Dialogue with loved ones – May 2021
अपनों से अपनी बात…
प्रिय आत्मन्,
शुभाशीर्वाद,
आप सबके मानस में बार-बार यह प्रश्न उठता है कि हम जीवन कैसे जीयें? जिससे आनन्द से रह सकें? क्योंकि व्यक्ति की सबसे बड़ी मनोकामना यही है कि जीवन में आनन्द हो, सुख-शांति, धन, पद, लक्ष्मी हो, यह सब कामना का विस्तार है, पर मूल भाव आनन्द ही है।
जी रहे है सब लोग, चल रहा है जीवन और चलता ही रहेगा क्योंकि यह जीवन कालचक्र है। इसमें न कोई विराम है, न कोई विश्राम। अविरल यात्रा का नाम है, हमारा यह जीवन।
पर कभी-कभी, किसी-किसी प्रज्ञावान, जिज्ञासु, उत्सुक साधक-शिष्य के मन में यह विचार अवश्य उठता है कि यह जीवन आनन्द के साथ कैसे जीया जायें? और इसीलिये भक्ति साधना, तपस्या, जप-तप सब उपाय करता है पर उसे अपने प्रश्नों के उत्तर प्रज्ञावान सद्गुरु से ही प्राप्त होते है जो ज्ञान मार्ग की चेतना देकर उसे यह सिखाते है कि क्या श्रेष्ठ है और किस प्रकार यह जीवन यात्रा सम्पन्न की जाये?
हर शास्त्र में, हर किताब में बार-बार यही सिखाया गया कि जीवन असार है, दुःख का भण्डार है। इसमें सुख नहीं मिल सकता है, आनन्द नहीं आ सकता है और आप लोगों ने भी अपने मानस में इसे भर दिया है। परीक्षा देने से पहले ही अपना रिजल्ट लिख दिया है।
जब ऐसी ही थकी हुई, हारी हुई बातों के बारे में ही बार-बार सोचते रहेंगे, विचारते रहेंगे तो क्या एक निराशावादी जीवन की यात्रा नहीं कर रहे हो?
एक बात बताओं, क्या ईश्वर ने हमें यह जीवन दुःख से जीने के लिये दिया है अथवा आनन्द से जीने के लिये दिया है? जब हम कहते है कि मनुष्य ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति है तो कृति का निर्माता अपनी कृति को दुःख संताप पीड़ा कैसे दे सकता है? जितना हम अपनी संतान से प्रेम करते है, हमारा ईश्वर भी हमें उससे अधिक प्रेम करता है।
अब जीवन तो हमें मिल गया और इस जीवन में यदि हमने प्रयत्न नहीं किये, परीक्षा नहीं दी, कार्य नहीं किया तो इसमें आनन्द, उत्साह और प्रेम की लहर कैसे आयेगी? तब तो फिर ये जीवन जीये और न जीये के बराबर हो गया है।
इस जीवन में हमें सबकुछ प्राप्त हो सकता है और हो रहा है। हमें उत्साह और प्रेम से आनन्द को लेना है। आगे बढ़कर लेना है।
हर समय डर, आशंका, भय, निराशा के पराजित भाव से चलते रहेंगे तो फिर प्रेम का, आनन्द का अंकुरण विस्तार कैसे होगा?
एक बहुत विशेष बात है कि हमारा यह जीवन बीज से निकले हुए एक छोटे से पौधे के समान है और एक पौधे में पूर्ण आनन्द कब आता है जब उसमें फूल खिलते है, फल आते है।
हमारा यह जीवन एक दीपक के समान है और दीपक की सार्थकता तब है जब इसमें ज्योति जलाई जायें, तभी तो प्रकाश आयेगा।
हमारा जीवन एक वाद्ययंत्र है, जब इसमें सुरो को संजायेंगे तभी तो संगीत बजेगा।
जन्म हुआ बहुत बड़ी घटना हुई लेकिन इससे भी बड़ी घटना कब होगी जब हम स्वयं अपने आपको जन्म देंगे और यह जन्म कैसे देंगे? अपनी भावनाओं के द्वारा, अपने विचारों के द्वारा अपने कार्यों के द्वारा। नई-नई चुनौतियों को स्वीकार कर इस जीवन में बार-बार आनन्द की लहरें उत्पन्न करनी है। यह क्रिया स्वयं को जन्म देने के समान है और यह सिखायेगा कौन? स्वयं को करनी है और यदि कोई संदेह, शंका, निराशा आ जाती है जीवन के चक्रवात में तो गुरु आपके साथ हैं ही।
गुरु आपका बार-बार हाथ पकड़कर आनन्द की लहरों पर जीवन का नर्तन अवश्य कराते है। ईश्वर का यह जीवन, जीवन्त रहने के लिये है। इसे हरा-भरा, सजीव जीवन्त रखना, इसमें फल-फूल खिलाना ही तो आर्ट ऑफ लिविंग है।
विचार करना है अपने सोचने, समझने, देखने, कार्य करने के तरीके पर। देखना है अपनी भावनाओं को, किस दिशा की ओर जा रही है? किन कारणों से तनाव हो रहा है? उन कारणों के मूल पर जाना है और उसका उपचार करना है। मन-मानस को निराशात्मक भाव और विचारों से मुक्त करना है।
ध्यान, जप, तप, साधना तुम्हारे सहयोगी है। गुरु ज्ञान तुम्हारा पथ प्रदर्शक है। उसके लिये अपने मन को उच्चता की ओर ले जाना है। तनाव से विचार नहीं करना है, क्रिया करनी है प्रतिक्रिया नहीं।
देखों भाई ईश्वर की प्रत्येक रचना इस चराचर जगत में आनन्द के साथ नर्तन कर रही है। तो क्यों न हम भी आनन्द के साथ नर्तन करे, प्रसन्न रहे और अपने हृदय से, अपने मन से बार-बार अपने आपको कहते रहे कि आनन्द से ईश्वर ने मेरी रचना की है। आनन्द ही मेरा स्वभाव है और आनन्द के लिये ही मुझे इस जीवन में रहना है।
सुख और दुःख के बारे में बहुत ग्रंथ पढ़ लिये। तो आज एक बात याद रखों कि दुःख स्थायी नहीं है, मूल मंत्र है यह भी चला जायेगा। कोई भी विपरित स्थिति आये तो मन में बोलों कि यह भी चला जायेगा और वास्तव में चला ही जाता है।
जब आनन्द और उत्साह के साथ किसी चुनौती को स्वीकार करते हो तो बाधा बहुत छोटी हो जाती है और आप बड़े हो जाते हो।
यह सोचों कि ईश्वर तो एक सागर है और हम ईश्वर के इस सागर की लहरें है। अब लहरों से मिलकर सागर बना है और सागर लहरों के लिये बना है। दोनों ही एक दूसरे से संयुक्त है, जहां सागर है वहां लहरें और जहां लहरें है वहां सागर है।
गुरु भी भीतर है, इष्ट भी भीतर है, परमात्मा भी भीतर है। खोजना है तो अपने भीतर खोजना है, अपने भीतर की यात्रा करनी है। अपने भीतर ही परमात्मा का विशाल आनन्द साम्राज्य है क्योंकि उसी परमात्मा की दिव्यतम कृति है हम।
अपने निर्माणकर्त्ता को प्रेम करो, परमात्मा से प्रेम करो और उतना ही प्रेम परमात्मा के निर्माण स्वयं अपने आप से भी करो।
-नन्द किशोर श्रीमाली
Coming soon…
Nand Kishore Shrimali