Dialogue with loved ones – July 2021
अपनों से अपनी बात…
प्रिय आत्मन्,
शुभाशीर्वाद,
गुरु पूर्णिमा के पावन पर्व पर आप सभी को बहुत-बहुत बधाई और आशीर्वाद। इस बार भी गुरु पूर्णिमा आप सभी अपने घरों में गुरु की आत्मिक अनुभूति एवं उपस्थिति के साथ सम्पन्न कर रहे है। पूरे मनोयोग और प्रेम के साथ इस महापर्व को अवश्य सम्पन्न करना।
तुम मुझसे जुड़े हो, मैं तुमसे जुड़ा हूं यह जुड़ने की क्रिया अब ऐसी हो गई है कि एकाकार हो गये है। तुम मुझमें, मैं तुममें हो गया हूं।
रामचरित मानस का एक प्रसंग याद आता है जब हनुमान अपनी शक्ति भूल जाते है तब जाम्बवंत उन्हें याद दिलाते है कि राम के कार्य के लिये ही तुम्हारा जन्म हुआ है।
कहइ रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेहु बलवाना ॥
पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना ॥
कवन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं ।
राम काज लगि तव अवतारा। सुनतहिं भयउ पर्बताकारा ॥
तुम पवन पुत्र हो, बल में पवन के समान हो। बुद्धि, विवेक, विज्ञान की खान हो। जगत में ऐसा कौनसा कठिन काम है जो तुमसे नहीं हो सकता है?
मैं भी तुम्हें यही कह रहा हूं कि कोई भी काम तुम्हारे लिये कठिन नहीं, मुश्किल नहीं, असंभव नहीं है क्योंकि तुम्हारा जन्म ही किसी विशेष निमित्त से हुआ है।
तुम्हारा जन्म निखिल कार्य के लिये हुआ है। तुम अपनी शक्ति को भूल गये हो इसलिये मैं इस गुरु पूर्णिमा पर, हर गुरु पूर्णिमा पर तुम्हें बार-बार याद दिलाता हूं कि तुम समर्थ हो, तुममें सामर्थ्य है। तुममें बुद्धि है, विवेक है, ज्ञान है। तुम राम के हनुमान हो।
तुम्हारे जीवन के लक्ष्य निश्चित है। तुम्हारी नियति स्वयं विधाता ने विशेष कार्य के लिये लिखी है और तुम अपने मजबूत कदमों से उसी निखिल मार्ग पर चल रहे हो, गुरु रूपी लाठी का सहारा लेकर। है ताकत तुम्हारे कदमों में, है बल तुम्हारी भुजाओं में, है शक्ति तुम्हारे मन में, हृदय में। फिर किस बात की परवाह, किस बात की चिन्ता?
बांधो न नाव इस ठांव बंधु, पूछेगा सारा गांव बंधु ॥
बस इतनी सी ही बात है इस निखिल घाट पर, गुरु घाट पर तुमने अपनी नाव को लगा दिया है। अपने हृदय में निखिल को, गुरु को बैठा दिया है। बस सारा समाज, सारे लोग तुमसे पूछते है कि अरे! बावले तुमने यह क्या कर दिया? तो बस इतना ही कहो कि
लाली मेरे गुरु की, जित देखूं तित लाल, गुरु देखन मैं गयी, हो गयी गुरु प्रेम से मालामाल ॥
जब गुरु के प्रेम रंग में तुमने अपने आपको सराबोर करने का निश्चय कर लिया है तो फिर भींगने से क्यों डरते हो? गुरु के आगोश में आकर भी क्यों विचलित रहते हो? समर्पण किया है तुमने, प्रेम किया है तुमने। अपनी आत्मा के तार जोड़े है तुमने। आत्मा का मिलन हुआ है।
एक हुए है गुरु और शिष्य यही बार-बार याद दिलाने के लिये आया है पर्व गुरु पूर्णिमा।
एक बात स्पष्ट कहूं याद करो, दुनिया ने कब तुम्हारा हौसला बढ़ाया? कब तुम्हें उड़ने की अनुमति दी? जहां तक हो सका तुम्हारे पंखों को काटने, छांटने का ही काम किया और ज्यादा से ज्यादा तुम्हें पिंजरे का तोता बना दिया। तुम तो अपनी पहचान ही खो बैठे थे।
गुरु आये जीवन में, गुरु ने तुम्हें बुलाया या तुम गुरु के पास आये अब यह प्रश्न ही बेमानी हो गया क्योंकि आपस में मिल ही गये है। किसने किस को बुलाया? बस मिल गये है।
और मिल गये तो जीवन के सारे गिले-शिकवे दूर हो गये और बन गया सम्बन्ध एक भरोसे का, एक विश्वास का। ऐसा अटूट सम्बन्ध जिसे दुनिया की कोई ताकत तोड़ नहीं सकती है। जो मन में बसा है गुरु, उस गुरु को कौन सी आसुरी शक्ति तुमसे अलग कर सकती हैं
चाहे प्रहार करे हजार असुर, एक शक्ति ही पर्याप्त है सब असुरों का वध करने के लिये और उसी शक्ति के तुम साधक हो, उपासक हो। उसी शक्ति का भाव मैं तुम्हारे भीतर निरन्तर और निरन्तर भरता हूं।
दी है दुनिया ने तुम्हारे मन में हजारों गांठें और उन गांठों में उलझ कर रह गया है तन-मन।
मैं गुरु रूप में खोल रहा हूं, तुम्हारे मन की सारी गांठें। तुमने जो समर्पण किया है, प्रेम किया है तो मेरा भी प्रेम समर्पण है। यही प्रेम है कि तुम्हारे मन के अमृत कलश को छिद्र रहित कर उसे अमृत कुण्ड बना दूं। तुम्हारे मन की गांठें खोलकर तुम्हें तुम्हारे स्वतंत्र व्यक्तित्व से तुम्हारा परिचय करा दूं। बस एक बार तुम अपने आपसे अपना परिचय कर लेना क्योंकि तुम हुनमान हो, शिष्य हो, स्वतंत्र व्यक्तित्व हो।
तीन लोक नौ खण्ड में, गुरु से बड़ा न कोय ।
करता जो न करि सकै, गुरु के करे सों होय ॥
विधि के विधान से तुम बंधे हुए नहीं हो, तुम्हारे प्रारब्ध को तुम बदल सकते हो, तुम्हारे कर्मफल को तुम सुकृति में अवश्य ही परिवर्तित करोंगे।
वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ ।
निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा ॥
यही तो तुम चाहते हो कि तुम्हारे सारे कार्य निर्विघ्न पूर्ण हो। मैं कहता हूं कि अवश्य पूर्ण होंगे। पूर्णमदः पूर्णमिदं… के लिये ही तुम्हारा जीवन सज रहा है, संवर रहा है, निखर रहा है। बस तुम मेरा हाथ पकड़ कर चलते रहो। एक बात और, कहीं लिखा था कि –
शिवे रुष्टे गुरुस्त्राता गुरुौ रुष्टे न कश्चन ।
लब्धवा कुलगुरुं सम्यग्गुरुमेव समाश्रयेत् ॥
अरे भाई! आपके इस गुरु ने अपने शिष्य से रुष्ट होने का अधिकार ही छोड़ दिया है। किसी भी परिस्थिति में गुरु तुमसे रुष्ट नहीं होंगे।
प्रेम पर्व है गुरु पूर्णिमा, खोल दो अपने मन के द्वार
निखिल कल्पतरु तले आपकी सभी कामनाएं पूर्ण हो… सदैव खुश रहो…
-नन्द किशोर श्रीमाली
Coming soon…
Nand Kishore Shrimali