Dialogue with loved ones – September 2023
अपनों से अपनी बात…
मेरे प्रिय साधकों,
शुभाशीर्वाद,
तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः॥
समाधिभावनार्थः क्लेशतनूकरणार्थश्च॥
अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः॥
अविद्याक्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणाम्।।
तप, स्वाध्याय और ईश्वरीय प्राणिधान क्रियायोग है। क्रियायोग का अभ्यास समाधि की चेतना के विकास और समाधि के मार्ग में आने वाली बाधाओं के समापन के लिये किया जाता है। अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश क्लेश है। प्रसुप्त, विरल, बिखरी हुई और व्यापक अवस्थाएं अविद्या (क्लेशों) की क्षेणी में आती है।
या देवी सर्वभूतेषु भ्रांतिरूपेण संस्थिता।
यह शक्ति सभी प्राणियों में भ्रांति रूप में विद्यमान है। जिसके कारण मनुष्य माया के वश अपना जीवन जीता है और वह अपने जीवन में रोग, शोक, संताप, दुःख, क्लेश, पीड़ा के साथ-साथ स्वास्थ्य लाभ, आरोग्य, सुख प्राप्ति, मित्रता, प्रसन्नता का भी अनुभव करता है। मनुष्य जीवन एकाकी जीवन नहीं है। इसमें दोनों ही प्रकार के तत्व भरे हुए है। अब जब अवगुणों का विद्रोह मन में व्याप्त होता है तो दुःख पीड़ा का अनुभव प्राप्त होता है, जब सद्गुणों का अमृत मन में व्याप्त होता है तो सुख-शांति प्रसन्नता प्राप्त होते है।
आज के व्यवहारिक जीवन में देखा जाये तो एक वाक्य आम रूप से आप दिन में दस बार सुनते है या बोलते है, ‘आज मेरा मूड ठीक नहीं है’ या ‘आज मेरा मूड बहुत अच्छा है’ और यह घटना दिन में 5 बार होती है, 10 बार होती है। ऐसा क्यों है भाई? कोई अच्छी खबर आ गई तो आपका मूड फ्रेश, यहां तक की मन पसन्द का भोजन मिल गया तो आपका मूड फ्रेश और एक घण्टे से विलम्ब से भोजन मिला तो आपका मूड खराब। कहीं से कोई समाचार आया तो आपका मूड खराब।
आखिर आपका यह ‘मूड’ क्या बला है? यह मूड शरीर में तो है नहीं, शरीर तो आपका वैसा का वैसा ही है। तो यह मूड है आपके मन में और मन है आपका बेपेन्दे का लोटा, बहुत ही ढुलमूल, बहुत ही नाजुक, छुई-मुई के पौधे के समान, पल में खुश हो जाता है, पल में नाखुश हो जाता है।
अब आप बताओं, आप मोटीवेशनल गुरुओं की बातें सुनते है, एक जोश आता है और फिर बार-बार आपको यह कहा जाता है तुम अपना लक्ष्य बनाओं। उस लक्ष्य को पूरा करने के लिये संलग्न हो जाओं। हजार बाधाएं आयेगी तो भी तुम अपने लक्ष्य को सदैव ध्यान रखना। जो तुम प्राप्त करना चाहते हो वह प्राप्त करके ही रहोगे। तुम्हें संसार की कोई शक्ति रोक नहीं सकती है। ऐसी बातें सुनकर कुछ क्षणों के लिये आपको जोश आता है और आप अपने मन में संकल्प लेने लगते हो और फिर दूसरे दिन जोश ठण्डा पड़ जाता है। एक छोटी सी बाधा आते ही विचलित हो जाते हो।
आप ढूंढ़ रहे हो जोश और शक्ति को बाहर, पर शक्ति है आपके भीतर मन में है। सोचों यदि मन ही हर समय चिन्तित है, ढुलमुल है और मन ही बार-बार आपका मूड निर्धारित कर रहा है तो फिर क्या कोई लक्ष्य संधान हो सकता है? कोई सिद्धि प्राप्त हो सकती है? कोई फल प्राप्ति हो सकती है? बिल्कुल नहीं।
तो अब मूल बात पर आते है। मूल रोग है आपका मूड। अब इस मूड पर कंट्रोल करना है। सीधी-सादी बात है अपने मन को नियन्त्रित रखना है जिससे कि मन पल-पल बिखरे नहीं। मन पल-पल दस दिशाओं में भटक रहा है, बिखर रहा है।
अब आप ही बताओं इसका समाधान बाहर से आयेगा या आपके भीतर से आयेगा। कोई ऐसी अमृत घूंटी तो तैयार हुई नहीं है कि आपने पीया और आपका मन एकदम से स्थिर और शांत हो गया। आप हर स्थिति में प्रसन्न है। यह तो आप स्वयं जानते है कि प्रसन्न मन से किया गया कार्य ही फल प्रदान करता है वही आपकी क्रिया शक्ति को तीव्र करता है। अब आपने मन को बना लिया है, मूडी और मनमौजी। अब चाहते है कि सब क्रिया ठीक ढंग से सम्पन्न हो और आपकी सारी बाधाओं का एकदम से शमन हो जाये, हरण हो जाये, ऐसा तो होगा नहीं ना।
क्रियायोग का सीधा अर्थ है – अपने मन को ध्यान की स्थिति में ले जाना, अपने मन को स्थिर करना। अब एक दिन में तो यह स्थिर होगा नहीं।
संतोषादनुत्तमसुखलाभः॥
तो सबसे पहले अपने मन में संतोष तत्व को स्थापित करना पड़ेगा और उसके पश्चात् ही मन धारणा के योग्य होता है। धारणा का अर्थ है मन में धारण करना और मन में आपने कर रखी है बहुत भीड़, अपनी मन की धारणा शक्ति को प्रबल करने के लिये किसी ईश्वरीय सत्ता का ही निवास कराना पड़ेगा। उसके निवास के बिना तो आप हर समय विचलित होते रहेंगे। आप अपने मन को एक समुद्र के समान समझों कि जहां ऊपर तो लहरें उठ रही है परन्तु गहराईयों में एकदम शांति है। भीतर बिल्कुल शांति है क्योंकि भीतर ईश्वरीय सत्ता, गुरु सत्ता का निवास है। जिस दिन यह बात आपके मानस में पूर्ण रूप से स्थापित हो जायेगी तब मन और बुद्धि का यह हर समय चलने वाला संग्र्राम भी समाप्त हो जायेगा। तब ही आप अपने जगत के सारे कार्य निश्चिन्त भाव से कर सकते है और जब कर्म करने के प्रति आपकी प्रतिबद्धता का विकास हो जाता है तो कर्म फल के प्रति किसी भी प्रकार का संशय नहीं रहता।
विशेष बात – त्रयमेक संयमः अर्थात् तीनों (धारणा, ध्यान और समाधि) एक साथ संयम कहलाते है।
धारणा, ध्यान और समाधि का मिलन अर्थात् तीनों का एक साथ होना ही संयम है। धारणा, ध्यान, समाधि किसी दूसरे ग्रह की वस्तु नहीं है। यह आपके मन के भीतर है और तीनों का मिलन है संयम। जहां संयम है वहां ध्यान, धारणा और समाधि है।
जो साधक इस संयम को प्राप्त कर लेता है, सिद्ध कर लेता है –
तज्जयात्प्रज्ञालोकः अर्थात् वह अपने भीतर प्रज्ञा, ज्ञान और चेतना का आलोक प्रकट कर लेता है।
संयम के साथ जीवन जीयें, व्यर्थ की चिन्ता न करें। अपने मूड़ को छोटी-छोटी बातों में बिगड़ने न दे, बिखरने न दे। शक्ति साधना का पर्व नवरात्रि आ रहा है। बीजाक्षरी मंत्र ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे का जप करें। दुर्गा है दुर्गतिनाशिनी, दुर्गा आपके भीतर की शक्ति है, वह शक्ति आपको सदैव और सदैव सत् मार्ग पर ही रखेंगी और तब ही जीवन के चतुर्वर्ग – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष आपके जीवन में सदैव-सदैव के लिये स्थापित हो सकते है।
-नन्द किशोर श्रीमाली
Coming soon…
Nand Kishore Shrimali