Dialogue with loved ones – April 2024
अपनों से अपनी बात…
मेरे प्रिय आत्मीय,
शुभाशीर्वाद,
शिवरात्रि महोत्सव में बहुत आनन्द आया, आप सभी के शिव भाव को नमन करता हूं। आपमें सत्य की शक्ति है और प्रत्येक साधक शिवत्व भाव को धारण कर अपनी शक्ति को सदैव क्रियाशील रखने हेतु निरन्तर प्रयत्न कर रहा है। प्रत्येक क्रिया का परिणाम फल ही होता है और सभी फल प्राप्ति के लिये क्रियाशील रहते है।
दो प्रश्न आपसे विशेष रूप से पूछने है ओर ये प्रश्न आपसे निखिल जन्मोत्सव से पहले पूछ रहा हूं। क्योंकि जब ये पत्रिका, मेरे विचार आप तक लिखित रूप में पहुंचेंगे तब आप परम आराध्य निखिल जन्मोत्सव सम्पन्न करने के लिये क्रियाशील होंगे।
निखिल अवतरण दिवस प्रत्येक शिष्य के लिये स्व का अवतरण दिवस है। क्योंकि नर में नारायण है और नारायण में नर है। शिष्य में गुरु है और गुरु में शिष्य है। इन दोनों का कभी भी विच्छेदन हो ही नहीं सकता। जहां भी गुरु की बात होगी, शिष्य की बात अवश्य होगी।
गुरु के विचार जब शिष्य अपने भीतर आत्मसात् कर लेता है तब वह गुरुत्व भाव से अपने जगत में, अपने लघु संसार में, अपने घर-परिवार, समाज में क्रियाशील रहता है। गुरु से उसको चाहत भी होती है, कुछ प्राप्त करने की इच्छा भी होती है और साथ ही साथ प्रेम और समर्पण का भाव भक्ति के साथ भी अवश्य होता है।
चाहत, प्राप्ति की कामना, प्रेम, समर्पण और भक्ति ये केवल गुरु-शिष्य सम्बन्धों में ही होती है। इसलिये संसार में सबसे निःस्वार्थ सम्बन्ध गुरु और शिष्य का ही है। पिछले जन्मों का तो किसी को ज्ञान नहीं होता है लेकिन इस जन्म में जब गुरु से सम्पर्क होता है और स्पष्ट कहूं तो गुरु ज्ञान से सम्बन्ध होता है तो शिष्य परिवर्तित हो जाता है, संस्कार युक्त हो जाता है। उसे हर समय अपने साथ कोई न कोई सहारा, साथ की अनुभूति अनुभव होती रहती है। वह जानने लग जाता है कि इस संसार चक्र में गुरु सदैव मेरे साथ है। यह एक भाव आते ही, शिष्य में भावनात्मक परिवर्तन आने लगता है और यह परिवर्तन सदैव सत्य, शुभ, लाभ, सिद्धि, रिद्धि की ओर ही ले जाता है।
एक बात कई महीनों से आपको कहने की सोच रहा था, इस प्रश्न का जवाब आप अपने अन्तर्मन पर हाथ रखकर स्वयं ही देना।
ज्ञानीजन तो कह देते है, यह संसार एक सराय है, किराये का मकान है, इस जीवन में कुछ काल के लिये हम रहते है और पुनः परम तत्व में विलीन हो जाते है। यह परिभाषा बहुत ही रुखी-सूखी और निराशाजनक है। इस अनुसार तो मनुष्य इस संसार में रसयुक्त, आमोद-प्रमोद, सुख-सुविधा, यश और वृद्धि से जीवन जीयें ही नहीं। जबकि सारे शास्त्र स्वयं भगवान शिव, विष्णु, राम और कृष्ण का यही उपदेश है जिसे ईशावास्येोपनिषद् के प्रश्न श्लोक के रूप में व्यक्त किया गया है।
ॐ ईशा वास्यमिदं सर्व यत्किंच जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीया मा गुधः कस्य स्विद्धनम्॥
इस जगती में जो जगत है वह ईश द्वारा बसा हुआ है। इस लिये त्याग-पूर्वक भोग करो। किसी दूसरे के धन का आकांक्षा मत करो।
अब इस जगत में भोग और त्याग की परिभाषा सबने अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार बनाई है। किसी में त्याग की भावना ज्यादा है भोग की कम। तो किसी के मन में भोग की कामना ज्यादा है, त्याग की कम। वह सोचता है एक ही तो जीवन मिला है, इस जीवन को जितना अधिक भोग सकूं, भोगू और संसार में सर्वत्र धन, विजय, प्राप्त करूं।
क्या आपने कभी विचार किया कि हर मनुष्य के जीवन में विभिन्न-विभिन्न विचार क्यों आते है? आज मैं अपने विचार आपको स्पष्ट रूप से कहना चाहता हूं।
सबसे बड़ी बात यह है कि विचारों की उत्पति मन से होती है और इन विचारों को हम एक किराये का स्थान देते है वह किराये का स्थान है हमारा मस्तिष्क और कोई जगह तो विचार टिक नहीं सकता। अब बड़ी बात क्या है कि कुछ विचार, ऐसे किरायेदार है जो आपके मस्तिष्क पर, आपकी बुद्धि पर पूरी तरह से कब्जा जमाने के लिये तैयार होते हैं।
मेरी बात को गौर से समझना, इस जीवन में विचार रूपी हजारों किरायेदार आते है। क्या आप सभी किरायदारों को अपने मस्तिष्क में स्थान देोंगे या श्रेष्ठ विचारों को अपने मस्तिष्क में स्थान दोंगे, जिससे आपको जीवन में आनन्द, शक्ति और सुख प्राप्त हो सके।
जिन विचारों के कारण आप स्वयं अपने आपमें धन्य-धन्य अनुभव करने लगे, उन विचार में जो श्रेष्ठ विचार है, उन्हें निश्चित रूप से स्थान दो। विचार रूपी किरायेदार का चयन समझदारी से करें।
देखों, भाई! मनुष्य को शक्ति विचारों से ही प्राप्त होती है। श्रेष्ठ विवचार ही नहीं आया तो वह श्रेष्ठ क्रिया रूप में परिणित नहीं हो सकता है। क्रिया का श्रेष्ठ फल प्राप्त नहीं हो सकता है। जब हम कहे कि यह व्यक्ति बड़ा ही सुलझा हुआ है। यइ स्पष्ट है कि इसके विचारों में किसी भी प्रकार की उलझन नहीं है और सुलझे हुए विचारों वाला व्यक्ति अपने लक्ष्य को प्राप्त करना है। यह बात भी है कि जीवन में घृणा द्वेष, ईर्ष्या, तुलना जैसे विचार भी आयेंगे लेकिन आपको ही विचार करना है कि क्या इन भावों से मेरी स्वयं की उन्नति होगी, नहीं हो सकती। इस जीवन में आपको श्रेष्ठ विचारों से परिपक्व बनाना पड़ेगा। परिपक्व विचार मधुर फल की तरह होते है जिन्हें पकने में समय अवश्य लगता है, परन्तु इन विचारों से स्वादिष्ट फल प्राप्त होता है।
सदैव याद रखें, आपके भीतर, शक्ति का पास है। गुरु आपकी ही शक्ति को जाग्रत करते है आपकी शक्ति को ही ज्ञान रूपी खाद प्रदान करते है और आपकी शक्ति को पुष्प पल्लतिव होते हुए देखना चाहते है जिससे आप अपने जीवन पर में ‘ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं’ का भाव साकार कर सको।
जीवन के किसी भी क्षण में यह नहीं लगना चाहिए की मैं शक्तिहीन हो गया। देवी, देवता गुरु आशीर्वाद प्रदान करने के लिये तत्पर है। बस आपको सहयोग की कामना करनी है आपको अपने सद् विचारों की रक्षा और अपने मनो मस्तिष्क में सद्विचारों को स्थाई आवाज प्रदान कर देना है। यही आपकी शक्ति को निरन्तर जाग्रत करते रहेंगे। विचारशाली शिष्य के अन्दर, निराशा का भाव कभी आ ही नहीं सकता है। बहुत-बहुत आशीर्वाद…
-नन्द किशोर श्रीमाली
Coming soon…
Nand Kishore Shrimali