Dialogue with loved ones – September 2021

अपनों से अपनी बात…

मेरे प्रिय आत्मन् शिष्य,

शुभाशीर्वाद,

श्रावण मास में शिव अभिषेक कर रहा था, जलधारा प्रवाहित हो रही थी और ॐ त्र्यम्बकं यजामहे… मंत्र का उच्चारण चल रहा था।

अभिषेक के बाद शिवलिंग की ओर देखते-देखते एक विचार आया कि यह जीवन सुगन्धित और पुष्टिवर्द्धक हो ऐसी प्रार्थना तो हम करते हैं लेकिन क्या वास्तव में हमारा जीवन सुगन्धित और पुष्टिवर्द्धक है?

हम अपने जीवन में दीर्घायु और पुष्टता की कामना करते हैं, प्रार्थना तो करते हैं लेकिन क्या वास्तव में हम शिव की तरह निर्विकार, निश्‍चिन्त लीन भाव से जी रहे हैं?

सदियों से यह प्रश्‍न है कि मनुष्य में ‘जरा’ वृद्धावस्था क्यों आती है, क्यों नित्य नये बंधन आते हैं, क्यों व्याधि आती है? इन प्रश्‍नों पर मैंने मंथन किया।

मनुष्य और पशु, पक्षी के जीवन में अन्तर क्या है? शायद इस अन्तर को हम जान जायें तो हम अपनी दीर्घायु का सूत्र भी जान सकते हैं। सब में मस्तिष्क होता है, सबमें विचार होते हैं, सब अपने जीवन में खाने-पीने, रहने की व्यवस्था करते हैं, चाहे मनुष्य हो अथवा पशु।

भगवान शिव की दृष्टि में तो कोई अन्तर नहीं है इसीलिये वे ‘पशुपतिनाथ’ कहलाते हैं। संसार के सारे पशुओं के अधिपति। जिसमें मनुष्य, नर-नारी, सब जीव-जन्तु है इसीलिये उनके परिवार में शक्ति पार्वती है तो नन्दी बैल भी है, सिंह भी है, मूषक भी है, मोर भी है, पुत्र-पौत्र भी है फिर भी निश्‍चिन्त है, निर्द्वंद है। बस, पशु-पक्षी में व्यर्थ का द्वंद्व नहीं है।

द्वंद्व रहित होना संसार का सबसे बड़ा कार्य है जो हजारों-हजारों में एकाध ही कर पाता है और जो कर पाता है वह ॠषि हो जाता है, संत हो जाता है। उसे स्वयं का ज्ञान हो जाता है। वह ज्ञान के साथ अपने जीवन को जीता है न कि द्वंद के साथ।

आज एक विचार करें कि मनुष्य वृद्ध क्यों होता है? जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है उसमें बाल सुलभ उत्साह, शक्ति कहां खो जाती है? एक दस साल का बालक चाहे शारीरिक बल में कम हो लेकिन वह हर समय उत्साह से भरा रहता है। सुबह छः बजे उठकर रात के दस बजे तक निरन्तर और निरन्तर क्रियाशील रहता है, गतिशील रहता है और सबसे बड़ी बात है चंचल रहता है।

जैसे-जैसे हम बड़े होते है हम अपनी ‘चंचलता’ को विराम दे देते है। बिना बात की गंभीरता का लबादा ओढ़ लेते है और बिना बात के अजीब-अजीब लक्ष्य निर्धारित कर लेते है। जिन लक्ष्यों का कोई मायने नहीं होता है। घर-परिवार, समाज की इच्छाओं की पूर्ति करते-करते हम अपने उत्साह को कहां खो बैठते है कुछ पता ही नहीं चलता।

वृद्ध होने के कारण को पूरी तरह से समझना होगा। देखों हर मनुष्य के जीवन में उत्तरदायित्व है, जिम्मेदारियां है और उन्हें संभालना भी है। यह कर्त्तव्य भी है और यह कर्म भी है लेकिन हम अपने कार्यों को, कर्त्तव्यों को हंसी-खुशी से, जोश के साथ नहीं करते है और इसके अलावा अधूरी कामनाओं की पीड़ा, स्वयं की व्यथा, दूसरों द्वारा दी गई व्यथा का भार हम अपनी आत्मा पर ले लेते हैं। उसे अपने पास रख देते हैं।

तो हम अपनी आत्मा को जीर्ण-शीर्ण करते रहते हैं, उसका प्रभाव कहां दिखेगा? हमारे शरीर पर ही, क्योंकि आत्मा तो अदृश्य है, वह तो न दिखते हुए भी हमारे शरीर के प्रत्येक अंग-प्रत्यंग में, प्रत्येक कोशिका में विद्यमान है। वही आत्मा तो हमारे हृदय को निरन्तर ओर निरन्तर धड़काती है।

ॠषि याज्ञवल्क्य स्पष्ट कह रहे है कि आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः… कि अमृत विद्या वही है कि आत्मा के आनन्द के लिये मनुष्य क्रियाशील हो। जिस कार्य से आत्मा को आनन्द मिलता है वही कार्य हमारे शरीर, मन को बलिष्ठ बनाता है, उसे चिर युवा रखता है।

तो इस शरीर को युवा रखना है तो उसके लिये आवश्यक है कि हम मन को युवा रखें और जब मन युवा होता है तब आत्मा बड़ी प्रसन्न होती है वह अपना अमृत हमारे शरीर की प्रत्येक कोशिश में भेजती है। मन प्रसन्न तो आत्मा प्रसन्न, अमृत का प्रवाह होगा।

यह शरीर वाहन है और चालक तो हमारी आत्मा है।

आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु।
बुद्धिं तु सारथिं मनः प्रग्रहमेव च॥

तो रथ को संभालना है, शरीर रथ को संभालना है, मन को संभालना है आत्मा को प्रसन्न रखना है क्योंकि आपका वास्तविक स्वरूप आपका शरीर नहीं है, आपका वास्तविक स्वरूप आपके विचार है, आपके भाव है, आपका चरित्र है, आपके गुण है, आपकी क्षमता है और यह सब आत्मा से प्रगट होता है। ध्यान दें, विचार शरीर से प्रकट नहीं होगा। शुद्धता, शुचिता, स्वास्थ्य, आरोग्य, शांति, संतोष, धैर्य, सहिष्णुता, समभाव सब आपकी आत्मा से ही प्रकट होते है। अब इन्हें आप अपनी जीवन यात्रा में शरीर के माध्यम से, बुद्धि के माध्यम से क्या रूप दे देते हो यह आपकी बुद्धि पर निर्भर करता है।

एक बात याद रखना, आत्मा विशुद्ध है। उसमें घृणा, द्वेष, वैमनस्य का कोई स्थान नहीं है। आत्मा बिल्कुल शिव की भांति है। विशुद्ध है, निराकार है, परमतत्व है, शांत है, श्रेष्ठ है इसीलिये मनुष्य को अमृत पुत्र कहा गया है।

तो शुरुआत कहां से करें? अपनी आत्मा से, अपने मन से, अपने विचारों से, अपनी भावनाओं से। अपनी भावनाओं ओर मन को आत्मा के साथ पूरी तरह से जोड़ दे।

मन बड़ा चंचल है, भावनाएं बड़ी चंचल है और ये दोनों ही तृष्णा, कामना के मार्ग पर इतना आगे ले जा सकती है कि आप भूल जायेंगे कि अरे! मैं इस जीवन में किसलिये आया था? ईश्‍वर ने मुझे किसलिये भेजा है?

अपनी भावनाओं को, अपने मन को मित्र बनाते हुए याद रखें कि मैं ‘शिवोऽहम्’ हूं और मुझे अपने जीवन में आत्मिक आनन्द प्राप्त करना है। मैं स्वयं के लिये और मैं अपने कार्यों के द्वारा इस संसार में कितने निर्बल व्यक्तियों के चेहरे पर मुस्कान दे सकता हूं, कितनों के मन में आनन्द का भाव दे सकता हूं। यह मेरा लक्ष्य है।

जो आनन्द देता है उसे ही आनन्द प्राप्त होता है। जो प्रेम से जीता है, प्रेम देता है उसे ही प्रेम प्राप्त होता है। प्रेम से जीयें, आनन्द से जीयें, मुस्कुराते हुए जीयें। आत्मा प्रसन्न हो, जीवन में सुगन्ध रहे, पुष्टता रहे…।

-नन्द किशोर श्रीमाली

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