Dialog with loved ones – October 2019

अपनों से अपनी बात…

प्रिय आत्मन्,
शुभाशीर्वाद,
उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मी, दैवेन देयं इति कापुरुषाः वदन्ति
दैवं निहत्य कुरु पौरुषमात्मशक्त्या, यत्ने कृते यदि न सिद्धयति कोत्र दोषः
कार्तिक मास है, कहते हैं यह लक्ष्मी का मास है और यह लक्ष्मी किसे मिलती है मैं तो कहता हूं कि लक्ष्मी सदैव उद्यमी व्यक्ति को ही मिलती है। भाग्य से प्राप्त होता है, भाग्य में होगा तो मिल जायेगा, ऐसा तो कायर लोग ही कहते हैं। साधक को अपनी शक्ति से पुरुषार्थ अवश्य करना चाहिए। तुम प्रयत्न करते हो और तुम्हारा कार्य सिद्ध नहीं होता है तो इसके लिये तुम अपने आपको क्यों दोषी ठहराते हो? जैसे एक पहिये से गाड़ी नहीं चलती उसी प्रकार बिना उद्योग के, पुरुषार्थ के कार्य भी सिद्ध नहीं होते, देव भी सिद्ध नहीं होते। यही तो लक्ष्मी सिद्धि का सरलतम मार्ग है। उद्यम से विधि का अंक पलट जाता है, पौरुष से भाग्य सदैव हारता ही है। जो जीवन की अभिलाषाएं हैं वे मनुष्य के बल का ही परिमाण है, और यह अभिलाषाएं ही चंचल हैं जो हमें नित्य-नित्य जगाकर रखती हैं।
पर इतना चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं है। पुरुषार्थ से चिन्ता की उलझन अवश्य सुलझ जाती है। बस किसी भी रूप में चिन्ता को अपने भीतर मत आने दो। आ गई है तो यह समझो कि मुझे किसी अन्य रुप में और पुरुषार्थ करना है, और समाधान अवश्य मिलेगा।
लक्ष्मी की बात करते हैं, लक्ष्य सिद्धि की बात करते हैं, क्योंकि तुम्हारा मार्ग बहुत लम्बा है। सभी जीवन को यात्रा कहते हैं और इस यात्रा में सुख-दुःख आयेंगे ही, लेकिन आपको सदैव अपने लक्ष्य के प्रति सजग रहना है। सुख-दुःख तो उड़ते हुए बादल के समान हैं, आयेंगे और जायेंगे। लक्ष्य स्पष्ट है तो किसी बात की कोई परवाह नहीं, आगे बढ़ ही जायेंगे। अपने अन्तर्मन में शांति को वास देना है। अशांत मन से कैसे लक्ष्य सिद्धि प्राप्त होगी? शांत रहो और पुरुषार्थ करते रहो, और यह पुरुषार्थ का भाव आन्तरिक मन से ही आता है।
देखो, ईश्‍वर की सर्वोत्कृष्ट रचना यह मनुष्य है। योग्य शरीर दिया, बुद्धि दी। ईश्‍वर ने यदि एक क्षण भी सोचा होता कि मनुष्य को और अधिक शारीरिक सौन्दर्य की आवश्यकता है तो इसे और अधिक सुन्दरता दे सकता था, और अधिक लम्बा-चौड़ा विशाल बना सकता था, लेकिन उसने मनुष्य को मानसिक रूप से पूर्ण बना दिया। इसीलिये जीवन का लक्ष्य संसार को समझने के साथ-साथ अपने आपको समझना बन गया, और वह निरन्तर क्रियाशील होता हुआ अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता ही जाता है।
कर्त्तव्य तो जीवन में करना ही पड़ेगा। इस जीवन में अनन्त इच्छाएं हैं, लेकिन याद रखना हर इच्छा तुम्हारी जीवन यात्रा में आने वाले एक स्टेशन की तरह है। नये-नये स्टेशन आते हैं, उसी प्रकार नई-नई इच्छाएं आती हैं और हम उन्हें देखते हैं, उनका आनन्द लेते हैं, लेकिन हर स्थिति में अपना गंतव्य लक्ष्य तो भूल नहीं जाते हैं। बहुत लोग मिलेंगे, कोई मित्र बनेगा तो कोई तुमसे नाराज हो जायेगा, सब तुम्हारे अनुकूल तो नहीं होंगे। इसलिये किसी के विचारों से प्रभावित मत होना, विचार तो झंझावत के समान हैं। आते हैं, जाते हैं। तुम्हारे जो स्वयं के विचार हैं, जो तुमने अपने जीवन के लिये लक्ष्य निर्धारित किया है, उस पर ही चलते रहना। तुम्हारे साथ ही तुम्हारे मन में तुम्हारा इष्ट, तुम्हारा गुरु, मार्गदर्शक के रूप में विद्यमान है।
लक्ष्मी शब्द सुनते ही तुम्हारा मन खिल-खिल जाता है, और यही कामना रहती है कि मुझे जीवन में अपार लक्ष्मी मिले, अपार धन मिले, यह भी मिल जायेगा। अपार का अर्थ है, जिसका कोई पार नहीं हो तो तुम उस अपार को प्राप्त करना चाहते हो? क्या इसी के लिये तुम्हारा जीवन बना है? अथवा ईश्‍वर ने किसी अन्य कार्य हेतु तुम्हें इस संसार में भेजा है? धन तुम्हारे लिये साधन है, अथवा साध्य है? साध्य तो नहीं हो सकता है। साध्य तो इष्ट ही है, साध्य तो अन्तर्मन की प्रसन्नता ही है, साध्य तो परम तत्व ही है। वह अपरम्पार है।
ॠग्वेद में वर्णित श्रीसूक्त के पन्द्रह श्‍लोकों को बार-बार अवश्य पढ़ना। क्या कहा गया है, इस प्रार्थना में, प्रथम तो यह भाव है कि, ‘‘हे अग्नि देव, मैं इस जीवन में यज्ञ, तप, अनुसंधान और कार्य कर रहा हूं। मुझे इस तप की प्राप्ति फल रूप में अवश्य प्राप्त हो।’’ अग्निदेव से यह प्रार्थना की गई है कि मुझे तीव्र मानसिक इच्छा, संकल्प और वाणी की सत्यता प्राप्त हो। इन तीन तत्वों से जीवन के सभी इच्छित पदार्थ प्राप्त हो सकते हैं। तीव्र मानसिक इच्छा, संकल्प और सत्य भाव से क्रिया करने से ऐसी श्रेष्ठ लक्ष्मी प्राप्त होती है जो पुष्टि प्रदान करने वाली है, शुभ कांति प्रदान करने वाली है। ऐसी लक्ष्मी से ही जीवन में समर्थता आती है।
लक्ष्मी केवल धन नहीं है। लक्ष्मी वह तत्व है जो कांति प्रदान करती है, तुष्टि प्रदान करती है। यदि जीवन में सत्यता, वाणी शुद्धता और तीव्र मानसिक इच्छा नहीं है तो पुष्टि और कीर्ति कैसे आ सकती है? प्रथम कामना तो यही रहती है कि हम पुष्ट रहें। हमारे शरीर में सुगन्ध हो, कांति हो, ओज हो। वाणी में प्रभाव हो। जो भाव ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्… में है वही भाव श्रीसूक्त की इस देव प्रार्थना में है।
ये वेद वचन हैं, ब्रह्मा के मुख से उच्चरित हुए हैं और मनुष्य को मार्ग दिखलाते हैं। जब जीवन का लक्ष्य तुम्हारे सामने स्पष्ट है तो फिर किसी भी स्थिति में विचलित नहीं होना है। आप्तकाम होकर संतोष रूपी अमृत का पान करने वाले शांत चित्त व्यक्ति को जो सुख प्राप्त होता है वह ब्रह्मनन्दं परमसुखदं… कहा गया है, वह परम आनन्द कहा गया है। लक्ष्य तो परम आनन्द को प्राप्त करना ही है।
लक्ष्मी चल क्यों है? वास्तव में लक्ष्मी तो चल नहीं है। जब इसे आडम्बर द्वारा, अभिमान द्वारा प्रदर्शित किया जाता है तो लक्ष्मी नाराज हो जाती है। यही तो लक्ष्मी के जाने के मार्ग हैं। वास्तव में तो लक्ष्मी आपके पास निरन्तर विराजमान है।
या देवी सर्वभूतेषू लक्ष्मी रुपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
उस जाग्रत भाव को निरन्तर चैतन्य रखना है। जीवन में न तो अनुपयोगी कार्य करना है, न व्यर्थ का वाक्जाल करना है। हर समय अपने लक्ष्य को ध्यान में रखना है।
इस बात का सदैव ध्यान रखना कि तुम्हारे पास मंत्र है, लक्ष्य है, विश्‍वास है और प्रेम की शक्ति है। इसी के कारण आलस्य और प्रमाद को तुम अपने आपसे दूर कर सकते हो, और जब आलस्य प्रमाद समाप्त हो जाता है तो शरीर में, मन में स्फूर्ति और कार्य शक्ति अपने आप आ जाती है और लक्ष्मी अवश्य स्थायी रूप में रहेगी।

नन्द किशोर श्रीमाली

 
 
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