Dialogue with loved ones – February 2023
अपनों से अपनी बात…
मेरे प्रिय साधकों,
शुभाशीर्वाद,
चिदानन्द तुम हो, चिदानन्द मैं हूं,
शिव तुम हो, शिव मैं हूं
मुझमें तुम हो, तुममें मैं हूं
जीवन का नवरस तुम हो, नवरस में जीवन मैं हूं
पुष्पों का काम तुम हो, काम का अन्त मैं हूं
चिदानन्द तुम हो, चिदानन्द मैं हूं।
गुरु और शिष्य एक ही है, गुरु में शिष्य है, शिष्य में गुरु है। ठीक वही बात है शिव में आप हो, आप में शिव है। इसीलिये शिव मंत्र को महामंत्र कहा गया है। जो जीवन के सारे रहस्यों को समेटे हुए है और जिसे समझ लेने से जीवन के सारे रहस्य स्पष्ट हो जाते है।
महामृत्युुंजय मंत्र के तीन चरण है –
त्र्यम्बकम् यजामहे – प्रथम चरण
सुगन्धिं पुष्टि वर्धनम् – द्वितीय चरण
ऊवारुकमिव बन्धनान् मृर्त्योर्मुक्षीय मामृतात् – तृतीय चरण
इसी त्र्यम्बक तत्व में सत्व, तम और रज है। पोषण तत्व और सुगन्ध तत्व को गुरु रूपी शिव, शिव रूपी गुरु अपने भक्त शिष्य साधक के देह, मन, प्राण, आत्मा में शक्तिपात द्वारा स्थापित करते है। उसे पुष्टि प्रदान करते है। उसके भय का नाश करते है।
तो हमारा चित्त है ‘मंत्र’ और प्रयत्न है ‘साधक’। प्रत्यन का अर्थ है चित्त के चक्र से बाहर निकलने का प्रयास करना। जो बाहर निकलने की चेष्टा कर रहा है वह साधक है। मनुष्य तो पूरे जीवन अपने चित्त को बांधने में ही लगा रहता है। उस चित्त पर हजारों रंग चढ़े हुए है और आकांक्षा कामना है सुगन्ध की, पुष्टि की, कल्याण की और तीसरा महत्वपूर्ण सूत्र है – बंधनों को काटने का।
तीनों एक दूसरे से जुड़े हुए है। जब तक चित्त के बंधन काटने का प्रयत्न नहीं किया जायेगा तब तक चित्त पटल पर अंकित रंगों को ही हम जीवन का रंग समझने लगते है और उन रंगों को गहरा और गहरा करते रहते है। इसीलिये किसी क्षण दुःखी होते है और किसी क्षण सुखी अनुभव करते है। ऐसा सुख भी क्षणिक है, ऐसा दुःख भी क्षणिक है।
शिव सूत्र और इस महामृत्युंजय मंत्र का गहरा भाव है मन ने तुम्हें नहीं पकड़ा है मन को डर के कारण तुमने पकड़ा है और बड़ी जोर से पकड़ रखा है। चाहते हो जीवन में सुगन्ध, आनन्द, प्रफुल्लता और पकड़े बैठे हो मन को। तो इस आदत से छुटकारा पाने के लिये प्रयत्न चाहिये। इसीलिये गुरु आशीर्वाद में बार-बार कहा जाता है – ‘प्रयत्ना तु सफलता सन्तु…’। प्रयत्न करना है पूरे मन से। आधे मन से किये गये प्रयत्न का कोई अर्थ नहीं है। इसलिये जब गुरु का आदेश आता है कि ध्यान करो, साधना करो तो तुम कहते हो, बहुत मुश्किल है। एकाग्रता ही नहीं आती। जब ध्यान में, साधना में मन एकाग्र नहीं हो रहा है तो जीवन में छलांग कैसे लगाओंगे? क्रिया करनी है, शक्ति प्राप्त करनी है, शिवत्व प्राप्त करना है तो एकाग्रता चाहिये।
एकाग्रता का अर्थ है – मन के चक्र से बाहर निकलना क्योंकि यह मन तुम्हें सुविधापूर्ण स्थिति में ही जीने देना चाहता है।
तुम शिव हो, शिव तुममें है और शिव है तो वहां शक्ति है और इस शक्ति के तीन स्तर है – पहला स्तर है जो दैनिक क्रियाकलाप के लिये, नौकरी-व्यापार के लिये। यह शक्ति का दसवां हिस्सा भी नहीं है क्योंकि यह शक्ति बाह्य शक्ति है। अब इस बाह्य शक्ति को आन्तरिक शक्ति के खजाने की ओर ले जाना है। तो उसके लिये माध्यम है ध्यान, साधना, एकाग्रता। उसके लिये प्रयत्न तो करना ही पड़ेगा। इसीलिये साधक का अर्थ है प्रयत्न। पहले तल से दूसरे तल पर पहुंचने के लिये आलस्य का त्याग करना पड़ेगा। महत्ती प्रयत्न करना पड़ेगा।
सरल शब्दों में कहूं तो , पहला तल है – आपका मन। दूसरा तल है – आपकी आत्मा और तीसरा तल है – परमात्मा अर्थात् शिव।
पहले तल से ओर गहरे जाओंगे तो आत्मा का तल प्राप्त होगा और फिर उससे भी गहरे जाओंगे तो परमात्मा का तल प्राप्त होगा। वहां विराट् ऊर्जा का भण्डार है। शिव और शक्ति का भण्डार है और वह कभी खाली नहीं होती लेकिन वहां पहुंचा जा सकता है केवल और केवल प्रयत्न द्वारा। केवल मन से नहीं पहुंच सकते, क्योंकि मन तो गोल-गोल वर्तुल रूप में घूमने वाला है।
इस मन को शरीर, आत्मा और परमात्मा के स्तर पर यात्रा कराने का उपाय है, गुरु।
गुरु का अर्थ है, जिसने अनुभव किया है, जिसने जाना है, जिसने परमात्मा के स्तर को अनुभव किया है। परमात्मा के तल तक पहुंचा है।
जब शिष्य को जानकारी नहीं है तो वह अंधे मार्ग पर चलकर दिशाहीन हो सकता है। इसीलिये गुरु को धाराण किया जाता है। इसके लिये खोजना पड़ता है जीवन्त जाग्रत व्यक्ति को। अब मन बड़ा ही विचित्र है, वह जीवन्त व्यक्ति को गुरु मानने में सहज स्वीकार नहीं करता। इसीलिये ज्यादात्तर साधक शास्त्र में रुचि लेते है और जब शास्त्र पढ़ते-पढ़ते थक जाते है तब जाते है गुरु के पास लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है क्योंकि मन की आंखों पर किताब के द्वारा, शास्त्र के द्वारा एक चश्मा लगा दिया है कि किताब में पढ़ लिया उसके अनुसार गुरु ऐसा होना चाहिये और जब ऐसा नहीं होता है तो बड़ी बेचैनी होती है।
मूल बात यह है कि हर गुरु पृथक है, भिन्न है अपने आप में अद्वितीय व्यक्ति है तो गुरु के खोजने के लिये अपने सिद्धान्त लेकर मत जाना। अपने नापने-तौलने का हिसाब-किताब लेकर मत जाना। सीधे हृदय से हृदय को मिलने देना। गुरु की पहचान हृदय से होती है, बुद्धि से नहीं और जब मेल होता है तो एक क्षण में ही हो जाता है।
गुरु का ज्ञान तुम्हें वर्तमान में रखता है। अतीत खो गया है, उसका बोझ व्यर्थ का बोझ है, भविष्य अभी आया नहीं और आप उसे अभी ला नहीं सकते हो। वर्तमान आपके सामने है, यही सत्य है।
जो वर्तमान में जीता है, वह अपने जीवन को शिवमय बना देता है। उसके भीतर परमात्मा की शक्ति प्रस्फुटित हो जाती है और वह स्वप्न का त्याग कर अपने वर्तमान को सुगन्धमय, पुष्टिमय, बनाने के लिये तत्पर हो जाता है।
-नन्द किशोर श्रीमाली
Coming soon…
Nand Kishore Shrimali