Dialogue with loved ones – July 2023
अपनों से अपनी बात…
मेरे प्रिय साधकों,
शुभाशीर्वाद,
आजकल आप सभी प्रकृति की लीला के सम्बन्ध में नित्य विचार करते है। यह क्या हो रहा है, प्रकृति इतनी विचित्र क्रुद्ध क्यों है? अप्रैल-मई के महीने में भयंकर आंधी, तूफान, वर्षा कभी मौसम का एकदम गर्म हो जाना और कभी एकदम ठण्डा हो जाना बड़ा ही विचित्र लग रहा है। आप सोचते होंगे कि यह सब क्या हो रहा है? प्रकृति ऐसा कैसे कर सकती है? ईश्वर के नियम के अनुसार शीत ॠतु, बसंत ॠतु, ग्रीष्म ॠतु, वर्षा ॠतु नियम से चलनी चाहिये। क्यों प्रकृति में इतनी अधिक उथल-पुथल हो रही है?
प्रकृति अर्थात् शक्ति!,
ऐंकारी सृष्टिरूपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका, क्लींकारी कामरूपिण्यै बीजरूपे नमोस्तुऽते॥
देखों यह सब प्रकृति का विचलन कोई नवीन घटना नहीं है, इस प्रकार कालचक्र में हजारों बार, ऐसा हुआ है और आगे भी हजारों बार ऐसा होगा। प्रकृति के विचलन को और उसके स्वभाव को रोकने की क्षमता मनुष्य में नहीं है। उसे ही प्रकृति के अनुसार ढलना ही पड़ता है। अपने आपको प्रकृति के अनुरूप ढालना पड़ता है। ठीक ऐसे ही जब आप बुखार आने पर दवाई लेते है और आपने तो दो साल पहले प्रकृति की भयंकरतम् विभीषिका देखी है, कोरोना के रूप में। उससे आप लड़ें नहीं अपितु, आपने अपनी सुरक्षा बचाव के लिये अनुरूप साधन अपनायें। अपने आपको सुरक्षा प्रदान की और आप प्रकृति के उस भयंकर विभीषिका से सुरक्षित बाहर निकल गये। जिस प्रकार इस ब्रह्माण्ड में जगत के संचालक ईश्वर है और उनकी क्रिया शक्ति प्रकृति है उसी प्रकार “यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे…’’ उसी प्रकार आपके देह में भी ईश्वर का निवास है, प्रकृति का निवास है। इस प्रकृति के निवास के कारण ही आपमें बल, बुद्धि, शौर्य, ज्ञान, विवेक इत्यादि गुण है।
मनुष्य में प्रकृति अपने सीधे रूप में कार्य नहीं करती है, यह प्रकृति मनुष्य में ‘प्रवृत्ति’ (भाव) रूप में परिणीत होती है और उन प्रवृत्तियों के आधार पर मनुष्य अपना कार्य करता है। शास्त्र कहते है कि प्रवृत्ति से निवृत्ति की ओर जाया जायें लेकिन हर एक के लिये यह संभव नहीं होता है। वह अपनी प्रवृत्तियों का दास हो जाता है और प्रवृत्तियां उसे संसार में नचाती है। सबसे बड़ी बात यह है कि सब मनुष्य, स्त्रियों की प्रकृति तो एक समान है इसीलिये तो हम संसार में क्रियाशील है।
बल, बुद्धि, विवेक, शौर्य, धैर्य, सहनशीलता, कर्तव्य पालन ये सारे गुण जो प्रकृति के स्वरूप है सब मनुष्यों में विद्यमान है लेकिन सोचों यदि कोई अपने प्रकृति प्राप्त बल को क्रोध की प्रवृत्ति में बदल देता है तो उसका जीवन कैसा होगा? यदि कोई व्यक्ति अपने अर्थ की प्रकृति को लोभ की प्रवृत्ति में बदल देता है तो उसका जीवन कैसा हो जायेगा? यदि कोई अपनी वाणी की प्रकृति को अपशब्द बोलने की प्रवृति में परिवर्तित कर देता है तो उसका जीवन कैसा होगा?
विशेष बात यह है कि सबकी प्रकृति एक है लेकिन सबकी ‘प्रवृत्तियां’ (भाव) अलग-अलग क्यों है? इस प्रश्न पर सबको विचार करना है। मनुष्य केवल अपनी प्रकृति के आधार पर जीवन में उन्नति या अवन्नति प्राप्त नहीं करता। वह अपनी प्रवृत्तियों के आधार पर जीवन का निर्माण या विनाश करता है।
रावण में हजारों गुण थे, लेकिन उसने अपने बल-बुद्धि-साहस-ज्ञान की प्रकृति को अभिमान, अधिकार और लोभ की प्रवृत्ति में बदल दिया तो उसके प्रकृतिजन्य सारे गुण दुष्प्रवृत्तियों में परिणीत हो गये और उसका नाश हुआ। यही बात प्रत्येक मनुष्य पर लागू होती है क्योंकि प्रत्येक मनुष्य ईश्वर का लघु अंश है और जिस प्रकार ईश्वर पूर्ण है, उसी प्रकार मनुष्य भी पूर्ण है। इसीलिये यह वेद वाक्य बना है –
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते,
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवाव शिष्यते॥
आपकी प्रकृति बहुत सुन्दर है, श्रेष्ठ है, सर्वगुण सम्पन्न है लेकिन वह प्रकृति चाहती है कि आप उन प्राकृतिक गुणों से अपने जीवन को स्वयं निर्माण करें या विनाश करें, यह आपके हाथ में है। इसीलिये एक प्रार्थना में आया है –
कराग्रे वसते लक्ष्मीः करमध्ये सरस्वती,
करमूले तु गोविन्दः प्रभाते करदर्शनम्॥
जिस प्रकार प्रकृति में पहाड़, जंगल, झरने, समुद्र, नदियां है उन्हें मनुष्य स्वयं तो निर्माण नहीं कर सकता। आप अपने लिये एक नये हिमालय का निर्माण तो नहीं कर सकते लेकिन अपनी प्रवृत्ति को शुद्ध प्रवृत्तियों में परिवर्तित कर उस हिमालय पर भी विजय प्राप्त कर सकते है।
जीवन का सबसे बड़ा खेल अपनी प्रकृति को अपनी श्रेष्ठ प्रवृत्तियों (भावों) की दिशा में परिवर्तित करना है। इसी को कर्म कहा गया है, इसी को साधना कहा गया है, इसी को तपस्या कहा गया है। सदैव याद रखें, बुद्धि, ज्ञान, विवेक, शौर्य, बल, पराक्रम विशुद्ध प्रकृतिजन्य भाव है। इन भावों को किस दिशा में मोड़ना है और इसके लिये किस प्रकार से क्रियाशील होना है यह आपके विवेक पर निर्भर करता है। यदि आपने अपने जीवन में सही समय पर निर्णय नहीं लिये तो जीवन यात्रा में पछतावा ही रहेगा। तो सबसे पहले आपको अपनी निर्णय क्षमता का विकास करना है और इन निर्णयों का लक्ष्य आपके जीवन में मधुरता और आनन्द प्राप्ति के लिये होना चाहिये। इन निर्णयों में घृणा, द्वेष, तुलना के लिये कोई स्थान नहीं है। घृणा, द्वेष और हर समय तुलनात्मक प्रवृत्ति आपकी श्रेष्ठ प्रकृति को भी गलत दिशा में गतिशील कर देती है।
नित्य प्रति अपनी प्रवृत्तियों का विश्लेषण करते रहे और यदि आपकी प्रवृत्ति क्रोध, वैर, लोभ, हिंसा, चोरी, घृणा, द्वेष की दिशा में मुड़ रही है तो उसे तत्काल रोकें। अरे भाई! जीवन बहुत छोटा है और जीवन बहुत लम्बा भी है। आप यह विचार करें कि मेरे लिये प्रत्येक दिन नया दिन है और मुझे आनन्द अमृत के साथ इसे जीना है। तो अपनी प्रकृति को, अपनी शक्ति को श्रेष्ठ प्रवृत्तियों की ओर ले जाये। तब धीरे-धीरे जीवन में निवृत्ति की स्थिति आयेगी, जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने स्थितप्रज्ञ की संज्ञा दी है।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते….
अपनी प्रकृति को श्रेष्ठ प्रवृत्ति में परिवर्तित करें, आपका ईश्वर, आपका गुरु हर समय आपको आशीर्वाद के लिये तत्पर है। बस प्रवृत्तियों के जंजाल में न उलझे और अपनी विशुद्ध प्रकृति को समझें और उसी के अनुसार निरन्तर कर्मरत रहे। अपनी प्रकृति के वास्तविक स्वरूप का प्राप्त करने के लिये श्रावण मास में शिव और प्रकृति रूपी शक्ति का अभिषेक अवश्य सम्पन्न करें।
-नन्द किशोर श्रीमाली
Coming soon…
Nand Kishore Shrimali