Dialogue with loved ones – August 2023

अपनों से अपनी बात…

मेरे प्रिय साधकों,

शुभाशीर्वाद,

    श्रीराममय निखिलमय दिव्य वातावरण में गुरु पूर्णिमा महोत्सव सम्पन्न हुआ। आप हजारों-हजारों की संख्या में श्रीराम की नगरी अयोध्या आये। गुरु प्रेम से आये, राम प्रेम से आये। मां सरयू की कृपा से आये। आप सभी को मेरा बहुत-बहुत आशीर्वाद।

    थकान, कष्ट, अवसाद, पीड़ा, विश्राम सब भूल गये थे क्योंकि आपके मन में श्रीराम बस गये थे, जो सदैव शक्ति से युक्त है। आपके मन में गुरुतत्व स्थापित हो गया था, निखिल तत्व स्थापित हो गया था और जहां शिष्य के हृदय में गुरु तत्व स्थापित हो जाता है, श्रीराम तत्व स्थापित हो जाता है, वहां कैसा कष्ट, कैसी पीड़ा, कैसा अवसाद?

    एक विशेष बात है, हम सब सौभाग्यशाली है जिन्होंने अपने जीवन में राम मन्दिर का संघर्ष देखा, इन सब के उपरान्त भी मर्यादावान रहकर सत्य के मार्ग पर चलते हुए क्रियाशील रहे और इसी क्रियाशीलता का सुखद परिणाम है कि हमें हमारे श्रीराम मिले और अब हम और जोश से, गर्व से कहने मे समर्थ हुए है कि यह है हमारे आराध्य का दिव्य स्थान, जिनका मैं नित्य नमन करता हूं।

    यह कैसे संभव हुआ, संभव हुआ आपके भीतर स्थापित हुए सत्य के कारण, आपके भीतर बसे हुए राम की भक्ति के कारण और हजारों-हजारों साधु-सन्तों की अखण्ड तपस्या के कारण।

    सत्य कभी पराजित नहीं हो सकता, यह बात आज सिद्ध हुई है। सत्य के मार्ग पर चलने वाले को कुछ बाधाएं आ सकती है, क्योंकि सत्य का मार्ग सरल मार्ग नहीं। झूठ व्याभिचार, ईर्ष्या, द्वेष के संसार में सत्य को अपना मार्ग स्वयं बनाना पड़ता है, अपना निर्माण स्वयं करना पड़ता है और जब हम जीवन में कोई निर्माण करते है तो निश्चित रूप से कुछ बाधाएं अवश्य आयेंगी।

    सनातन धर्म का साधक, ब्रह्ममार्ग का साधक, परशुराम मार्ग का साधक, राम मार्ग का साधक, श्रीकृष्ण मार्ग का साधक, गुरु मार्ग का साधक कभी अपने सत्य पथ से विचलित नहीं होता। वह अपने जीवन में सदैव कर्म को धर्म का आधार मानकर क्रियाशील रहता है। इसीलिये हमारे यहां गृहस्थ को भी धर्म कहा गया है।

    एक बात आप विशेष रूप से ध्यान देना, दुष्ट प्रवृत्ति के लोग बलशाली नहीं होते है, वे छल-कपट से भरे हुए होते है वे भीतर ही भीतर डरे हुए, कमजोर होते है। उस प्रकार के छली-कपटी व्यक्तियों का बाह्‌‍य बल कितना ही विशाल क्यों न दिखाई दिया जाये, अपने मन में वे बहुत कमजोर होते है।

    रावण एक झूठ सत्य सिद्ध करने के लिये एक के बाद एक झूठ का आवरण ओढ़ता रहा। चाहे उसने कुबेर की नगरी छीनी। सीता का हरण किया या और दुष्टता के कार्य किये लेकिन उसके भीतर सत्य का भाव नहीं था। उसकी तपस्या अपने आपको शक्तिशाली दूसरों के सामने सिद्ध करने में लगी हुई थी। तो फिर उसका विनाश हुआ कि उसका गृह परिवार तो क्या पूरी नगरी ही भस्मीभूत हो गई।

    जब तक भीतर से सत्य भाव से तपस्या, साधना, पूजा नहीं की जाये तो वह पूजा साधना कैसे सिद्ध हो सकती है?

    देवता, ब्रह्म, परमात्मा का पूर्ण आशीर्वाद उन्हें ही प्राप्त होता है जो जीवन में अपने सत्य के सिद्धान्तों पर धीर और मर्यादा के गुणों को आत्मसात्‌‍ करते है और यह गुण, गुरुत्व भाव अपने भीतर आत्मसात्‌‍ करने से ही आते है। गुरु और अपनी आत्मा का मिलन ही साधना है। जिस क्षण यह मिलन होता है अनाहत चक्र, विशुद्ध चक्र, आज्ञा चक्र, सहस्रार चक्र चैतन्य हो जाता है और साधक परमानन्द की अनुभूति करता है।

    सबके सामने एक प्रश्न आता है कि हमारे सनातन संस्कृति में, हमारे धर्म में ऐसा क्या विशेष है जो लाखों-लाखों वर्षों से जीवन्त है। बहुत सरल रूप में समझाता हूं हम एक दूसरे से मिलते समय नमस्ते, नमस्कार बोलते है। गुरुजनों से मिलते समय प्रणाम बोलते है। आपस में मिलने पर राम-राम, जय श्रीकृष्णा और जय गुरुदेव बोलते है और जय-जयकार के बाद हम ‘हर-हर महादेव’ बोलते है। हे महादेव, हे शिव आप हमारे हो, मैं आपका हूं आप ही सर्व शक्तिमान हो, मैं अपने आपको समर्पित करता हूं। और यह कार्य हम अपने दोनों हाथ उठाकर हृदय से उच्चरित करते है। जो प्रभु का हो गया और जिसने प्रभु को, गुरु को अपना भार सौंप दिया वह अपने आप में पूर्ण हल्का हो जाता है और उस भक्ति भरे हृदय में ईश्वर, गुरु, सत्य, शक्ति का संचार अवश्य करते है। भक्ति से शक्ति मिलती है, यह बात ठीक इसी प्रकार है जैसे दूध में जल है, शरीर में जल है। रक्त कोशिकाओं में रक्त रूपी जल है। कभी भी भक्ति और शक्ति अलग-अलग नहीं हो सकते। दोनों सदैव संयुक्त है। जहां शक्ति, वहां भक्ति और जहां भक्ति वहां शक्ति।

    प्रत्येक निखिल शिष्य सनातन धर्म, संस्कृति का ध्वज वाहक है। हम जयश्रीराम, जयश्रीकृष्ण्ा, हर-हर महादेव, जय महाकाल बोलने वाले व्यक्तित्व है। यह हमारी सनातन संस्कृति का वाहक है।

    हमारी संस्कृति पर हजारों प्रहार धन लूटने या राज्य प्राप्त करने के लिये नहीं हुए, हमारी संस्कृति को नष्ट-भ्रष्ट करने के लिये हुए। आक्रान्ताओं की कोशिश थी हमारे धर्म के प्रति संशय, भ्रम फैलाया जाये।

    लेकिन क्या ऐसा हो सका?

    बिल्कुल नहीं, यह हो ही नहीं सकता है। हम उस संस्कृति के अनुगामी है जो प्रकृति की सारी लीलाओं में ईश्वर के ही दर्शन करते है। धरती को माता समान मानते है, आकाश को ब्रह्म समान, सूर्य को पिता समान, जल को वरूण देव समान, अग्नि को शक्ति स्वरूपा, और वायु को पवन देव के रूप में हम देखते है और हमारा यह अटल विश्वास है कि हमारे भीतर ही ब्रह्म का निवास है, परमात्मा का निवास है और हमारे अन्तर्मन से प्रकाशित परमात्मा के मार्ग पर, गुरु द्वारा निर्देशित मार्ग पर शौर्य भाव के साथ कर्म करें, यह हमारा अटल विश्वास है। दिव्य प्रार्थना है –

ॐ सह नाववतु, सह नौ भुनक्तु, सह वीर्यं करवावहै, तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै

    तुम्हें विश्वास है कि तुम गुरु के हो और गुरु को तो पूर्ण विश्वास है कि शिष्य गुरु का ही है। इसीलिये शिष्य को गुरु द्वारा सदैव पूर्णत्व का आशीर्वाद प्राप्त होता है।

पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्‌‍ पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवाव शिष्यते॥

    आप सभी अपने जीवन में सभी पक्षों में पूर्ण हो, कोई अपूर्णता नहीं रहे और सरस भाव से सत्य के मार्ग पर अपने जीवन में निरन्तर गतिशील रहो।

-नन्द किशोर श्रीमाली 

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