Dialogue with loved ones – March 2022
अपनों से अपनी बात…
मेरे प्रिय आत्मन् शिष्य,
शुभाशीर्वाद,
आज तुम यह स्पष्ट जान लो, जीवन का मार्गदर्शक ईश्वर शिव रुप में, गुरु रुप में है जो हमारे भीतर ही है, हम उस पर ध्यान दें, उसकी सुनें, अन्तर आत्मा की सुनें, बजायें दूसरों की जो हमें बार-बार कहते है कि तुम्हें क्या करना है?
इस ईश्वर की आवाज को सुनने के लिये सबसे आवश्यक है ‘ध्यान’ और आप सभी बार-बार कहते हो कि गुरुदेव मुझे परम तत्व से मिलना है, ईश्वर से साक्षातकार करना है, देव दर्शन करना है मैं क्या करूं?
देखों भाई एक ही माध्यम है – ‘ध्यान’।
अब तुम्हारा प्रश्न आता है कि ध्यान कैसे करें? ध्यान का शब्दिक अर्थ है उस विषय-वस्तु की ओर देखना। वास्तव में ध्यान का अर्थ बहुत गहन है। ध्यान वह है जब तुम्हें ध्यान ही नहीं रहे कि तुम ध्यान कर रहे हो। तुम ध्यान में हो। ध्यान वे क्षण है जब तुम सबकुछ भूल जाते हो, भीतर एक शून्य उठता है। वह प्रकाशवान शून्य तुम्हारे रोम-रोम में प्रवाहित हो जाता है।
इसीलिये मैं कहता हूं कि जो बाहर देखता है वह सपनें देखता है और जो भीतर देखता है वह जाग जाता है।
जागना है ना तुम्हें तो इसके लिये अभ्यास करना पड़ेगा। अब उस मन की धीमी आवाज को ध्यान से सुनना है, पहले ॐ नमः शिवाय…, ॐ ॐ ॐ से, सोहम् सोहम् सोहम् से, राम-राम-राम से, गुरु-गुरु-गुरु से शुरुआत तो करनी ही पड़ेगी।
देखों भीतर का मन तो तपस्यारत है। भीतर का ईश्वर तुम्हें कोई निर्देश देने का प्रयास नहीं करता है। निर्देश तो तुम्हारी बुद्धि से उत्पन्न हो रहे है। तुम्हारी भावनाओं से उत्पन्न हो रहे है। बुद्धि और भावना से उत्तेजना आती है।
उतेजना से कभी कार्य सिद्ध हो जाते है, कभी कार्य सिद्ध नहीं होते। जब कार्य सिद्ध नहीं होते तो उतेजना क्रोध का रुप ले लेती है, फिर यह क्रोध तुम्हारी बुद्धि पर हावी हो जाता है।
करना क्या है? अपनी ‘उत्तेजना को चेतना’ के स्तर पर ले जाना है। उसका उपाय है – ‘ध्यान’।
जब साधक जोश-जोश में, ध्यान करने का प्रयास करते है तो एकदम से परेशान हो जाते है। अपने अन्दर उतरने का प्रयास करते है तो उस ध्यान में केवल अहम्, क्रोध, वासना एवं दर्द दिखाई देते है। मन और अधिक व्यथित हो जाता है। ऐसी चीजें दिखती है जिन्हें आप पसन्द नहीं करते है।
इस हेतु तुम्हें यह स्वीकार करना है कि तुम्हारे भीतर अहम्, क्रोध, पीड़ा है। उस वास्तविकता का सामना करना है और उसे परिवर्तित करना है स्थिरता, शांति और मौन में। जहां सबकुछ शांत हो जाये।
तो इसके लिये पहला सरल उपाय यही है कि अपने श्वासों के आवागमन पर अपनी चेतना को केन्द्रित कर दो। उसके बाद अपने आप धीरे-धीरे स्थितियां सुलझती जायेगी और मन शांत होकर ध्यानस्थ अवस्था में पहुंच जायेगा।
एक बात स्पष्ट कह दूं कि ध्यानस्थ अवस्था में जो शरीर, मन, बुद्धि रिपेयर (Repair) हो जाती है, जो ऊर्जा की उत्पत्ति होती है वह ऊर्जा तुम्हें मधुरतम् प्रज्ञावान व्यक्ति बना देती है।
तुम्हें ईश्वर दर्शन करना है? अवश्य करना है और तुम्हें यह भी उपदेश मिलता है कि अरे! मन से मोह को हटाओं, क्रोध को हटाओं, लोभ को हटाओं।
अरे भाई! जब ध्यान करेंगे और भीतर शांत ईश्वरीय प्रकाश की अनुभूति होगी तो अपने आप मोह, क्रोध लोभ हट जायेगा।
‘ध्यान’ केवल ‘ध्यान’ के लिये करना है। यदि तुम्ने ध्यान भी कुछ प्राप्ति के लिये करने का निश्चय किया है तो फिर मन किस ओर केन्द्रित होगा? प्राप्ति के लिये तुम नित्य प्रति चौबीसों घण्टे क्रिया कर ही रहे हो। अपनी क्रिया को अक्रिया में बदलने के लिये जिससे कि मन शांत हो सके, उसके लिये ध्यान करो।
तुम्हारे जीवन में गृहस्थ प्रपंच नहीं है। काम, क्रोध, मोह, लोभ सब चलते रहेंगे। अब सबको साथ लेकर चलना है तो कुछ क्षणों के लिये विचार शून्य तो होना ही पड़ेगा। इस तरह से विचार शून्य हो जाओं तो अपने आप गुरु, इष्ट, परमात्मा का तुम्हारे हृदय में वास हो जायेगा। तुम अपनी क्रिया द्वारा, प्रयास द्वारा जबरदस्ती के भाव से गुरु को हृदय में स्थापित नहीं कर सकते हो। गुरु को पुकारो, गुरु के लिये तुम्हारी आंखों से अश्रु बहने लगे, गुरु के लिये नाच सकते हो तो नाचों।
मेरा कहना है कि भीतर कुछ जगह खाली करों, भीतर का द्वार तो खोलना ही पड़ेगा। सूर्य की किरणों को तुम खींच कर नहीं ला सकते ना। बस ठीक ऐसे ही ध्यान के द्वारा मन का द्वार खोल दो। जब गुरु को आना है, तब आ ही जायेंगे।
वैसे एक बात कहूं, देवता गुरु, इष्ट, तुम्हारे हृदय पर रोज दस्तक दे रहे है। आप इतना करो, द्वार खोलों।
अब दो चार बातें ओर कहूंगा जो अच्छी लगे उसे अपना लेना।
* इतने खुश रहो कि तुम यह भूल जाओं कि तुम कितने उदास थे।
* जिन्दगी में बहुत सी चिन्ताएं तो ऐसी ही होती है जो हमारी जिन्दगी में कभी आती ही नहीं है क्यों व्यर्थ की इतनी अधिक चिन्ता करते हो।
* सब ठीक हो जायेगा, बस धैर्य रखों, हर बात के लिये व्यर्थ की ज्यादा चिन्ता मत करो।
* यदि तुम सोचते हो कि कुछ नहीं बदलेगा तो वास्तव में कुछ नहीं बदलेगा। जब तुम सोच लेते हो कि यह बदलेगा, मेरा प्रयास है तो अवश्य बदलेगा।
* एक बात सबसे अधिक गहरी है उस पर पूरी तरह अमल में लाना – आप एकदम पूर्ण हो, जैसे भी हो बहुत अधिक बदलाव की आवश्यकता नहीं है। बस एक सोच में बदलाव की आवश्यकता है कि आप अपूर्ण हो, आप ठीक नहीं हो। केवल वही विचार अपने पास रखने योग्य है जो तुम्हें शांति प्रदान करते है। बाकी सब विचार तो कूड़ा-करकट है, कचरा है।
मैं तुम्हारा गुरु स्पष्ट कह रहा हूं कि तुम पूर्ण हो…, तुम पूर्ण हो…!
-नन्द किशोर श्रीमाली
Coming soon…
Nand Kishore Shrimali