Dialogue with loved ones – August 2021

अपनों से अपनी बात…

मेरे प्रिय आत्मन् शिष्य, 

शुभाशीर्वाद,

गुरु पूर्णिमा का यह आनन्द पर्व पूरे संसार में, पूरे ब्रह्माण्ड में सम्पन्न हुआ। आकाश में, देवलोक में, देवों ने अपने गुरु की वन्दना की। पृथ्वी पर सभी शिष्यों ने अपने गुरु का पूजन किया और अपने माता-पिता की वन्दना की होगी, वे ही तो प्रथम गुरु है जिन्होंने जन्म दिया और उन्हीं के कारण हम यह अद्भुत स्वर्गमय संसार देख सके, इसे जी रहे हैं और अपने कर्मों के अनुसार अपने स्वयं के भाग्य का लेखन कर रहे हैं।

प्रिय शिष्यों, आपने भी अपने-अपने स्थानों पर सपरिवार, मित्र, स्वजन और गुरु भाईयों के साथ गुरु पूर्णिमा पर्व सम्पन्न किया। इस आपत काल में भी आपने पूर्ण आस्था, विश्‍वास और भरोसे के साथ यह महोत्सव, प्रार्थना, पूजा, ध्यान, यज्ञ से सम्पन्न किया।

आप सभी को बहुत-बहुत आशीर्वाद, आपकी सारी कामनाएं पूर्ण हो।

रहे निरन्तर शिष्य की प्रीत गुरु के प्रति।
यह अजब प्रीत है, शिष्य की गुरु के प्रति।
जग तो क्या सारी सृष्टि हिल जाये, प्रीत में जब भक्ति मिल जाये…

ऐसी प्रीत केवल और केवल एक प्रेम से आपूरित हृदय लिये शिष्य ही कर सकता है। जब प्रेम के साथ अपने आपको ही गुरु को अर्पित कर दिया है तो शेष क्या रह जाता है।

मनहिं दिया निज सब दिया, मन के संग शरीर।
मेल हो गया, गुरु-शिष्य का, ना रहा बीच लकीर॥

अब क्या लकीर बीच में, अब तो ऐसा हो ही गया है, न कोई शंका, न संदेह, पूर्ण भाव मिलन।

जल में कुंभ, कुंभ में जल है बाहर भीतर पानी।
फूटा कुम्भ जल जलहि समाना यह तथ कहयो गयानी॥

बड़े अजीब है शास्त्र, तीन ॠण – देव ॠण, मातृ-पितृ ॠण और गुरु ॠण के बारे में लिखते ही जा रहे है। अरे भाई गुरु के प्रति तो कोई ॠण होता ही नहीं है, गुुरु के प्रति तो श्रद्धा, विश्‍वास और प्रेम होता है। देना ही है तो प्रेम दो।

जहां प्रीत है, प्रेम है वहां ॠण कैसा? बिल्कुल बेमानी है।

आपके हृदय में, मन में, भाव में गुरु के प्रति जो प्रेम धारा बह रही है, वही पर्याप्त है। यह प्रेम ही सृष्टि का सबसे सुन्दर भक्ति गीत है। यह प्रेम बड़ा ही दीवाना होता है। ‘न कोई सुध और न कोई बुध।’

भक्ति रस से सराबोर मीरा उल्हाना देते हुए कह रही है –

जो मैं जानती प्रीत किये दुःख होय,
नगर ढ़िंढोरा पीटती प्रीत न करियो कोय,

पर अब क्या हो सकता है? शिष्य ने गुरु से प्रीत कर ली और गुरु ने शिष्य से प्रीत कर ली।

मोहे रंग दो लाल, मोहे रंग दो लाल
नन्द के लाल, बस रंग दो लाल
मैं तो रंगी हरी, हरि के रंग
देखूं देखूं तुझको हो के निहाल
मुझे रंग दो लाल

बहुत अच्छा हुआ जो तुम प्रीत के रंग में रंग गये, शिष्य हो गये, चतुर बुद्धिमान नहीं हुए। एक प्रेमी हृदय ही शिष्य हो सकता है। बुद्धिमान तो बार-बार देखता है , परखता है और वह इक्ठ्ठा क्या करेगा जीवन में कूड़ा, कर्कट, धन-सम्पदा और बुढ़ापे में सोचेगा कि मैंने यह जीवन बुद्धिमानी से जिया है और शिष्य तो रोज-रोज प्रेम से जीता है उसके पास है ‘प्रेम सम्पदा’ जो शाश्‍वत् है। उसे अपने हृदय में एकत्र करता है, उसमें वृद्धि करता है और उसे ही जगत में बांटता रहता है।

याद रखना शेष सब क्षण भंगुर है, प्रेम ही शाश्‍वत् है।

और क्या तरीका हो सकता है जीवन को श्रेष्ठतम् रूप से जीने का, एक ही तो मार्ग तुम्हारे गुरु जानते है और वही तुम्हें सिखा रहे है। वह तरीका है प्रेम, प्रीत, सहृदयता, सरलता। इसे जानने के लिये कोई बहुत मोटे-मोटे शास्त्र थोड़े ही चाहिये। इसे तर्क से थोड़े ही जाना जाता है। इसे तो हृदय से ही जाना जा सकता है।

केवल शिष्य ही बड़ा ही हिम्मती होता है क्योंकि वह गुरु से प्रेम करता है और बहुत कम लोग ऐसी हिम्मत जुटा पाते है।

आप सभी शिष्य हो, गुरु के प्रेम दीवाने हो और गुरु आप शिष्यों के प्रेम का दीवाना है। यही तो गुरु पूर्णिमा पर आपने सम्पन्न किया। अपने प्रेम का, प्रीत का खुलकर प्रगटीकरण किया इसलिये साहसी हो। गुरु प्रीत की रंग में रंग गये हो।

शिष्य होने का एक ही अर्थ है कि मैं एक संगीत पूर्ण जीवन जीऊंगा, जो मेरी दृष्टि है वही मेरा जीवन होगा। शिष्य होने का अर्थ है, सोचा-विचारा, मनन किया और सब ठीक है उसके अनुसार जीने की हिम्मत जुटा ली, चाहे कुछ भी करना पड़े। इस पार या उस पार, जब जोड़ लिया नाता गुरु से।

ये जो प्रेम की आंख शिष्य के मन में जाग्रत होती है तो अदृश्य को भी देखने लगती है। प्रेेम खोल देता है तीसरा नेत्र। स्थूल नेत्रों से तो बाहर की ओर देखते है और जो बाहर है वह तो क्षण भंगुर है, निरन्तर बदलता रहता है। जैसे ही भीतर का प्रेम द्वार, तीसरा नेत्र खुलता है तो मन में विराजमान शिव, गुरु, शाश्‍वत् सत्य, अनाहत, आनन्द, एक विशाल सागर जिसमें प्रेम भाव की लहरें उठ रही है, उस आनन्द को, उस प्रेम को प्राप्त करता है और गुरु और शिष्य में शाश्‍वत् सम्बन्ध हो जाता है।

हरि मेरे जीवन प्राण आधार, और आसरा नहीं तुम बिन,
तीनों लोक मजार, आप बिन मोहे कछु नाहिं सुहाये, निरख लियो सब संसार।

आनन्द से रहो, सदैव प्रेम से रहो..

-नन्द किशोर श्रीमाली

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