Dialogue with loved ones – July 2022

अपनों से अपनी बात…

मेरे प्रिय आत्मन् शिष्य,

शुभाशीर्वाद,

गर्मी के इस भीषण ताप को सहन करते हुए आप सभी अपने-अपने कार्यों में क्रियाशील है, अपना कर्म भलीभांति कर रहे है। आपने जो यह सिद्धान्त स्थापित किया है, यह ब्रह्मज्ञान का ही स्वरूप है। चरैवेति चरैवेति… जीवन में सदैव चलते रहो निरन्तर कर्म करते रहो। पर यहां एक बात महत्वपूर्ण है कि मनुष्य कर्म के बजाय अपने मन को चरैवेति… चरैवेति… ज्यादा करता है। यह मन सदैव चलायमान रहता है। दिन को भी चलता रहता है और रात को स्वप्न में भी चलता रहता है।

पहली बात तो आप यह जान लो कि आप सर्वश्रेष्ठ हो। ईश्‍वरीय कृपा से ये जो जीवन मिला है वह शुद्ध रूप से ईश्‍वर का ही प्रतिरूप है। भगवान ने केवल मनुष्य को ही अपना प्रतिरूप बनाया। सब पशु-पक्षियों को विभिन्न प्रकार के गुण बांटे। किसी को आकाश में उड़ने का गुण दिया, किसी को जल में रहने का। शेर को प्रहार की शक्ति दी, हिरण को भागने की। सबको खुले हाथ से शक्ति प्रदान की।

मनुष्य को बनाने के समय ईश्‍वर स्वयं बनाते-बनाते मोहित हो गया और अपना ही स्वरूप प्रदान कर दिया और उसे दो सर्वश्रेष्ठ उपहार दे दिये। पहला उपहार – मनुष्य के हाथ में मुट्ठी बांधने की शक्ति और हाथों की स्वतंत्रता। इन हाथों में ग्रहण करने की क्षमता भी है, पकड़ने की क्षमता भी है और स्वतंत्रता का स्वरूप भी है। साथ ही मनुष्य को एक महान् गुण दिया, केवल दो पैरों से चलने की क्षमता। जिससे वह निरन्तर चलता रहे और उसके हाथ स्वतंत्र रूप से कार्य करते रहे।

एक ओर महत्वपूर्ण उपहार दिया मनुष्य को। यह उपहार है, कामना पूर्ण मन। यह केवल और केवल मनुष्य को ही वरदान प्राप्त हुआ है। किसी पशु-पक्षी, जानवर को कामना पूर्ण मन नहीं मिला है। सब पशु-पक्षी अपने घेरे में, अपने स्थान में रहकर प्रसन्न रहते है।

मनुष्य के पास यह कामनापूर्ण मन है इसी मन से सबकुछ उपजता है। आज मनुष्य जाति ने पिछले 50 हजार वर्ष में जो उन्नति की है, जल में, थल में, नभ में वह कामना पूर्ण मन के कारण ही तो संभव हुआ है, इसलिये मन सबसे बड़ा है।

पाप-पुण्य, जीत-हार, भावना-विचार देने वाला मन ही है। इस मन से ही सबकुछ उपजता है और इस मन में ही सबकुछ विलुप्त होता है। यह मन ब्रह्मसागर है। तुम्हारी सृष्टि का उद्गव स्थल भी है और पूर्णता का स्थल भी है।

बुद्धि कभी मन से बड़ी नहीं हो सकती, बुद्धि तो केवल मन के विचारों को तौलती है, आंकती है।

कितना विशाल है आपका मन तो एक दिन मौन रहकर देखों, एकांत में बैठों और मौन हो जाओं। तब तुम देखोंगे कि मन के भीतर तो महासंग्राम चल रहा है। हजारों विचार आ रहे है, जा रहे है। कुछ गतिशील है, कुछ गतिहीन है। कुछ शुभ विचार है, कुछ अशुभ विचार है। कुछ सृजन के विचार है, कुछ संहार के विचार है। एक महायुद्ध तो हर समय मन में चल ही रहा है।

खतरनाक है यह मन और इस पर नियन्त्रण करने की कोशिश भी मत करना। क्योंकि नियन्त्रण कर नहीं पाओंगे। तब और अधिक दुःखी हो जाओंगे, तो इस मन को प्रसन्न करना है, अपने विचारों से, अपनी भावनाओं से। मन को पुष्ट बनाना है, जब मन पुष्ट हो जायेगा तो उसे अपनी शक्ति का असहसास हो जायेगा और मन की शक्ति ही वास्तविक शक्ति है।

जब मन पुष्ट हो जायेगा, मन तृप्त हो जायेगा तो इसमें न कोई कुविचार आयेगा, न ही हानि की चिन्ता आयेगी।

इस संसार में बड़े-बड़े अविष्कार, उन्नति और अवनति, संहार, युद्ध सब मन की शक्ति के कारण ही हुए है। इसलिये मन की शक्ति सृजनशील भी है और संहारकर्त्ता भी है। इसे एकाग्र कर सृजनशील बनाना है, चिन्ता रहित बनाना है। चिन्ता रहित होने के लिये मन में स्पष्ट चिन्तन आवश्यक है। इस संसार में मनस्वी विचारकों, वैज्ञानिकों, लेखकों का सम्मान होता है। दान दाता महान् उद्योगपतियों का सम्मान होता है वही राष्ट्र उन्नति करता है। मनस्वी अर्थात् मंथन करने वाला।

देखों, बुद्धि की एक सीमा है। बुद्धि क्या है? आपकी प्रतिभा को तराशने की क्रिया है। अभ्यास द्वारा, बार-बार अभ्यास द्वारा आप एक कार्य में निपूणता प्राप्त करते है। यह बुद्धि की क्रिया है। मन की क्रिया क्या है? भावना। यह भावना ही बुद्धि को भी प्रभावित कर सकती है, उसे तीव्र बना देती है। अभ्यास करने की भावना आना भी मन का भाव है। मन ही असंभव को संभव बना सकता है।

एक सुन्दर गाना है – मन रे तू काहे ना धीर धरे…, बस, मन थोड़ा धैर्यवान हो जाये।

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय॥

इस मन को भी नन्हे बालक की तरह थोड़ा समझाना है कि हर बात में अधैर्य मत कर, जल्दबाजी मत कर। सब कार्य अवश्य होंगे, समय पर होंगे, धैर्यशील मन की शक्ति से ही होंगे। इसलिये मन को बार-बार रोकना पड़ता है, टोकना पड़ता है। रोज एक घण्टे मौन रहकर अपने मन को समझाओं, अपने मन में मंथन करो, अपने मन में चल रहे युद्ध को देखों और अपने मन के देवों को विजय दिलाओं।

मन से ही ईश्‍वर जाग्रत हो सकता है और मन से ही घृणा का दानव जाग्रत हो सकता है।

यदि तुम अपनी स्वयं की पहचान जानना चाहते हो, जो पहचान किसी को पता नहीं है वह पहचान तुम्हारा मन है।

इस मन की धारा को देवत्व की ओर जोड़ो, जिससे ईश्‍वर ने जो यह जन्म देकर उपकार किया है, उस उपकार को घर-परिवार समाज में प्रेम, दया, सद्भावना, आशा, शांति, सहानुभूति, कृतज्ञता, उदारता, सत्य, करुणा और विश्‍वास के रूप में वितरित करो।

मन से ही इस मनुष्य जीवन को सार्थक करना है, जीवन है तो सार्थक होना ही चाहिये।

गुरु तुम्हारे साथ खड़े है, उन्हें तुम्हारे मन की धारा में उतरने दो, मन का प्रवाह विशाल हो जायेगा, श्रेष्ठ हो जायेगा, आखिर इस मन को विलीन तो ईश्‍वर के सागर में ही होना है। जिसे क्षीर सागर कहते है। उस क्षीर सागर तक की यात्रा प्रसन्न मन से हो, चिन्ता रहित हो।…

-नन्द किशोर श्रीमाली

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