Dialogue with loved ones – April 2023
अपनों से अपनी बात…
मेरे प्रिय साधकों,
शुभाशीर्वाद,
यह वेदवाक्य है – मनुष्य अमृत का पुत्र है, अमृत ही उसका स्वरूप है, अमृत से ही उसका जन्म हुआ है। अमृत से ही उसकी स्थिति, गति श्री और वृद्धि है। अमृत-स्वरूप में स्थिति प्राप्त करने में ही उसके जीवन की सार्थकता है तथा अमृत स्वरूप में प्रतिष्ठा प्राप्त करने का उसको जन्मसिद्ध अधिकार है।
मनुष्य अमृत पुत्र है और अमृत सदैव प्रसन्नता देने वाला ही होता है। मनुष्य जीवन की सार्थकता यही है कि वह सदैव प्रसन्न रहें।
पर मनुष्य अपने आपको विचारशील प्राणी मानता है और वह प्रत्येक बात का अपनी बुद्धि से विश्लेषण करता है। अपना मूल्यांकन करता है और उसके मूल्यांकन का आधार होते है – क्या मैं जीवन में सुखी हूं या दुःखी हूं?
यह विचार करना ही जीवन में कभी प्रासंगिक नहीं होता। किसी भी स्थिति में मनुष्य सुख-दुःख की तराजू में अपने आपको नहीं तौल सकते हो।
सदैव इस प्रश्न पर विचार करो कि क्या मैं प्रसन्न हूं या अप्रसन्न हूं। खुश हूं या नाखुश हूं?
प्रसन्न रहना अमृत का स्वरूप है।
आपके पास क्या है? अब तक के बीते हुए जीवन के अनुभव, कुछ कड़वे अनुभव कुछ मीठे अनुभव। अब इन अनुभव के आधार पर अमृत रूपी प्रसन्नता के भाव में जाना चाहते है?
अब होगा क्या आपके सामने भूतकाल के कड़वे अनुभव भी और सुखद अनुभव भी सामने आयेंगे। तो ऐसा करना अपने मन में सुखद अनुभव को उस स्थान पर स्थापित कर देना जहां आप प्रसन्नता को स्थायी रूप से रखना चाहते है।
जो सुन्दर अनुभव है, मीठे अनुभव है वे आपके जीवन की छाया है उस छाया में श्रद्धा उत्पन्न्न होती है।
मूल बात यह है कि आपकी श्रद्धा अंधश्रद्धा नहीं है। आपकी श्रद्धा सुखद अनुभव की सुगन्ध है।
जीवन में अनुभव और श्रद्धा का सहयोग न हो तो यह श्रद्धा पूर्ण रूप से अंतर्मन में स्थापित नहीं हो सकती और यह मूल बात जान लो कि श्रद्धा ही जीवन की प्रसन्नता का सूत्र है।
शिव सूत्र है कि – श्रद्धा का सहयोग ज्ञान से होना चाहिये। यदि आपकी श्रद्धा भय से युक्त है तो वह श्रद्धा आपकी शक्ति नहीं बन सकती। यदि आपकी श्रद्धा ज्ञान से युक्त है, तो वह असीम शक्ति का भण्डार बन सकती हैं, आपमें असीम संभावनाएं उत्पन्न कर सकती है।
ज्ञान युक्त श्रद्धा , शक्ति का स्रोत बन जाती है।
तो फिर बात कहां पहुंची? मन के भीतर। अमृत, प्रसन्नता, ज्ञान सब मन के भीतर ही विकसित होते है। यही से भविष्य की कल्पनाएं और भविष्य की आशा प्रकट होती है।
तो यह स्प्ष्ट है कि मनुष्य जीवन की दिशा सदैव अमृत की ओर ही होनी चाहिये और यह अमृत बाहर से नहीं मिल सकता। सब शक्तियों को अन्तर्शक्ति कहा गया है जो मनुष्य में अन्तर्निहित है, तो यह जान लो कि मिलेगा तो भीतर ही, बाहर से केवल प्रतिकिय्रा ही प्राप्त होगी। साधारण मनुष्य का जीवन बीत जीता है केवल और केवल प्रतिक्रिया करने में ।
हम जीवन जीना चाहते है अमृत के लिये, प्रसन्नता के लिये तो इसे प्रतिकिय्रा में क्यों व्यर्थ ही नष्ट करें। इसके सृजन के लिये क्रिया आवश्यक है तो अपने जीवन में प्रतिक्रियाओं को हटा दो और सदैव और सदैव क्रियाओं को स्थापित करो।
अब हमारे मन के बारे में विचार करते है, हमारा मन सभी प्रवृत्तियों का पुरोगामी है अनुसरण करता है।
अब इस मन में अमृत प्रवृतियो को स्थापित करना है या विष प्रवृत्तियों को स्थापित करना है? निर्णय तो तुम्हें ही लेना पड़ेगा। अमृत प्रवृत्तियों का अनुसरण करेंगे तो मन में प्रसन्नता का साम्राज्य स्थापित हो जायेगा।
एक छोटी सी बात सोचों, यदि हम दोष युक्त मन से कोई वचन बोलते है या कर्म करते है तो सबसे पहले क्या होता है? दुःख हमारा, वैसे ही अनुसरण करता है जैसे किसी गाड़ी का चक्का खींचने वाले बैल का अनुसरण करता है। यह मन ही हमारी सभी प्रवृत्तियों का पूरोगामी है, अनुसरण करने वाला है।
यदि हमारे मन में किसी को दुःख देन का थोड़ा भी भाव है उसके लिये हम क्या कर रहे है? दुःख का बीज पहले अपने हृदय में बो रहे है। अब दूसरे को दुःख देने का जो बीज है वह गिरेगा कहां? आपके ही मन की भूमि पर, किसी दूसरे के मन की भूमि पर तो वह बीज गिर नहीं सकता। अब बीज आपके भीतर है वहीं तो वृक्ष बनेगा। तो फिर उसका फल कौने भोगेगा? हमें ही भोगना पड़ेगा। और विचित्र बात क्या हो गई, देना चाहते थे दूसरे को दुःख और सबसे पहले प्रारम्भ कर दिया अपने आपको ही दुःख देना।
क्रोध करते है और क्रोध में किसी को नष्ट करना चाहते है, विध्वंस करना चाहते है, संहार करना चाहते है, अब वह तो होगा या नहीं, लेकिन सबसे पहले स्वयं अपने आपको ही संहार करना, नष्ट करना, प्रारम्भ कर दिया अर्थात् अपने भीतर के विष को विस्तारित कर दिया।
यह बाह्य जगत तुम्हारे आन्तरिक जगत का ही विस्तार है। यदि आन्तरिक जगत आत्मभाव में प्रसन्नता रूपी अमृत का वातावरण है तो बाह्य जगत में भी सब और प्रसन्नता और अमृत का ही वातावरण दृश्यमान होगा। उस अमृतमय वातावरण को अनुभव कर सकोगे और छोटी-मोटी बातों को दरकिनार कर अपने स्वयं के प्रसन्न, अन्तर्ज्ञान की शाक्ति से अपने जीवन की मधुर यात्रा पर निश्चिन्त भाव से विचरण कर सकोगे, फिर न अतीत के खण्डरों की व्यथा सतायेगी और न ही भविष्य की असीम कल्पनाएं सतायेगी।
इसके लिये चाहिये अमृतरूपी स्वास्थ्य, तुम अपनी बीमारी, व्याधियों को समझा सकते हो और समझ कर उसे मिटा भी सकते हो। पर स्वास्थ्य क्या है? जब कोई व्याधि ही न बचे, वह है स्वास्थ्य, स्वास्थ्य है अमृत, मन का स्वास्थ्य। उसे स्वस्थ बनाये रखने के लिये अपने मन की भावनाओं को श्रद्धा के साथ प्रेम के मार्ग पर ले जाते रहो।
मन भी स्वस्थ, तन भी स्वस्थ और जीवन यात्रा आनन्दप्रद…
मन में आनन्द भाव को विस्तारित होने दो…
-नन्द किशोर श्रीमाली
Coming soon…
Nand Kishore Shrimali