Dialogue with loved ones – February 2022

अपनों से अपनी बात…

मेरे प्रिय आत्मन् शिष्य,

शुभाशीर्वाद,

बासन्तीय ॠतु चल रही है। पतझड़ समाप्त हो रहा है, अब फिर नई कोपलें उभरेगी, नये पुष्प खिलेंगे। विशेष प्रकार की सुगन्धित वायु का प्रवाह भूमण्डल पर होगा। यह तो वातावरण है और जैसा वातावरण होता है, उसी के अनुसार मन की गति पर भी प्रभाव पड़ता है।

एक साधक ने मुझसे पूछा कि गुरुदेव! मैं नियमित रूप से रुद्राक्ष माला से ‘महामृत्युंजय मंत्र’ ॐ ह्रौं जूं सः, ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥ का नियमित रूप से जप करता हूं लेकिन न तो मेरी देह में कोई सुंगन्ध है, न पुष्टि, इसका क्या कारण है?

देखो, सबसे पहले तो तुम्हें किसने कह दिया कि तुम्हारे जीवन में सुगन्ध नहीं है। तुम्हारी जीवन सुगन्धित नहीं है। तुम पुष्ट नहीं हो। जिस प्रकार नवजात बालक सुगन्धित होता है, उसी प्रकार प्रत्येक मनुष्य में एक विशेष सुगन्ध होती है और शरीर का यह क्रम है कि उसमें निरन्तर और निरन्तर पुष्टता आती है।

तुम वास्तव में सुगन्धित हो, पुष्ट हो, हां तुम्हारी ग्रहण शक्ति, अवश्य ही कमजोर हो गई है। इसलिये तुम अपने स्वयं की सुगन्ध को अनुभव नहीं कर पा रहे हो। इसका एक ही कारण है कि तुमने अपने मन पर अनावश्यक बोझा डाल दिया है और निरन्तर और निरन्तर डालते ही जा रहे हो। अब इतने बोझ के तले जो सुगन्धित मन महक रहा है, उसका अनुभव कैसे होगा? तुमने तो अपने सुगन्धित मन को एहसासों, अनुभव के बोझ से ढक दिया है। इसलिये जब तुम मंत्र जप करते हो तो तुम्हारा ध्यान अपने मन की ओर नहीं होकर कहीं ओर होता है। बस इतना करो मंत्र जप के साथ यह भावना रहे कि मैं सुगन्धित हूं, मैं पुष्टिवर्द्धक हूं, मैं वृद्धि की ओर अग्रसर हूं। अपने मन में खिल रहे पुष्प की, हृदय कमल की गंध को तुम स्वयं अनुभव करने का प्रयास करो और उसके लिये एक ही उपाय है मन पर पड़ा अनावश्यक बोझ हटा दो।

प्रार्थना करते हो, पूजा करते हो तो केवल यही प्रार्थना मत करो कि संसार के सब सुख मुझे मिल जाये, मैं निरामय रहूं। प्रार्थना करो तो इस प्रकार करो –

सर्व भवन्तु सुखिन सर्वे सन्तु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्‍चित् दुःख भाग्भवेत्॥

यह निश्‍चित है कि ईश्‍वर को अर्पण की गई कोई भी प्रार्थना व्यर्थ नहीं जाती है। ईश्‍वर सब प्रार्थनाओं को स्वीकार करता है और उसमें अपना आशीर्वाद देकर उन प्रार्थनाओं को फल सहित पुनः तुम्हारे भीतर भेज देता है।

इसलिये ईश्‍वर से व्यापक प्रार्थना करो, यह प्रार्थना करो कि केवल मैं ही नहीं, मेरे आसपास के सभी लोग सुखी हो, सभी लोग प्रसन्न हो। बस इस प्रार्थना से मन में व्यर्थ के भाव क्रोध, ईर्ष्या, तुलना सब समाप्त हो जाते है।

जानते हो प्रसन्नता को मारने वाला सबसे बड़ा तत्व क्या है, ‘तुलना’। तुम सुखी हो, तुम प्रसन्न हो लेकिन जैसी ही तुम किसी ओर से अपनी तुलना करने लग जाते हो तो दुःखी हो जाते हो। क्यों भाई! क्या आवश्यकता है तुलना करने की। जो तुम हो, तुम वही रहोगे। जो तुम सोचते हो, वैसे ही तुम बनोगे। तुम्हारे जैसा तो ब्रह्माण्ड में ईश्‍वर ने किसी ओर को बनाया ही नहीं है। तो फिर क्यों अपनी तुलना, अपने आस-पास के लोगों से, अपने रिश्तदारों से अथवा अपने सहकर्मीयों से करते हो। तुलना प्रसन्नता को मार देती है। प्रसन्न होना जीवन का लक्ष्य नहीं है, प्रसन्न होना तो नित्य का व्यवहार है। अब इस नित्य व्यवहार के लिये, प्रसन्नता के लिये जैसे शरीर को स्वच्छ करते है वैसे ही मन को भी स्वच्छ करना पड़ेगा। तुम स्वयं दृष्टा हो, देखों। मेरे मन पर किस प्रकार के विचारों का प्रवाह हो रहा है और ये विचार कैसे है? इनका विश्‍लेषण करोगे तो जो कांटे समान विचार है जो तुम्हें चुभते रहते है उन्हें तुम स्वयं के प्रयत्नों से हटाओंगे।

वैसे प्रकृति का स्पष्ट नियम है गुलाब के पुष्प के साथ डाली में कांटे भी होते है लेकिन जब हम किसी को पुष्प भेंट करते है तो उन कांटों को हटा देते है और सुगन्ध तो पुष्प में ही आती है। तो फिर अपने मन को जो विचार भेजों वे पुष्प समान कोमल और सुगन्धमय हो। अपने मन में तीखे कांटों वाले विचारों को ईर्ष्या, द्वेष के भावों वाले विचारों को, तुलना वाले विचारों को क्यों भेज रहे हो?

और मन क्या है? मन तो विचारों का समूह है, यह मन हृदय की तरह एक स्थान पर उपस्थित तो है नहीं। यह तो पूरी देह में व्याप्त है। बुद्धि में व्याप्त है। विचारों में व्याप्त है, शरीर के रोम-रोम में व्याप्त है, इसीलिये जब तुम मन से प्रसन्न होते हो तो शरीर का रोम-रोम प्रसन्न होता है और जब दुःखी होते हो तो शरीर का रोम-रोम व्यथित होता है।

तो मेरे मित्र! विचारों का समूह यह मन उलझ गया है। कोई बात नहीं, उलझ गया है तो सुलझा भी देंगे। हर उलझन को सुलझा सकते है तो फिर विचारों की उलझन को भी सुलझा सकते है। जैसे विचार सुलझे हुए उन्नति को लाते है, तुम्हें एकाग्र रखते है, सब ओर से प्रसन्नता देते है। इसलिये अपने व्यवहार को, भाव को, विचारों को सरल रखों।

अब इसके लिये तुम्हें अपनी आन्तरिक शक्ति का ही प्रयोग करना पड़ेगा। सोचों कि शक्ति का उपयोग मुझे अपने जीवन में सुलझाने के लिये करना है या शक्ति का उपयोग व्यर्थ की उलझनों के लिये लगाना है।

विचार ही जी का जंजाल बनते है और विचार में ही वह शक्ति होती है कि जंजालों से कैसे मुक्त हो?

एक बात कहूं परिस्थितियां कुछ भी हो वे सुलझने का कोई न कोई मार्ग निकाल ही देती है। यदि तुम परिस्थितियों पर हावी नहीं हुए तो परिस्थितियां तुम पर हावी हो जायेगी। तुम्हारा जीवन परिस्थितियों का घटना क्रम बन जायेगा। इसलिये अपने निर्णय स्वयं लो। तुम्हारे निर्णय ही तुम्हारे भाग्य को निर्धारित करते है।

जीवन ईश्‍वर का एक उपहार है, जो हमें विशेष अधिकार, अवसर और जिम्मेदारियां देता है कि हम बड़े होकर दूसरों को भी यही प्रदान कर सके।

महाशिवरात्रि आ रही है, तो मन के भावों का अभिषेक शिव पर कर दो। यह समझो कि जो कुछ है शिव का है, मैं शिव का हूं, शिव मेरे है। यही परम आनन्द की अवस्था है और इसी मार्ग पर तुम्हें मेरे साथ चलना है।

-नन्द किशोर श्रीमाली

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