Dialogue with loved ones – October 2023

अपनों से अपनी बात…

मेरे प्रिय साधकों,

शुभाशीर्वाद,

    नवरात्रि का महापर्व आ रहा है, आप सभी शक्ति साधना के लिये तत्पर है और आप सभी की यही मनोकामना है कि मैं शक्ति से परिपूर्ण रहूं और मूल प्रार्थना में यही भाव रहता है कि – सर्वबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्यखिलेश्वरि… सारी बाधाओं का शमन हो और रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जेहि… मुझे रूप आरोग्य प्राप्त हो, मुझे हर कार्य में सफलता प्राप्त हो, यश की प्राप्ति हो और द्वेष भाव की समाप्ति हो, मित्रों में अभिवृद्धि हो, सब मेरे सहयोगी हो। इतनी ही है आपकी कामना। आपकी सारी कामनाओं का पूरा चक्र इन चार बातों में परिपूर्ण हो जाता है।

    आप देवी की स्तुति करते है, शक्ति की स्तुति करते है, प्रार्थना करते है, मंत्र बोलते है और देवी प्रार्थना में एक विशेष मंत्र है – या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

    भावार्थ हे देवी! आप सभी प्राणियों में चेतना रूप में विद्यमान है। मेरी भी चेतना सब प्रकार से जाग्रत हो। शक्ति का यह स्वरूप ‘चेतना’ सबसे महत्वपूर्ण है। चेतना से ही आप सभी इस संसार सागर में चल रहे है। जहां चेतना समाप्त हुई वहां अचेतना अर्थात्‌‍ बेहोशी जैसे आप गहरी नींद में हो। मस्तिष्क उस समय भी चल रहा है लेकिन उस समय चेतना शांत है, विश्राम की स्थिति में है। जाग कर सारे कार्यों को सम्पादित, प्रकाशमयी किया जाता है इसीलिये सूर्योदय की इतनी महत्वत्ता है। अर्थात्‌‍ दिवस प्रारम्भ होते ही हम चेतना से युक्त होकर अपने कार्यों में संलग्न हो जाते है। इस अनुसार संसार की सबसे महत्वपूर्ण शक्ति चेतना ही है। वह चेतना ही आपसे सारे कार्य सम्पादित कराती है।

    अब विशेष बात क्या है? हर व्यक्ति ये सोचता है कि वह चेतना से युक्त है। यदि आप सम्पूर्ण रूप से चेतना से युक्त है तो फिर गुरु आपको गुरु मंत्र के साथ चेतना मंत्र और गायत्री मंत्र क्यों प्रदान करते है?

    इसके पीछे सरल बात यह है कि आपकी चेतना में निरन्तर और निरन्तर अभिवृद्धि हो। चेतना ही संसार में शक्ति का जीवन्त स्वरूप है। जिस प्रकार हम शक्ति को, दुर्गा को देख नहीं पाते है उसी प्रकार आप चेतना को देख नहीं सकतेहै, चेतना की निरन्तर और निरन्तर अनुभूति होती है।

    संसार के सारे मंत्र, वचन, वर्ण चेतना का ही प्रकट स्वरूप है। जो हम बोलते है, सुनते है, जो हम प्रार्थना करते है वह भी चेतना का ही स्वरूप है। इसी चेतना के कारण हम अपने जीवन में संकल्पबद्ध होते है। एकाग्र भाव में वृद्धि होती है और हम अपने कार्यों को पूर्णता की ओर ले जाते है।

    ये चेतना शाश्वत्‌‍ है और इस चेतना को हमने नित्य प्रति के जीवन में उपयोग नहीं लिया तो हमारी चेतना शक्ति मन्द पड़ जाती है, तब हम अपने बाह्‌‍य मन से कार्य करते है और चेतना तो अन्तर्मन की, अचेतन मन की शक्ति है।

    आज आप विचार करो कि आप अपने जीवन में जो भी कार्य करते है वह चेतना से करते है या उत्तेजना से करते है। चेतना का विलोम है उत्तेजना और उत्तेजना सबसे पहले आपके बाह्‌‍य मन, वाणी, पर अधिकार जमाती है। चेतना युक्त व्यक्ति संयमित होता है, उत्तेजना से युक्त व्यक्ति क्रोधित होता है।

    इस जीवन में आपकी हजारों मनोकामनाएं है और आप उनको पूर्ण करना चाहते हो, तो आप विचार करो कि आपके कार्य चेतना से पूर्ण होंगे या उत्तेजना से। उत्तेजना आती है उसके साथ उसका सहोदर क्रोध और ईर्ष्या साथ-साथ आ जाते है। जहां आप उत्तेजित हुए वहां आप अपने मन में क्रोध, ईर्ष्या और लोभ को भी निमन्त्रण दे देते है फिर वे आपकी उत्तेजना में और अभिवृद्धि होती है। फिर आपका वास्तविक स्वभाव जो चेतना से परिपूर्ण है वह कहीं खो जाता है।

    उत्तेजना और जोश में बहुत फर्क है। चेतनावान व्यक्ति में उत्साह स्वःस्फूर्त होता है। वह निरन्तर और निरन्तर प्रकट होता रहता है जबकि उत्तेजित व्यक्ति में जोश जितनी तेजी से आता है उतनी ही तेजी से ठण्डा भी पड़ जाता है। जितनी तेजी से जीत की भावना आती है, उतनी ही तेजी से हार का भय आ जाता है और हार का भय आपके व्यक्तित्व को जकड़ लेता है।

    जब आप चेतना से युक्त होते है तो आप अपना कार्य शांत भाव से निरन्तर करते है आपको कोई थकान नहीं आती क्योंकि आप भीतर की शक्ति से सरस होकर कार्य कर रहे है। पर उत्तेजना में आप येन-केन प्रकारेण अपना कार्य पूरा करना चाहेंगे। दूसरों के सामने अपने आपको बड़ा बताने का प्रयास करेंगे। आप शब्दों का अधिक से अधिक प्रयोग करेंगे। हर बात पर यह विचार करेंगे कि सामने वाले ने मेरे अभिमान को ठेस पहुंचाई है और आप उसका प्रतिकार करने लग जाते है। इन सबसे आपकी शक्ति संरचनात्मक तो नहीं होती, केवल विध्वंस होता है।

    चेतना का अर्थ है स्वाभिमान और क्या आपका स्वाभिमान इतना हल्का ही है कि कोई दो वचन कह दे या आपके अनुकूल कार्य नहीं हो तो आपका स्वाभिमान हिल जाता है। स्वाभिमान को जाग्रत रखना है और इसको जाग्रत करने के लिये उत्तेजना नहीं चाहिये। इसको जाग्रत रखने के लिये चेतना चाहिये।

    संसार की सारी व्याधियों की जड़ मनुष्य की उत्तेजना ही है। यह उत्तेजना आपको हर बार एक जीवन संग्राम में, एक रेस में डाल देती है उत्तेजना एक ऐसा रक्त बीज है जो बढ़ता ही जाता है, बढ़ता ही जाता है, उस उत्तेजना को केवल और केवल दैवीय शक्ति जो आपके भीतर निरन्तर विद्यमान है उसे चैतन्य कर, जाग्रत कर आप अपनी उत्तेजनाओं पर नियन्त्रण कर सकते है।

    यदि आपकी चेतना शक्ति कमजोर है तो आपका ईश्वरीय शक्ति से सम्बन्ध कमजोर हो गया है और सांसारिक शक्तियां आपको इधर-उधर धकेल रही है। आपको अपनी चेतना शक्ति को तीव्र बनाना है और इसके लिये साधना ही श्रेष्ठतम्‌‍ मार्ग है। उन क्षणों में आप अपने मन को एकाग्र कर सकते है, अपनी बिखरी शक्तियों को एकाग्र कर सकते है। आप अपने लक्ष्य, अपने कार्य, अपनी विद्या और अपने क्षोभ पर भी पुनःर्विचार कर सकते है कि मेरे पास यह है, यह शक्ति है और मैं अपनी शक्ति का किस प्रकार से श्रेष्ठतम्‌‍ उपयोग करूं, जिससे मेरा मन प्रसन्न रहे, मेरा शरीर स्वस्थ रहे और मैं स्वाभिमान से युक्त रहूं।

    सबसे पहले अपने आपको जानना है, ‘जो अपने आपको जानता है वह सारे संसार को जान लेता है’ और ‘जो बाह्‌‍य संसार को जानता है और अपने अन्तर्मन को नहीं जानता है’, वह सदैव उत्तेजनावश रहता हैं, क्षोभ से युक्त रहता है। क्षोभ का अर्थ है जो मुझे मिलना चाहिये था वह मुझे नहीं मिला और उसका प्रकटीकरण होता है क्रोध के रूप में।

    आपको क्रोधित नहीं, शांत व्यक्तित्व बनना है, शांत व्यक्तित्व में ही शौर्य प्रस्फुटित होगा और आप अपने हृदय कमल के आनन्द को अनुभव कर पायेंगे। प्रयास करें, कुछ क्षण अपने अन्तर्मन में अपनी चेतना के साथ एकाकार हो।

    गुरु मार्ग चेतना का मार्ग है। बहुत-बहुत आशीर्वाद…

-नन्द किशोर श्रीमाली 

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