Flow of Life Energy
साधक
जीवन्त ऊर्जा का प्रवाह
क्यों कभी-कभी व्यक्ति एकदम निराश हो जाता है?
क्यों कभी-कभी आशंका मन में भर जाती है?
क्यों कभी-कभी हम मानसिक सन्तुलन कायम नहीं रख पाते?
विचारें करें
आपकी शक्ति, आपके विचार भाव हैं, उनकी रक्षा करें।
यह बात साधक को हमेशा स्मरण रखनी चाहिए कि सत्व गुण/सकारात्मकता होती सशक्त अवश्य है किन्तु संवेदनशील भी बहुत होती है। सत्व गुण की सुरक्षा सजगता, विश्वास, अनुशासन, कर्म एवं मन की शुद्धता को बनाये रखकर ही की जा सकती है।
मनुष्य के साथ सबसे बड़ी समस्या ही यह है की वह ऊर्जा के नियमों से अवगत नहीं है। आध्यात्मिक शक्ति अर्थात ऊर्जा का, मंत्र इत्यादि क्रियाओं से आह्वान तो हो सकता है किन्तु दिव्य ऊर्जा को संचित कर उसका उचित समय पर उचित प्रयोग मनुष्य को करना नहीं आता है।
इसके अलावा मनुष्य को इस बात का भी ज्ञान नहीं होता है कि वह किस प्रकार छोटे-छोटे नकारात्मक कर्मों द्वारा कठिनता से प्राप्त अपनी दिव्य ऊर्जा का नुकसान कर देता है।
ऊर्जा के क्षय का सबसे प्रमुख कारण मन के सभी छोटे और बड़े नकारात्मक विचार ही होते हैं। मन की किसी भी वस्तु, व्यक्ति अथवा परिस्थिति को लेकर सबसे पहली जो प्रतिक्रिया होती है वह है – विचार! विचारों की प्रवृत्ति या तो भूतकाल की ओर रहती है या भविष्य की ओर रहती है। अधिकांशतः विचार, भूतकाल में हो चुकी घटना में संलग्न व्यक्ति अथवा वस्तुओं से हमारा भावनात्मक लगाव होने के कारण चलते रहते हैं। ऐसे विचारों में अधिकांशतः विचार तुलनात्मक, निषेधात्मक और अपेक्षात्मक होते हैं जो कि मानव मन को असहज बना देते हैं। भविष्य की आवश्यकता से अधिक चिन्ता भी मन को असंतुलित कर देती है।
ऊर्जा का निरंतर प्रवाह
भूतकाल और भविष्य काल में रहने से हो रहे शारीरिक और मानसिक असंतुलन का कारण यह है कि वह शक्ति जो भविष्य का उचित निर्माण कर सकती है और भूतकाल की असहज परिस्थितियों को पुनः उत्पन्न नहीं होने देती, वर्तमान काल में विद्यमान होती है लेकिन इस बात को मनुष्य समझता नहीं है। मनुष्य कभी भी वर्तमान में सहज होकर नहीं रहता। वर्तमान का सही उपयोग ना कर पाने के कारण भविष्य की नयी, शुभ सम्भावनाएं मूर्तरूप नहीं ले पाती हैं। भूतकाल का तो कोई अस्तित्व नहीं होता है, किन्तु नकारात्मक विचारों द्वारा बार-बार पोषित होने के कारण वे भविष्य में उसी प्रकार के व्यक्तियों से सम्बन्ध अथवा परिस्थितियों के निर्माण की सम्भावनाओं को बलवान बनाते हैं।
विचार आध्यात्मिक ऊर्जा को गति प्रदान करते हैं। सकारात्मक ऊर्जा समय रहते सही दिशा देने पर उत्तम आंतरिक और बाह्य परिस्थितियों का निर्माण कर सकती है। किन्तु यदि अवांछनीय विचारों पर नियन्त्रण नहीं रखा जाये तो ऊर्जा का अनुकूल परिस्थितियों के निर्माण के लिये उपयुक्त मात्रा में संचयन नहीं हो पाता है और सब कुछ यथावत नकारात्मक रूप में चलता रहता है।
जैसे कि हम सभी जानते हैं कि ऊर्जा का हस्तान्तरण पांच विधियों के द्वारा होता है – शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध ऊर्जा को एक स्थान से दूसरे स्थान अथवा व्यक्ति तक पहुंचाने के वाहक होते हैं। कटु, तीखे, क्रोधी, निन्दक और व्यंगात्मक शब्दों का यदि प्रयोग किया जाये तो ऊर्जा की हानि होती है। यही कारण है कि साधन काल में तथा अन्य समय में भी किसी भी प्रकार से प्रेरित होकर अपशब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिये। किसी को अशीर्वाद दिया जाये अथवा श्राप; दोनों ही स्थितियों में स्वयं की तपस्या से अर्जित की गयी ऊर्जा शब्दों के माध्यम से दूसरे व्यक्ति को हस्तान्तरित हो जाती है और उस समय की गयी इच्छा के अनुरूप दूसरे व्यक्ति को फल देती हैं।
तामसिक भोजन, मांस, मदिरा, धूम्रपान इत्यादि का उपयोग भी आध्यात्मिक शक्ति के ह्रास का प्रमुख कारण है। ऐसा भोजन जब तक सम्पूर्णतः शरीर को अपने प्रभाव से मुक्त नहीं कर देता ऊर्जा स्तर को प्रभावित करता रहता है। तामसिक भोजन के उपरान्त ऊर्जा को व्यवस्थित होने में 2-4 दिन सााधरणतयः लग जाते हैं।
इसी प्रकार जब नकारात्मक विचारधारा के साथ जब भोजन बनाया जाता है तो स्पर्श के साथ विचारों की ऊर्जा पदार्थों में प्रवेश कर उनकी सात्विक शक्ति को कम कर देती है। नकारात्मक व्यक्तियों के साथ हाथ मिलाने, उनके द्वारा दिए हुए वस्त्र पहनने अथवा उनके वस्त्र को स्पर्श करने से भी उनकी ऊर्जा दूसरे व्यक्ति के अन्दर प्रवेश कर अस्थिरता, बेचैनी और क्रोध जैसे अन्य विकार उत्पन्न करती है। सड़न इत्यादि से पैदा हुई और अन्य अप्रिय लगने वाली गंध वायु के माध्यम से नासिका से होती हुई सीधे सूक्ष्म शरीर को प्रभावित करती है और यह ऊर्जा, भौतिक एवं सूक्ष्म शरीर के मध्य ऊर्जा में असंतुलन पैदा करती है।
मानसिक शुद्धता – सकारात्मक ऊर्जा
इन्हीं सब कारणों से आध्यात्म में मन की शुद्धता, भोजन, वाणी और स्पर्श इत्यादि की सावधानी पर बहुत अधिक बल दिया गया है। यदि इन माध्यमों का सही उपयोग किया जाता है तो सकारात्मक ऊर्जा की गति अन्दर की ओर हो जाती है जिससे उसका संचय होकर मात्रा में वृद्धि होती है। इन माध्यमों का दुरुपयोग करने पर इस ऊर्जा की गति बाह्य और अधोगामी हो जाती है जिससे संचित ऊर्जा का भी क्षय हो जाता है। यह बाह्य और अधोगामी गति तब तक रहती है जब तक सही प्रयासों और संकल्प के द्वारा ऊर्जा का मार्ग परिवर्तित ना किया जाये।
नकारात्मक व्यक्तिओं, वस्तुओं अथवा परिस्थितियों से साधक को, स्वयं को तब तक अलग रखना चाहिये जब तक ऊर्जा को स्थायित्व प्रदान नहीं हो जाता अर्थात अनचाहे हस्तानन्तरण पर नियन्त्रण नहीं आ जाता।
नकारात्मक स्थिति से कैसे निपटें
सकारात्मक व्यक्तियों पर नकारात्मक ऊर्जा अर्थात तमो गुण का प्रभाव कभी-कभी अधिक हो जाता है। तमो गुण के प्रभाव के कारण वे अपनी आध्यात्मिक यात्रा में स्वयं ही बाधा उत्पन्न कर लेते हैं और वर्तमान ऊर्जा के स्तर से नीचे गिर जाते हैं। एक साधक को यह ज्ञान होना अत्यंत आवश्यक है कि किन परिस्थितियों में तमो गुण (नकारात्मक सोच और व्यवहार) हमारे ऊपर हावी होकर सत्व गुण अर्थात ज्ञान, विश्वास और सकारात्मक कर्म को निर्बल बना देते हैं।
हम सभी में काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार की विभिन्न मात्राएं विभिन्न रूपों में विद्यमान रहती हैं। इसका विभाजन ऋषि मुनियों ने तीन भागों में किया है – सत्व, रज और तम। सत्व गुण प्रधान व्यक्ति में काम क्रोध इत्यादि की मात्रा रज और तम गुण प्रधान व्यक्तियों की तुलना में कम अवश्य होती है किन्तु वे इससे मुक्त नहीं होते, मात्रा कम होने के कारण इन विकारों का प्रदर्शन कभी-कभी होता है उसका स्वरूप भी भिन्न होता है। तमो गुण वाले व्यक्ति में ये विकार अधिक आक्रामक स्वरूप में होते हैं और वे उपद्रव करके दूसरों को बुरी तरह परेशान कर देते हैं। इसके विपरीत सत्व गुण वाले व्यक्तियों पर जब तमो गुण हावी होता है तो वे स्वयं को ही अधिक कष्ट देते हैं। उनके विचार इस प्रकार आते हैं – मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ, मैं सबके साथ अच्छा हूं पर मेरे साथ अच्छा नहीं होता, मेरी भूल नहीं पर मैं ही कष्ट में हूं, लोग गलत करके खुश हैं, मेरा परिवार मेरी इच्छाओं एवं भावनाओं का सम्मान नहीं करता, मेरी बातों पर ध्यान नहीं दे रहा, जो वचन दिया उसको पूरा नहीं किया जा रहा, मैं इतने समझौतों के साथ जीवन जी रहा हूं पर इस बात को कोई महत्व नहीं दे रहा इत्यादि-इत्यादि।
इस प्रकार के विचार जब आते हैं तो सात्विक व्यक्ति विकारों को अपने अंदर प्रवेश करने का अवसर दे देते हैं। इन विकारों की विशेषता यह होती है कि ये विकार प्रवेश करने के साथ ही बहुत तीव्रता के साथ अपना विस्तार कर सत्व गुण की शक्ति को कम कर देते हैं। इस कारण व्यक्ति अपनी शांति और संयम की स्थिति से गिरकर अस्थिर और असंयमित हो जाता है। ऐसे विचार जिनका कोई अर्थ नहीं, मन को आंदोलित करने लगते हैं। अशांत मन के कारण कर्म की गति और दिशा दोनों बदल जाती है जिसके कारण समय और आध्यात्मिक ऊर्जा का बहुत अधिक मात्रा में नुकसान हो जाता है।
बाधाओं से बचाव सरल है
ऐसी स्थितियों का सामना साधक को जीवन में बार-बार करना पड़ता है। इसलिए प्रश्न यह है कि इस प्रकार की बाधाओं से कैसे बचा जाये? इसका समाधान अत्यन्त सहज है। काम, क्रोध, मोह इत्यादि तभी सक्रिय होकर प्रवेश कर सकते हैं जब इनके बारे में ध्यान दिया जाए और अपनी धारणा के अनुरूप विश्लेषण कर उस पर सही या गलत का निर्णय दिया जाये। उदाहरण के लिए – सास यदि बहू की बुराई करे, बहु उसको सुनकर अंदर ही अंदर बार-बार उन बातों को सोचने लगे और नकारात्मक बातों से प्रभावित होकर दुःखी होना प्रारम्भ कर दे तो कुछ पल की बातें मन के अन्दर अत्यन्त कटुता पैदा कर व्यवहार को परिवर्तित कर देती हैं। यह कटुता, पुरानी और व्यर्थ की बातों को सतह पर ले आती है। जिसके कारण और कटुता बढ़ जाती है और मन सत्व गुण से हट जाता है। सत्व गुण के कमजोर हो जाने के कारण मन अस्थिर हो कर अन्य उलटे सीधे विचारों को जन्म देकर शरीर और मन दोनों को अत्यंत थका देता है। बहु या अन्य किसी भी व्यक्ति के ऐसी परिस्थितियों से प्रभावित हो जाने का कारण अहंकार और प्रतिष्ठा / प्रशंसा का मोह होता है।
निंदा मन में बसने न दें
जब कोई हमारी निंदा करता है या हमसे असहमत होता है तो अहंकार के कारण हम स्वयं को निंदक बातों अर्थात शब्द रूपी नकारात्मक ऊर्जा से जोड़ लेते हैं। यह बात मन में अवश्य आती है कि हमारे बारे में ऐसी बात क्यों की? फिर इस पर विश्लेषण कर नकारात्मक ऊर्जा को फलने फूलने का मौका देते हैं और फिर एक धारणा बनाकर उसको सशक्त कर देते हैं। इसके विपरीत यदि निंदा को बिना ध्यान दिए और विश्लेषण किये हुए वहीं छोड़ देते हैं और नियति को स्वीकार कर अपने कर्त्तव्य का निर्वहन करते रहते हैं तो नकारात्मक ऊर्जा हमारे अंदर प्रवेश ही नहीं कर पाती है जिसके कारण नकारात्मक ऊर्जा की वृद्धि नहीं हो पाती है और वह ऊर्जा अपने आप ही समाप्त हो जाती है। इसके कारण समय एवं सत्व गुण की हानि ना होने के कारण शरीर और मन दोनों स्वस्थ रहते हैं।
यह बात साधक को हमेशा स्मरण रखनी चाहिए कि सत्व गुण/सकारात्मकता होती सशक्त अवश्य है किन्तु संवेदनशील भी बहुत होती है। सत्व गुण की सुरक्षा-सजगता, विश्वास, अनुशासन, कर्म एवं मन की शुद्धता को बनाये रखकर ही की जा सकती है। परिस्थितियां कितनी भी प्रतिकूल लगें किन्तु थोड़ी सी भी सजगता अन्य सद्गुणों की सहायता से किसी भी विषम परिस्थिति को अनुकूल बनाने की सामर्थ्य रखती है। इसलिए जब समय सही हो तो व्यर्थ के प्रपंचों में ना फंसकर, सजगता और अन्य सद्गुणों के निरन्तर विकास पर कर्मठ होकर कार्य करना चाहिए, जिससे विपरीत परिस्थितियां हमारी आध्यात्मिक यात्रा में विघ्न उत्पन्न ना कर सकें।