीं आदि हैं। परंतु शिव ह्रां में राम ह्रीं में हरी (विष्णु) क्लीं में काली कृष्ण, श्रीं में लक्ष्मी, ऐं में गुरु और सरस्वती यही तो परम रहस्य है शिव शक्ति का। शिव का अपमान शक्ति सह नहीं पाईं, तो दक्ष यज्ञ मृत्यु यज्ञ बन गया। वहीं शक्ति का वियोग शिव सह नहीं पाए और शव लेकर विलाप करते हुए भटकने लगे। सृष्टि का नाश होने के भय से विष्णु को आना पड़ा। शिव शक्ति का प्रेम ही ऐसा है कि ये एक दूसरे के बिना रह नहीं सकते। शक्ति मूल महाशक्ति हैं। शक्ति एक उपासक हैं, राम के उपासक हैं या श्याम के, गणेश के या हनुमान अर्थात शिव के किसी भी रूप के उपासक हैं। सभी के केंद्र में साथ शक्ति थी और वहां भी शिव हनुमान के रूप विद्यमान थे। यही तो लीला है।
मिलन रहस्य
शिव त्रिकोण ऊर्ध्वमुख है, वहीं शक्ति त्रिकोण अधोमुख है। शिव शक्ति की लीला तो परम आनंद प्रदान करती है। काली के नीचे शिव, तारा के माथे पर शिव, बगला के आगे शिव। वियोग में शक्ति आंसू बहाती हैं, वहीं सीता शोक में विलाप कर रही हैं, वहीं पार्वती घोर तप कर रही हैं, राम रो रहे हैं, श्याम भी रो रहे हैं और सती के लिए शिव भी रो रहे हैं। भक्त भी रोते हैं, साधु भी रोते हैं, पापी भी रोते हैं अपनी बर्बादी पर। माता-पिता भी रोते हैं संतान के लिए, संतान भी रोती है, सभी रोते हैं। परंतु जो शिव शक्ति के लिए रोता है, वही इस जीवन में कुछ पा सकता है। शिव सहस्रार में मूल शक्ति के लिए रोता है तभी तो शक्ति दौड़कर भागी-भागी जीव के लिए शिव के पास पहुंच जाती हैं। नकली आंसू से कुछ नहीं होगा, शिव ही भाव देंगे, आंसू देंगे, शरण देंगे। तभी कुछ हो पाएगा। शिव शीघ्र सभी कुछ प्रदान करते हैं।
शिव लेते हैं हमारा विष
शिव पिता हैं, गुरु हैं, परमात्मा हैं। शिव सिर्फ अमतृ देते हैं, लेते हैं हमारा विष, हमारे पाप, हमारे ताप। तभी तो हम शुद्ध, बुद्ध होकर परम पद को प्राप्त करते हैं, और शक्ति तो सब के पीछे, सबके कल्याण हेतु तत्पर रहती हैं। वह सबकी स्वामिनी हैं और जो शक्ति हैं वही शिव हैं और जो शिव हैं वही शक्ति हैं। दोनों में कोई भेद नहीं है। इन दोनों के परम लाड़ले हैं गणेश और कार्तिकेय।
अपनी इच्छा से संसार की सृष्टि के लिए उद्यत हुए महेश्वर का जो प्रथम परिस्पंद है, उसे शिवतत्व कहते हैं। यही इच्छाशक्ति तत्व है, क्योंकि संपूर्ण कृत्यों में इसी का अनुवर्तन होता है। ज्ञान और क्रिया, इन दो शक्तियों में जब ज्ञान का आधिक्य हो, तब उसे सदाशिवतत्व समझना चाहिए, जब क्रियाशक्ति का उद्रेक हो तब उसे महेश्वर तत्व जानना चाहिए तथा जब ज्ञान और क्रिया दोनों शक्तियां समान हों तब वहां शुद्ध विद्यात्मक तत्व समझना चाहए।
जब शिव अपने रूप को माया से निग्रहीत करके संपूर्ण पदार्थों को ग्रहण करने लगता है, तब उसका नाम पुरुष होता है।
शक्ति को जाग्रत करें, शिव भाव में मिलन करा दें। यही शिव और शक्ति साधना का स्वरूप हैं।