Dialogue with loved ones – October 2020
अपनों से अपनी बात…
प्रिय आत्मन्,
शुभाशीर्वाद,
आज आपसे शक्ति भाव की व्याख्या कर रहा हूं, जीवन में हर किसी को शक्ति प्राप्ति की आकांक्षा रहती है और उस शक्ति के लिये निरन्तर और निरन्तर उत्साह तो चाहिये ही, उत्साह वह खाद है जो आशा को पल्लवित करता है।
विपरित परिस्थितियों में संघर्ष की शक्ति प्रदान करती है, आशा, आशा और आशा…।
बहुत पहले एक गाना आता था –
निर्बल से लड़ाई बलवान की -2
यह कहानी है दीये की और तूफ़ान की -2
इक रात अंधियारी, थीं दिशाएं कारी-कारी
मंद-मंद पवन था चल रहा
अंधियारे को मिटाने, जग में ज्योत जगाने
एक छोटा-सा दीया था कहीं जल रहा
अपनी धुन में मगन, उसके तन में अगन
उसकी लौ में लगन भगवान की
यह कहानी है दीये की और तूफ़ान की
जब भी कोई कठिन स्थिति आती तो फिर ये गाना मैं मन ही मन बोलता रहता।
आज मैं यह बात विशेष रूप से इसलिये कह रहा हूं कि सबको लग रहा है कि अब क्या होगा? कब सब ठीक होगा?
क्या होगा? सब अच्छा हो जायेगा। क्यों इतना चिन्तित हो रहे हो? हम अच्छे के लिये प्रयत्न कर रहे हैं, आशा के साथ।
इस मास शक्ति साधना का पर्व आश्विन नवरात्रि है। वैसे तो जीवन का प्रत्येक क्षण शक्ति से ही संचालित होता है और शक्ति हमारे भीतर ही सदैव विद्यमान है। लेकिन नवरात्रि का यह पर्व यह नौ दिन आत्म विश्लेषण के पर्व है। जब साधक अपने भीतर की शक्ति का आह्वान करता है और वह अपने जीवन के कुछ प्रश्नों के उत्तर जानना चाहता है। इन पर्वों में वह आशा से युक्त होकर अपने भीतर उत्साह का भाव संचारित करने का प्रयास करता है।
मैं तुमसे एक बात पूछता हूं कि तुम क्या हो? निर्बल हो? सबल हो? या बलवान हो?
स्पष्ट कहता हूं कि यदि तुम अपने आपको निर्बल समझते हो तो इसका अर्थ है तुम्हारे जीवन में कोई आधार शक्ति नहीं है न तुम्हें अपने आप पर विश्वास है, न ही किसी और पर विश्वास है। तुम्हारी आस्था, विश्वास सब खण्डित है। इसीलिये तुम्हें कुछ बातें बार-बार मन में कचोटती रहती है।
1. मुझे असफल नहीं होना है, 2. मैं तो अपने क्षेत्र में विशेषज्ञ नहीं हूं, 3. मुझे तो संयोगवश सफलता मिल गई है, 4. मुझे सफलता मिल गई तो क्या बड़ी बात हो गई, पता नहीं कैसे मेरा कार्य हो गया?
तुम अपना कार्य करते भी हो फिर भी मन में विपरित बात ही सोचते हो, अपने आपको कम ही गिनते रहते हो।
ऐसा सब सोचकर तुम अपने निर्बल भाव को बढ़ाते ही रहते हो और अपनी हीनता में वृद्धि ही करते रहते हो।
पहले तो अपने आपसे यह कहो कि तुम सबल हो। जिस दिन तुमने अपने आपको यह कहना प्रारम्भ कर दिया तो यह जान लो कि तुमने अपने आपको पहचान लिया है। अपनी आत्मा में स्थित ईश्वर ओर बाह्य जगत में स्थित तुम्हें अपने गुरु पर भरोसा है, विश्वास है।
शक्ति साधना का अर्थ ही है अपनी निर्बलता, अपनी कमजोरियों और अपने हीन भाव को त्याग कर उसे पूर्णरूप से तिलांजलि देकर अपने जीवन के कार्य सम्पन्न करने है चाहे कितनी ही बाधाएं आ जाये। हर बाधा एक सीढ़ी है और तुम जानते हो कि सीढ़ी पर ऊपर चढ़ने के लिये प्रबल शक्ति चाहिये, नीचे उतरने के लिये नहीं।
सबल से आगे बलवान की यात्रा प्रारम्भ होती है। यह यात्रा थोड़ी कठिन है क्योंकि बलवान व्यक्ति जीवन में वह सबकुछ प्राप्त करने की इच्छा रखता है जिसके लिये वह प्रयत्नशील है। सबल से बलवान बनने की यात्रा को सही दिशा साधना से ही प्राप्त होती है।
जीवन का कोई भी क्षेत्र हो, साधना के बिना सफलता मिलती नहीं है और साधना का अर्थ है अपने कार्यों में प्रवीणता लाकर अपने आपको, अपनी आत्मा को प्रसन्न रखना इसीलिये संसार में धनी ही नहीं अपितु उन सब लोगों को सबल, बलवान कहा गया है जो निरन्तर कर्मशील रहते हैं। इस संसार में ही क्रियाशील रहते हैं।
एक लेखक को, कवि को भी बलवान कहता हूं जो अपनी लेखनी के बलबूते पर साहित्य, रचना, लेख के माध्यम से, अपने भावों के माध्यम से सम्पूर्ण समाज को बल प्रदान करते है। तलवार अस्त्र-शस्त्र से भी ज्यादा बल कलम में होता है और रचनाएं हजारों-हजारों वर्ष तक जीवित जीवन्त रहती है, वेद, उपनिषद्, रामायण, श्रीमद्भागवत आज भी उन लेखकों के शाश्वत जीवन्त वचन है।
एक राजा को कोई याद नहीं रखता, पर एक विचारक, संत, लेखक, कवि, चित्रकार, रचनाकार को हजारों सालों तक याद किया जाता है। वे अपनी रचनाओं के माध्यम से सदा जीवन्त रहते है, हर निर्बल मन को सबल भाव प्रदान करते है।
समाज में सब जगह तुम्हें हर प्रकार के व्यक्ति मिल जायेंगे लेकिन तुम्हें विचार करना है कि तुम्हें क्या करना है? तुम्हें तो सबल बनना है और आगे बलवान बनना है। शक्ति पुत्र हो, शिव की संतान हो।
निर्बलता का भाव हटाना है और मन से सबल होना है। उसके बाद बलवान बनने की दिशा में मार्ग अपने आप मिल जाता है, बस उस समय थोड़ा सावधान रहने की आवश्यकता है।
बलवान व्यक्ति में उसका पराक्रम कब अहंकार में परिवर्तित हो जाये, प्राप्ति की भावना कब संग्रह में परिवर्तित हो जाये?
बल दूसरों को सहयोग देने की बजाय कब अधिकार भावना से ग्रसित हो जाये, यह पता ही नहीं चलता है, इसलिये ऐसे समय में बहुत ध्यान रखना है।
जब शक्ति अनियन्त्रित हो जाती है तो वह तीव्र गति से उर्ध्वमुखी होती है, बीच के चक्रों में वह रुके नहीं तो यह अनियन्त्रित शक्ति आज्ञा चक्र में, बुद्धि में, तूफान मचा देती है। इसलिये अपनी शक्ति को नियन्त्रित भाव से ऊपर उठाना है।
इसीलिये गुरु आज्ञा चक्र पर स्पर्श कर शिष्य की शक्ति के स्पन्दन को समायोजित करते है, नियन्त्रित करते है। बुद्धि, शक्ति, ज्ञान में सांमजस्य बैठाते है। साधक को, उसके मन में चल रहे तूफान को, एक विराम देते है, विश्राम देते है। जिससे उसकी यात्रा सहज हो सके।
गुरु रूप में दो कार्य का उत्तरदायित्व हर समय गुरु पर रहता है – 1. शिष्य के मन के निर्बलता के भाव को समाप्त करना, पूरी तरह से समाप्त करना 2. सबलता के भाव को जाग्रत करना अर्थात् एक बीज का रोपण करना।
तुम मेरे शिष्य हो…, वीर हो…, बहादुर हो शाबास…! तुम कर सकते हो। यह मेरा आशीर्वाद है।
मेरे ये सब वचन तुम्हारे मन की निर्बलता को हटाकर सबलता का बीजारोपण है।
तब सबल से बलवान की यात्रा-क्रिया प्रारम्भ होती है।
अपनी शक्ति को जानकर उसे आत्मसात् कर उस शक्ति को रचनात्मक कार्यों की ओर लगाना, यही तो बल है। बल वह है जिससे अपने जीवन में आत्मसुख, शांति प्राप्त कर सकें।
एक बात याद रखना निर्बल सदैव अशांत होता है, सबल शांत होता है। उसके कार्यों में तीव्रता का भाव अवश्य होता है लेकिन भीतर ही भीतर वह शांत भाव से क्रियाशील रहता है। वह जान जाता है कि मुझे अपने बल का, अपनी शक्ति का उपयोग किस दिशा में करना है।
एक शिष्य गुरु के सान्निध्य में आकर ही अशांत मन से शांत मन की ओर प्रवृत्त होता है।
तब साधक तनाव से संतोष की ओर यात्रा करता है। क्रोध को हटाकर रचना, निर्माण की ओर उन्मुख हो जाता है।
याद रखना, प्रत्येक क्षण शक्ति तत्व से परिपूर्ण है। इस नवरात्रि में पूरे मन के साथ आद्या शक्ति जगदम्बा शक्ति साधना करना, अपना विश्लेषण करना, अपने मन को निर्बलता से मुक्त कर देना।
साधक के लिये नवरात्रि केवल पर्व नहीं है, यह तो साधनात्मक काल है, जब वह अपनी शक्ति के तीव्र जागरण के लिए साधना करता है। साधक शक्ति को सिद्धि में परिवर्तित कर देता है और सिद्धि का सीधा-साधा अर्थ है अपने कार्यों की पूर्णता, जिससे यह जीवन रचनात्मक हो सके, निरन्तर भौतिक सफलता ही नहीं, आध्यात्मिक परमानन्द की प्राप्ति हो…।
तुम सबल हो और तुम्हें बलवान होना है।
तुम शिष्य हो, साधक हो, निरन्तर शक्ति के साथ अपने बल का सदुपयोग करो और अपने लक्ष्यों को प्राप्त करो।
सदैव सकारात्मक भाव से रहो…
-नन्द किशोर श्रीमाली