Dialogue with loved ones – February 2021

अपनों से अपनी बात…
प्रिय आत्मन्,
शुभाशीर्वाद,

तमादिमध्यान्तविहीनमेकं विभुं चिदानन्दरूपमद्भुतम्।
उमासहायं परमेश्‍वरं प्रभुं त्रिलोचनं नीलकण्ठं प्रशान्तम्॥

शिव आदि, मध्य और अन्तहीन है, रुपहीन है, शिव एक ही है – अद्वितीय है, चिदानन्द हैं। शिव अद्भुत हैं, देवेश हैं। सदाशिव उमासहचर त्रिलोचन नीलकण्ठ परमेश्‍वर है अर्थात् जो निराकार है, वही साकार है। इसी कारण शिव अद्भुत हैं।

शिव लीन है, शिव तपस्यारत है, शिव अपने तीसरे नेत्र से जगत का सारा क्रियाकलाप, सारी प्रक्रिया देख रहे हैं। हर क्षण साक्षीभूत है।

इस जीवन में सबसे बड़ी क्रिया साक्षीभूत भाव से रहते हुए, सारे क्रियाकलाप करते हुए, सब कुछ देखते हुए, अपने आपको शांत रखते हुए अर्थात् निर्विकार रहते हुए उस पारमेष्ठि गुरु शिव से निरन्तर और निरन्तर आत्मिक, मानसिक और बौद्धिक योग करना है, जिससे मन शांत हो सके।

मैं कैसे शांत रहूं, मैं तो जीवन में क्रियाशील हूं? क्रियाशील व्यक्ति ही तो विचलित और अशांत होता है। क्या मेरा अशांत होना प्रकृति के अनुकूल है या प्रतिकूल?

ये प्रश्‍न तुम सबके दिमाग में बार-बार आते है और तुम जानते हो कि तुम्हारी सबसे बड़ी मनोकामना क्या है? क्रियाशील भी रहूं और शांत भी रहूं। दोनों एक दूसरे के विरुद्ध नहीं है। दोनों का समायोजन सही रूप से हो सकता है। क्रिया अर्थात् लीला।

ईश्‍वरीय लीला का क्या अर्थ है? ईश्‍वरीय लीला का अर्थ है प्रकृति, और प्रकृति का अर्थ है जो इस सृष्टि में कृति से पहले था, है और रहेगा। सृष्टि में जो सर्वविद्यमान है उसे प्रकृति कहा गया है। आपके पास एक चेतन मन है, अचेतन मन है और उस मन का इस ईश्‍वरीय प्रकृति के साथ एक सन्तुलन बनाना है।

सन्तुलन के लिये पहली क्रिया है – जागना। सोकर उठते हो वह जागना नहीं, नींद से जागते हो वह जागना नहीं। जागते हुए जागना और जिस दिन जागते हुए जाग जाओंगे उस दिन मन के भीतर के दरवाजे की कुंजी मिल जायेगी और एक आणविक विस्फोट की क्रिया प्रारम्भ हो जायेगी। शक्ति का अजस्र प्रवाह प्रारम्भ होगा, जो निरन्तर सतत् होगा। सतत् क्रिया होगी।

इसके लिये भी चेतन मन से अचेतन मन में, अचेतन मन से अन्तःर्मन में गहरे-गहरे उतरना पड़ेगा। तब आपके मन की सारी शाखाएं उस प्रकृति, ईश्‍वरीय लीला के साथ सम्बन्ध जोड़ देगी।

इसी को चेतना कहा गया है, समाधि कहा गया है, योग कहा गया है, ध्यान कहा गया है, अपनी प्रकृति के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ना और शांत मन से इस अशांत संसार में क्रियाशील होना।

आप मुझसे पूछते हो कि – गुरुदेव मैं क्या प्रार्थना करूं? क्या पूजा-साधना करूं? क्या ध्यान करूं? तीनों में कोई भेद नहीं है, एक के बाद दूसरे का उपक्रम है। प्रार्थना किससे की जाती है, ईश्‍वर से और उसका उद्देश्य है कि मैं हर समय सर्वशक्तिमान ईश्‍वर को धन्यवाद दूं जो मेरे मन मस्तिष्क को जगाता है।

प्रार्थना का अगला उपक्रम पूजा और साधना है। इसमें आप अपनी आन्तरिक शक्तियों को जाग्रत करने के लिये निरन्तर प्रक्रिया को सम्पन्न करते है। अपने मन, वचन, वाणी में एक वर्तुल प्रवाहित करते है, एक चक्र गतिशील करते है, जिससे आपकी शक्ति आपके शिव भाव के साथ जुड़ कर आपको क्रियाशील बना दे। जिससे इस जगत के सारे कार्य आप अपनी शक्ति से सम्पन्न कर सके।

प्रार्थना, पूजा से आगे का उपक्रम ध्यान है। ध्यान के माध्यम से शरीर की जागरुकता और मन की जागरुकता की ओर अपने आपको केन्द्रित करना है। मन जागा हुआ है, तन तो जाग्रत है। ध्यान में श्‍वास-प्रश्‍वास को शरीर के प्रत्येक अंग पर ध्यान देने के लिये निर्देशित करना है। ध्यान का अर्थ है कि हम अपने शरीर के प्रत्येक अंग, प्रत्यंग से जुड़कर स्वयं को भीतर की ओर ले जाएं।

प्रार्थना और पूजा – साधना तो आपका ईश्‍वर से वार्तालाप है। आप ईश्‍वर से निवेदन कर रहे है, अपनी बात कह रहे है और ध्यान के क्षणों में ईश्‍वर का आपके साथ वार्तालाप है जब ईश्‍वरीय शक्ति आपको निर्देश देती है। ईश्‍वर अपनी बात आपको कहते है।

अपने भीतर के साथ सम्पर्क ध्यान के माध्यम से ही संभव है और ध्यान आपकी रचनात्मक शक्ति, एकाग्रता को विस्तार करने का माध्यम है। ध्यान मस्तिष्क में, मन में छाएं झंझावत को शांत कर आपको सही उचित दिशा प्रदान करता है।

पूजा-प्रार्थना, साधना और ध्यान अलग-अलग नहीं है। एक-दूसरे के पूरक है, सहयोगी है। एक के बाद दूसरी और दूसरी के बाद तीसरी स्थिति है। ध्यान अर्थात् एकाग्र होना। जब उस ध्यान में आप अपने जीवन के तार्किक विचारों को सन्तुलित कर सकते है।

कैसे करें यह सब? याद रखना जीवन में ऊपर जाने का मार्ग मन की अतल गहराईयों में उतर कर ही मिलता है अर्थात् ऊपर जाने के लिये पहले नीचे जाना पड़ता है। पहले मन में गहरे उतरना, ईश्‍वर से वार्तालाप होगा। सीधा ऊपर जाने का प्रयास न करे, पहले मन के भीतर प्रवेश करे, वहां बहुत दल-दल है। उस दलदल से अपने आपको विमुक्त करना है।

एक दिन में नहीं होगा, दस दिन में भी नहीं होगा, पर वह पहला दिन कौन सा है, वह पहला दिन आज है और आज का भी समय कौनसा? जब आप अपने आपको ईश्‍वर को धन्यवाद देने के लिये, उसकी वाणी सुनने के लिये स्वयं को तत्पर कर देंगे। इस विचार के साथ ध्यान में बैठेंगे कि आज ईश्‍वर, गुरु मुझसे वार्तालाप करेंगे। आपका वार्तालाप अवश्य होगा।

आप गुरु से, ईश्‍वर से सहयोग करे। ईश्‍वर से, गुरु से आपको सहयोग और निर्देश अवश्य ही प्राप्त होगा। शांत मन से उनकी ध्वनि को सुनें।

शिवोऽहम्… शिवोऽहम्… शिवोऽहम्…

-नन्द किशोर श्रीमाली

My dear disciple,

Divine blessings

तमादिमध्यान्तविहीनमेकं विभुं चिदानन्दरूपमद्भुतम्।

उमासहायं परमेश्‍वरं प्रभुं त्रिलोचनं नीलकण्ठं प्रशान्तम्॥

This shloka attempts to scratch the surface of the magnificence of Shiva.

Shiva is the creator of this universe. He is the ultimate reality and in him both the Saguna and Nirguna Brahma reconcile. Though Shiva has created the world, Shiva is detached from it. He is watching over it, not with indifference but with compassion and infinite love. The love of Shiva is infinite and this attribute of his makes him unique, incomparable to any other gods. Apparently, Shiva seems to have renounced the world as he is involved in tapa, but he is keeping a watchful eye over the whole cosmos. He is ever-present with everyone in this world. He is in the moment. He is the moment in which the whole world exists.

Yet, he is not affected by it. This is why Shiva is called maha yogi — the unaffected one. The essential challenge of our existence is to find the balance between passion and impassion; attachment and detachment. Shunning the world has never been the solution. Getting engrossed in the world entirely will allow emotions to disturb our peace and tranquillity at its will.

We live in a desire-driven world. As long as we let the fulfilment of desires determine our state of the mind, we will be far from contentment. Of course, there will be fleeting moments of happiness but we will never experience peace of mind. Maybe, that’s the reason we say, “Rest in peace.” for the departed souls, whereas the truth is that we should live in peace, just like Shiva!

At this point, you may be tempted to ask, “How do I live in peace?” I have not renounced the world. My world is shaped by material comforts. I have to work hard and earn money to provide for my family, which means I am in a state of unrest!

How can I be like Shiva? Unaffected, yet in this world.

The answer lies in watching your world whenever you can, or when it becomes mind boggling. Stepping back and watching it intently without judgement will facilitate neutrality in your thought process. You will still be doing your work intently but there will be a shift in your intensity.

The outcome will no longer drive you crazy. You are willing to accept it without fear or favour, anger or pleasure because now you are seeing the bigger picture. The way the world of Shiva functions.

This understanding of the workings of the world will cause a shift inside you. You will become more and more and more aligned with nature. Every lesson that you need to know to practice equanimity is in nature. However, we miss it.

When your mind gets in sync with nature it begins to understand the way energy functions at the atomic level. Fundamentally, there is no difference between nature and us. However, this truth reveals itself during the magical moments of meditation. When we meditate intensely, we RESET the thought process from the outside world to the world within. We become sensitive to our inner world.

Paying attention to our emotions and sentiments works in our favour. Instead of numbing them in noise and distraction, we start working on the negative emotions and cleansing them. This activity clears the deep-seated emotional baggage lying in us. As our emotions purify, our focus sharpens and we are able to work without getting attached to it, like a true yogi.

Chanting mantras regularly during meditation brings positivity in our life and makes us calm and focused even amidst turbulence around us because now we have access to divine energy. Prayers also connect you to your inner world. Then, you are not sure what path to follow? And, in these moments of confusion you ask me, ““Gurudev! What prayer should I chant?” “What mantra should I recite?” “How should I meditate?” If you ask me, none of these is different from each other. As you graduate from one step to another it comes naturally to you.

Prayer is you reaching out to the divine. Here, you are doing the talking. You are asking for His grace. Therefore, while concluding prayers devotees raise their hands high up in the sky because they want to come in the fold of His grace.

As your devotion matures you will tie your emotions to a particular deity. Now you are entering into an exclusive zone. Earlier it was a no-strings-attached relationship but now you have placed your faith in a particular deity. The third step is the meditative zone.

Here, you are accessing your inner peace to become whole once again. It is like completing the circuit of energy — filling in the cracks in your aura through which energy was leaking. The meditative zone has a calming influence on you. Now, you have attained the state where you are beyond appreciation and criticism. You work to fulfil yourself. You are present in every moment.

Your sensitivity begins to expand and you start appreciating nature and get in a harmonious relationship with your inner world.

Through meditation you will start to reclaim your inner peace. As they say, “ It is all in mind.” The noise outside will not disturb you till your inner world is calm and tranquil. Since we exist in our thoughts, in our minds, we need to keep it clutter-free. Hence, all those emotions that can disturb your equanimity count as clutter, such as anger, retribution, jealousy, competition, guilt, pain.

For a calm and peaceful mind, you need to love yourself first without any caveats. Paying attention to your breath will get you in that zone. With every inhalation, we breathe in life, and with every exhalation, we breathe out a part of ourselves. In the stillness of meditative silence, we bring back our focus to our breath and awaken ourselves to the voice of the divine.

As the feeble inner voice begins to gain strength and power suddenly the purpose of our life reveals itself to us. Because now we are listening to the divine. We are letting the universe talk to us by removing the burden of our desires. We are no longer asking. Instead, we are forthcoming.

Re-engineering your inner world will take time. You have to be patient with your meditative practices. Maybe, the initial days would be tough. Your mind would wander in all conceivable places during your meditation. Chanting mantras and prayers can deepen the focus of your wandering mind. A beginner in mediation should pursue them as complementary practices.

As your concentration deepens you can access the inner reserve of your energy. In those moments of stillness the distinctions between the Shiva and you will blur and you will unite with him. But, be patient with yourself because such a phenomenal development does not happen in a day. It takes time and practice.

Be regular with your meditation. Whatever method you have adopted, continue with it.. If you are comfortable chanting a mantra do chant it at the appointed hour. Your objective is to enter the deeper recesses of your consciousness. You want to access your inner peace. You want to go beyond the noise and clutter of everyday existence and tap into the supernatural energy to create magic in your life.

Yes, you can do all of these things by sharpening your focus. Meditation is your ally. Prayer is the medium and the Guru is there to guide you because the Guru knows the right path. He knows how to remain calm in a noisy world and he is going to teach you that. Follow his advice. Be patient and persistent and you will experience magic.

Nand Kishore Shrimali

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