Dialogue with loved ones – June 2021

अपनों से अपनी बात…
प्रिय आत्मन्,
शुभाशीर्वाद,

    बृहदारण्यक उपनिषद् का यह श्‍लोक बड़ा ही महत्वपूर्ण और भाव भरा है। गहन अर्थ लिये हुए है।

आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्योः।
मैत्रैय्यात्मनो वा अरे दर्शनेन श्रवर्णन मत्या विज्ञानेनेद् सर्व विदितम्॥

    हम जीते किस लिये है, आनन्द की प्राप्ति के लिये। हमारी सारी क्रियाएं किस ओर गतिशील है कि हमें आनन्द की प्राप्ति हो। हमारी सारी भावनाएं, हमारी सारी कामनाएं इसलिये है कि हमें आनन्द की प्राप्ति हो। हमारी बुद्धि भी आनन्द की प्राप्ति के लिये ही गतिशील है।

    याज्ञवल्क्य कहते है कि मनुष्य सारे सुख अपने आत्मा के सुख के लिये करता है। उसकी आत्मा प्रसन्न हो, उसकी आत्मा तृप्त हो। मनुष्य आत्मिक सुख का अभिलाषी है इसीलिये वह अपनी घर-गृहस्थी, संसार बसाता है, इसी आत्मिक सुख हेतु योगी, यति, संन्यासी गहन वनों में तपस्या, साधना करते है।

    यज्ञ, मंत्र जप, साधना सबके पीछे यही भाव है कि हमें आत्मसुख और शांति प्राप्त हो।

    ॠषि ने तो अपनी बात पूर्ण रूप से कही लेकिन लोगों ने उनके शब्दों का सीधा अर्थ कर दिया, भाव को ग्रहण नहीं किया।

    ॠषि कह रहे है कि आत्मा को सुख प्राप्त होना चाहिये। यह आत्मा का सुख प्राप्त कैसे होगा? इसके लिये हमारे पास माध्यम क्या है?

    हमारे पास माध्यम है, शरीर और शरीर के लिये ईधन चाहिये, भोजन चाहिये, पानी चाहिये, देखभाल चाहिये।

    यह शरीर एक यंत्र है, आत्मा यंत्र नहीं है। पर इतना ध्यान रखों कि जैसे किसी यंत्र को श्रेष्ठ रूप से चलाने के लिये उसकी पूरी देखभाल करनी पड़ती है उसी प्रकार इस शरीर रूपी यंत्र का भी पूरी तरह ध्यान रखो लेकिन उसके साथ यह सब भी ध्यान रखो कि यह मेरे शरीर की आवश्यकताएं है क्योंकि शरीर, देह सबसे महत्वपूर्ण यंत्र है और इस यंत्र का जब तक ईश्‍वर ने जीवन दिया है इस यंत्र का उपयोग लेना है और इसका श्रेष्ठतम् उपयोग आवश्यक है अन्यथा ईश्‍वर के दिये हुए वरदान का क्या अर्थ रह जायेगा? हमें देह रूप में, मनुष्य रूप में वरदान मिला और हमने देह का श्रेष्ठ ढ़ंग से उपयोग नहीं किया, न इसे संभाला, न इसका ध्यान रखा और धीरे-धीरे हम इसे कमजोर करते रहे।

    शरीर वह यंत्र है, जो दुःख की ओर ले जाने की सीढ़ी है और सुख की ओर ले जाने की सीढ़ी है सीढ़ी अर्थात् जिसका एक छोर जमीन पर टिका है और एक छोर आसमान की ओर। अब जैसे सीढ़ी से नीचे उतर सकते है वैसे ऊपर चढ़ सकते है। इस सीढ़ी के माध्यम से हम जीवन के उच्चतम् स्तर पर पहुंच सकते है।

    शरीर के माध्यम से ही मुक्ति, आनन्द, परमानन्द, ब्रह्मानन्द की स्थिति प्राप्त कर सकते है तो इसे बहुत संभाल कर रखना है, जरूरते पूरी करनी है, इसको कभी खराब मत होने देना।

    ॠषि याज्ञवल्क्य की बात को पूरी तरह समझा नहीं और यह अर्थ लगाया कि जीवन में धन, माया, मोह से अमृत्व प्राप्त नहीं हो सकता है, संन्यास से प्राप्त हो सकता है। इस जीवन यात्रा में लोग मिलते है, बिछड़ते है लेकिन एक बात तो याद रखों कि यह जीवन यात्रा तुम कर किससे रहे हो, यह जीवन यात्रा तुम अपने शरीर के माध्यम से कर रहे हो।

    शरीर का सबसे बड़ा सहयोगी कौन है? शरीर की सबसे बड़ी सहयोगी बुद्धि है इसलिये बुद्धि को शक्ति कहा गया है।

या देवी सर्व भूतेषु बुद्धि रूपेण संस्थिता

    लेकिन यह बुद्धि बड़ी विचित्र है। आज विचार करना कि ‘तुम बुद्धि के वश में हो या बुद्धि तुम्हारे वश में’, बात बहुत गहरी है। यदि तुम बुद्धि के अनुसार चलते रहे तो बुद्धि के गुलाम हो जाओंगे, फिर तुम्हारी बुद्धि तुम्हें निरन्तर और निरन्तर दौड़ाती रहेगी, भरमाती रहेगी, कामनाओं के गहरे सागर में ले जायेगी। अभी तो मुझे और मोती चुनने है, अभी तो मुझे और प्राप्त करना है।

    अरे भाई! आनन्द तो साथ-साथ चलने वाला सहयात्री है। आत्मा के रूप में तुम्हारे साथ हर समय है। यही बात ॠषि मूल रूप से समझा रहे है।

    तो इसके लिये क्या आवश्यक है?

    बुद्धि उपयोगी है लेकिन बुद्धि को भी वश में करना पड़ता है। जैसे ही बुद्धि वश में होती है हम साक्षी हो जाते है, स्थितप्रज्ञ हो जाते है और जो भीतर का सत्व है, हमारी आत्मा है जो हमारा वास्तविक अस्तित्व है वह सिद्ध होने लगता है।

    तो यह बुद्धि ऊपर भी ले जा सकती है, नीचे भी ला सकती है। यह शक्ति बुद्धि ही है, तो इस शक्ति को तुम्हें अपने वश में करना है या इस शक्ति के वश में हो जाना है?

    विचार एक होना चाहिये, एक विचार होगा और बुद्धि उस विचार के अनुसार चलेगी तो जीवन में शांति आ जायेगी। हजार तरह के विचार है तो उपद्रव हो जायेगा जीवन में।

    बुद्धि को वश में रखना है, शरीर का ध्यान रखना है, देखभाल रखनी है तभी जीवन में सहज, स्वतंत्रता प्राप्त होगी। स्वतंत्रता न ओढ़ी हुई हो, न किसी की दी हुई हो, सहज भाव हो। सहज स्वतंत्रता जहां हम स्थितप्रज्ञ होकर अपने जीवन के पृष्ठों को पलटते है तो हर पृष्ठ में आनन्द की अनुभूति होती है और कुछ नया लिखना चाहे तो लिख भी सकते है क्योंकि शरीर स्वस्थ रूप से हमारे साथ है और बुद्धि हमारे आत्मा के वश में है।

    बस ध्यान रखो, अपने शरीर का। बस ध्यान रखो, अपनी बुद्धि का। अवलोकन करते रहो, निरीक्षण करते रहो, न शरीर को भटकने दो और न ही बुद्धि को।

    अपनी मालकियत, आत्मा की मालकियत कायम रखनी है और सहज भाव से रखनी है। बिना किसी जोर जबरदस्ती के।

    गुरु तुम्हारे साथ है, परमात्मा का सत्व स्वरूप यह शरीर है। बुद्धि के स्वयं मालिक हों और जीवन का आनन्द प्राप्त करें।

-नन्द किशोर श्रीमाली

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