Dialog with loved ones – March 2020
अपनों से अपनी बात…
प्रिय आत्मन्,
शुभाशीर्वाद,
प्रिय आत्मन्,
शुभाशीर्वाद,
न तत्र सूर्योभाति, न चन्द्र तारकं ना विद्युतो भाति, कुतोऽयमग्निः।
तमेव भान्तमनुभाति सर्व तस्य भासा सर्वमिदं विभाति॥
इस संसार की प्रत्येक इकाई को न तो सूर्य, न तो चन्द्रमा, न तारे, न विद्यतु और न ही अग्नि प्रकाशित करते हैं। वरन् एक अद्वितीय आत्मा से ही ये सब प्रकाशित होते हैं। यह अद्वितीय आत्मा ज्योतियों की ज्योति है, परमात्मा है और वही हमारे भीतर भी है। इसके उपरान्त भी इस संसार में मनुष्य सुख प्राप्ति के लिये क्यों भटकता है? यह प्रश्न बड़ा ही गहन है।
क्षिति जल पावक गगन समीरा, एक समान।
इस सृष्टि में पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु सब एक समान ही दिख रहे हैं। सबके लिये एक जैसे हैं। सबको यह सब तत्व समान रूप से मिल रहे हैं तो फिर अन्तर क्या है? सबके भीतर एक ही ज्योति प्रकाशित हो रही है तो फिर अन्तर क्या है? अन्तर है मानसिकता का। इस संसार में प्रत्येक मनुष्य के लिये कर्म, प्रतिष्ठा, सुख-स्वास्थ्य जैसे जीवन तत्व बिखरे पड़े हैं लेकिन मनुष्य अपने स्वभाव और मानसिकता के अनुसार अलग-अलग जीवन तत्व ग्रहण करता है। अपने आस-पास देखो, कोई आनन्द से है तो कोई दुःख में डूबा है। सब अपने मनोभाव, रूचि, स्वभाव, गुण, कर्म और जीवन के प्रति दृष्टिकोण के अनुसार ही अपना संसार बनाते हैं। उस संसार में नित्य प्रति अपने दृष्टिकोण के अनुसार क्रिया करते हैं। अपने दृष्टिकोण के अनुसार देखते हैं और अपने दृष्टिकोण के अनुसार ही सुख और दुःख का अनुभव भी करते हैं।
क्या स्वर्ग और नरक होता है? इस प्रश्न पर मंथन करने की अपेक्षा यह जानना आवश्यक है कि हमारा जीवन सुखमय और इस जीवन में आनन्द और स्वर्ग की स्थिति कैसे बन सकती है? हम अपने भाग्य चक्र को कैसे संचालित कर सकते हैं? हम सभी अपने जीवन में स्वर्ग का निर्माण करना चाहते हैं तो सबसे बड़ा आधार और उपाय है स्वस्थ शरीर।
आप स्वयं देखो, रोगी, कृशकाय, ढीला-ढाला, पौरुषहीन शरीर ऐसा तंत्र है जो निराशा, क्रोध और कड़वाहट की ही सृष्टि कर सकता है। रोग शरीर का हो या मन का, उस रोगी को यह संसार बंधन स्वरूप, दुःख, क्लेश और पीड़ा से भरा नरक ही अनुभव होगा जबकि स्वस्थ व्यक्ति को यह संसार स्वर्ग के समान लगता है।
एक ही उपाय है, जिससे स्वस्थ शरीर के साथ हम इस संसार में आनन्द का अनुभव करें और वह उपाय है अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन, अपने भीतर की उस अन्तर्ज्योति से सम्पर्क।
यदि निराशावादी दृष्टिकोण रखोगे तो जीवन में कठिनाई और बाधाएं ही प्राप्त होगी और उसका फल असफलता ही होगा।
आशावादी अपने आपको निरन्तर और निरन्तर उत्साहित करता रहता है। वह अपने जीवन में अपने कार्य में प्रविष्ट होने का मार्ग स्वयं प्राप्त कर लेता है। एक बात अपने मन पूरी तरह उतार लो कि आशा और निराशा का दृष्टिकोण ही स्वर्ग और नरक का सृष्टा है।
मन से निराशा का दृष्टिकोण समाप्त करना है तो भावना को आराधना की ओर मोड़ना होगा। जिससे हम सृष्टि के उत्तम तत्वों को ग्रहण कर अपने भीतर-बाहर प्रेम और उत्साह का निर्माण कर सकते हैं।
देव आराधना ही सम्पूर्ण इच्छाफलों की पूर्ति में सहायक है। ईश्वर, शक्ति, देव के प्रति सतत सम्बन्ध की प्रत्यक्ष अनुभूति, उस ओर किया गया सार्थक प्रयास आराधना का, साधना का प्रगटीकरण है।
नित्य सूर्य प्रार्थना में यह बात कहें कि –
अद्या देवा उदिता सूर्यस्य निर गुंग हसः पिपृता निरवद्यात्।
तन्नो मित्रो वरुणो मा महन्ता मदितिः सिन्धुः पृथिवी उतद्यौः॥
हे देव! आज का यह सूर्योदय हमारे समस्त पापों को नष्ट करे। हमारे अपयश को दूर करें तथा मित्र, वरुण, अदितिमाता, सिन्धु, पृथ्वी, आकाश सभी हमारी रक्षा करें।
आराधना ही इस संसार और ईश्वरीय ब्रह्माण्ड की भौतिक शक्ति और आध्यात्मिक ऊर्जा है। इसे प्रत्येक व्यक्ति प्राप्त कर सकता है। उसके लिये दृष्टिकोण में परिवर्तन करना है, उसके लिये अपनी भावना को ईश्वरीय शक्ति की ओर मोड़ना है।
प्रारम्भिक स्तर पर यह कार्य कठिन होता है लेकिन धीरे-धीरे निरन्तर और निरन्तर प्रेम और भक्ति से, जिस भाव से आराधना की जाती है उसका मंतव्य सिद्ध होता है। प्रत्येक आराधना रचनात्मक उद्देश्य से स्वयं के कल्याण के भाव से प्रेरित होनी चाहिए। इसी से प्रकृति को परिवर्तित किया जा सकता है, अपने स्वभाव और प्रवृत्ति को उन्नत किया जा सकता है।
मनसः काममाकूर्ति वाच सत्य मशीमहि
पशुनां रूपमन्नस्यमयि श्रीं श्रयतां यशः
मन की कामना, संकल्प सिद्धि एवं वाणी की सत्यता मुझे प्राप्त हो। अन्न, दुग्ध आदि भोज्य पदार्थों के रूप में तथा यश के रूप में श्री लक्ष्मी देवी का हमारे यहां सतत् आगमन हो।
आराधना में, प्रार्थना में ही शक्ति होती है। ईश्वरीय तेज को प्राप्त करने के लिये भीतर की आत्मज्योति को जाग्रत करने के लिये, स्वयं को सत्य के प्रति, संकल्प के प्रति समर्पित करना आवश्यक है। उस ईश्वर का नित्य ध्यान आवश्यक है जिसके सम्बन्ध में कहा गया है कि –
नमस्ते अस्तु विद्युते नमस्ते स्तनयित्नवे।
नमस्ते भगवन् नस्तु यतः स्वः समीहसे॥
हे भगवान! मैं आपके तेजोमय रूप को प्रणाम करता हूं। मैं आपके शब्दमय और ऐश्वर्य रूप को प्रणाम करता हूं। आप स्वयं आनन्द स्वरूप हैं। आपका यही आनन्द मुझे प्राप्त होता रहे।
हमारी प्रार्थनाएं स्वीकार हों, हमारे कर्म स्वीकार हों, हमारे यज्ञ स्वीकार हों। अर्पण के भाव से क्रिया करते रहें, मन में छाया निराशा का दृष्टिकोण समाप्त हो जायेगा। इस जीवन में ईश्वरीय अमृत को ग्रहण करें, आनन्द का स्वर्ग बनेगा।
आज का दिन, आज का सूर्योदय श्रेष्ठ है, हमारे जीवन में एक नवीन दिन है। हमारी आत्मा का प्रकाश निरन्तर और निरन्तर हमारे साथ रहे और इस ज्ञान ज्योति में, संसार में कर्मरत हों, यज्ञरत हों।
नन्द किशोर श्रीमाली