Dialogue with loved ones – November 2020
अपनों से अपनी बात…
प्रिय आत्मन्,
शुभाशीर्वाद,
दीपावली महापर्व आ रहा है। यह पर्व पूरे आनन्द के साथ, अपने परिवार के साथ सम्पन्न करना। अपने आपको व्यर्थ की चिन्ताओं से मुक्त कर आशा के साथ संयुक्त होकर महागणपति और महालक्ष्मी पूजन साधना करना। जहां सिद्धि विनायक है, जहां आद्या शक्ति लक्ष्मी है वह गृहस्थ जीवन सदैव सुखी, प्रसन्न और आनन्दित रहता है।
इस बार यह लक्ष्य अवश्य स्थापित करना कि हम जीवन में शरीर से भी स्वस्थ रहे और मन से भी स्वस्थ रहे।
भागदौड़ तो सभी करते है और शायद तुमने इसे जीवन का क्रम मान लिया है। क्या भागदौड़ से ही जीवन गतिशील होता है। इस प्रश्न पर विचार करना कि मेरी ये भागदौड़ किसलिये है? क्या यही मेरा जीवन है? क्या इसी से मुझे सफलता मिलेगी? और सफलता का तात्पर्य क्या है?
इस मन को स्वस्थ रखना है, इस तन को स्वस्थ रखना है और स्वस्थ भाव से जीना है। इतना क्यों भविष्य की चिन्ता करते हो? लोग सोचते है कि आज नहीं कल जी लेंगे। आज तो दौड़ते है, कल आनन्द प्राप्त करेंगे। अभी तो घर बनाना है, धन कमाना है। उसके बाद आराम से जीयेंगे, क्या यही मार्ग उचित है कि अपने आनन्द से जीवन जीने को कल पर टालते रहे।
मनुष्य के पास कल्पना का भाव है और कल्पना यह कहती है कि थोड़ा और अच्छा हो जाये, तब जीवन को आनन्द से भोगेंगे लेकिन कल्पना पर तो पंख लगे है और तेज भागती ही रहती है।
इस जीवन को संन्यस्त भाव से जीना है। व्यर्थ की कल्पनाओं के पीछे न भागकर कल के लिये आज को समाप्त नहीं करना है।
निखिल पंथ का प्रत्येक साधक सतत् कर्मरत संन्यासी है वो निरन्तर वर्तमान के आनन्द भाव से जीता है।
कर्मरत संन्यासी हो तुम सब और तुम्हें कर्म से भागना भी नहीं है। भाग भी नहीं सकोगे इतने बड़े घर-परिवार की संरचना तुमने की है, सृजन किया है। सृजनात्मक भाव से निरन्तर कर्म कर रहे हो तो इस सबको छोड़कर कहीं भागना भी नहीं है।
एक शिष्य के जीवन में गुरु का आगमन सुगन्ध का झौंका होता है। गुरु सुगन्ध की खुशबु उसके जीवन में निरन्तर प्रवाहित होती रहती है। कहते है कि सुगन्धित फूलों के बगीचे के दस चक्कर भी काट लो तो हमारे कपड़ों में भी वह खुशबू आ जाती है। तुमने तो गुरु को साक्षात् अपने हृदय में, मन में, स्थापित किया है। उस सुगन्ध को अनुभव करो, तुम्हारे भीतर एक क्षमता और आनन्द का झरना प्रवाहित होने लग जायेगा। मैं बार-बार साधना, संत्सग, ध्यान के लिये तुम्हें कहता हूं क्योंकि इसी से तुम्हारी सृजन शक्ति जाग्रत हो सकती है और हो रही है। बाह्य सुख-दुःख के भरोसे नहीं हो, क्यों हर समय दूसरों के भरोसे सुखी होते हो, दुःखी होते हो।
तुम्हारा स्वयं का एक अस्तित्व है, वजूद है। ईश्वर की श्रेष्ठतम् रचना हो और ईश्वर ने इस संसार में तुम्हें आनन्द के लिये भेजा है कि तुम मुस्कुराकर आनन्द भाव से अपना जीवन जीओं।
इसके लिये कर्मरत संन्यस्त भाव जीवन अपनाना है।
संन्यास की सीधी सादी परिभाषा है कि अतीत से अपने आपको विच्छन कर, अपने जीवन में नई भावभूमि बनानी है और नया रचना है, नया बनाना है। तभी तो जीवन के विष को हटाकर अमृत का सिंचन कर सकोगे। संन्यास का अर्थ है जागना। अब तुम जाग गये हो।
कितनी उम्र बीत गई, कितनी बाकी है। इस बात की चिन्ता मत करो। कर्मरत संन्यस्त भाव का अर्थ है जो भीतर है उसी को उजागर करना है। उसका अविष्कार करना है, उसका सृजन करना है।
सपनों और चिन्ताओं में तुमने अपनी ही खुशियों को अनदेखा कर दिया है। आनन्द भीतर है, खुशी तुम्हारे भीतर है। बस तुम व्यर्थ की चिन्ताओं को छोड़कर अपने मन के बंद कपाटों को खोल दो।
संघर्ष तो करना ही है। जहां संघर्ष है, चुनौती है वही तो स्वयं को जानने, परखने का उपाय है। इसलिये तुम्हें सतत् कर्मरत संन्यस्त भाव से क्रियाशील होना है। इसी से तुम्हारे मन में क्रांति आयेगी, चेहरे पर ओज आयेगा। नेत्रों में चमक आयेगी, तुम्हारे प्राणों में आनन्द गीत का गुंजन हो और पैरों में नृत्य हो।
कहीं भागना नहीं है, बस जागना है और जो ईश्वर ने जीवन दिया है उसे सम्पूर्ण रूप से स्वीकार करते हुए निरन्तर समर्पण भाव से सतत् कर्म करना है। इसी से तुम्हारे मन में प्रेम का अमृत पुष्प, आनन्द का अमृत कुण्ड खिल उठेगा।
इस जीवन को सहज स्वीकार करने में बड़ी कठिनाई है। भागना तो बहुत सरल है, जीवन को स्वीकार कर अपने आनन्द को जाग्रत करना ही क्रिया है, कर्म है। न किसी से शिकायत, न कोई गिला शिकवा।
संन्यास महोत्सव सम्पन्न करना है यह सतत् कर्म सिद्धि का मार्ग है और तुम सबमें अपने आप में ही प्रसन्न रहने की कला विकसित हो रही है। वह पुष्प खिल रहा है, तुम्हारे जीवन की सुगन्ध, तुम्हारे घर-परिवार सबको सुगन्धित कर देगी क्योंकि तुमने अपने हृदय में गुरु को स्थापित किया है।
तुम निखिल संन्यासी हो और जब तुम्हारे भीतर का आनन्द छलकता है तो आसपास के सब लोगों को भी यह आनन्द प्राप्त होता है। घर में खुशी का वातावरण बनता है और तुम्हारी सृजनात्मक शक्ति, विचार की शक्ति, कर्म की शक्ति और अधिक तीव्र होती जाती है।
सतत् कर्म वर्चस्व के मार्ग पर प्रफुल्लित भाव से चलते रहो।
निखिल ज्ञान का अमृत प्रवाह निर्झर रूप से निरन्तर और निरन्तर प्रवाहमान है उस ज्ञान के अमृत से अपने मन को आप्लावित करो। संसार की सारी आध्यात्मिक, भौतिक शक्तियां अपने आप तुम्हारे पास आ जायेगी।
सतत् कर्म…, सतत् कर्म… न रुकना है, न थकना है। बस अतीत का बोझ छोड़कर, मन से मुस्कुराकर गतिशील रहो।
गुरु तुम्हारे पास है, गुरु की शक्ति तुम्हारे भीतर निरन्तर प्रवाहित हो रही है। अपने आप पर विश्वास रखो, ये जीवन शुभ है, आनन्दमय है, अमृतमय है, संन्यास भाव से जीओं।
-नन्द किशोर श्रीमाली