Dialog with Loved ones – November 2017

अपनों से अपनी बात…
प्रिय आत्मन्,
आशीर्वाद,

 

जो मिलन का क्षण होता है, वह बड़ा ही प्यारा क्षण होता है। मिलन से पहले उत्सुकता, मन में प्रश्‍न, कई प्रकार की शंकाएं, कई प्रकार की उथल-पुथल होती है। उन क्षणों में एक चाह का भाव होता है, एक आशा का भाव होता है। आशा से भरी इस प्रतीक्षा में मन में एक विशेष प्रकार का दर्द भी उभरता है, जिन्हें इंतजार के पल भी कह सकते हैं। उनका मजा भी निराला है।

 

जब इंतजार के पश्‍चात् मिलन होता है तो मिलान का वह मजा अगले कुछ ही क्षणों में इंतजार की सारी पीड़ाओं को भुला देता है। मिलन के उन क्षणों में यह याद ही नहीं रहता कि इंतजार के क्षण कितनी मुश्किल से कटे थे। मिलन के उन क्षणों में जिस चाह को लेकर हम आए थे, उस चाह को भी भूल जाते हैं।

 

ईश्‍वर भक्ति, पूजा, प्रार्थना, सब में एक ही भाव है आशा का। किसी भी वस्तु की प्राप्ति में भी आशा का भाव सदैव विद्यमान रहता है। एक अपेक्षा का भाव भी रहता है और जब वह वस्तु प्राप्त हो जाती है, तो और भी अधिक उत्साह का संचार होता है। मन करता है, प्राप्ति के उन क्षणों हम को इसी प्रकार से कस के पकड़े रहें, जैसे वे क्षण कभी बीतें ही नहीं।

 

हमारा जीवन क्या है? क्षण-क्षण जीना है। हर क्षण एक दूसरे से अलग होते हुए भी एक दूसरे से मिला हुआ है। जीवन के इन करोड़ों-अरबों क्षणों में, जिन क्षणों में हमें अपने मन का चाहा प्राप्त हो जाता है उन क्षणों का रसास्वादन ही हमारे जीवन में नवीनता का सृजन करता है। कुछ लोग मुझसे कहते हैं कि सबकुछ ठीक चल रहा है लेकिन हम खुश नहीं है। मैं पूछता हूं कि तुम क्या प्राप्त कर खुश हो सकते हो? तो प्रत्येक व्यक्ति का जवाब उसके स्वयं के व्यक्तित्व, काम और इच्छाओं के अनुरूप होता है। अप्राप्त को प्राप्त करना और प्राप्त को चिरकाल तक संजोये रखना मानव मन का स्वभाव है। और मैं आशीर्वाद में कहता हूं कि –

 

मंत्रार्था सफला सन्तु, सफला सन्तु मनोरथा,
अप्राप्त लक्ष्मी प्राप्तर्यथम्, प्राप्त लक्ष्मी चिरकाल संरक्षणार्थः

 

मंत्र क्या हैं? जिनके अधीन देवता हैं और वे देव भी आपके मन में ही बसे हुए हैं। ‘मंत्राधीनाश्‍च देवता’ अर्थात् देवता भी मंत्र के अधीन हैं। वे देवता, वह ईश्‍वर, वह शक्ति जो आपके मन के भीतर स्थित है। उस शक्ति का, उस देवत्व का आह्वान करना ही मंत्र है। तो मेरा यही आशीर्वाद होता है कि ‘मंत्रार्था सफला सन्तु…’, तुम्हारे मंत्र सफल हों। तुम्हारे मन के मन्तव्य सफल हों। तुम्हारे मन के मन्तव्यों को एक गन्तव्य अर्थात् पूर्णता प्राप्त हो। भटकते हुए मन को एक दिशा प्राप्त हो और वह दिशा ऐसी हो जो तुम्हें तुम्हारे परम लक्ष्य तक ले जाए। उस लक्ष्य प्राप्ति को ही मनोरथ कहा गया है। मन में उठने वाली हजारों प्रकार की आशंकाओं का निवारण कर अपने भीतर की शक्ति को चैतन्य कर अपने आत्म भाव से सफल होना ही साधना की क्रिया है।

 

अप्राप्त लक्ष्मी प्राप्तर्यथम्…

 

यह अप्राप्ति की प्यास बड़ी ही आवश्यक है। इस अप्राप्ति के भाव से ही कर्म का भाव उठता है और हम क्रियाशील होते हैं। अप्राप्ति की प्यास नहीं हो तो जीवन नीरस हो जाता है और हम सब कुछ होते हुए भी अपने आपको अपूर्ण अनुभव करते हैं और तब – ‘पूर्णमद पूर्णमिदं …’ का भाव वास्तविकता के धरातल पर स्थापित नहीं हो पाता है। पूर्णता भी भीतर है और इसी पूर्णता में सन्तुष्टि है। इसी पूर्णता में आनन्द है। इसे प्राप्त करने के लिये प्रयासरत तो होना ही पड़ता है। मन से प्रयास, शरीर से प्रयास और इन दोनों को अपने ही आत्मभाव से जोड़ देना, जिससे कि आपके भीतर स्थापित प्राण और आत्मा भी आपको आशीर्वाद दे सकें कि तुम आत्म उन्नति के लिये कर्मशील होओ, क्रियारत होओ, प्रयासरत होओ।

 

जिस दिन हमारे सभी कार्य आत्म उन्नति की दिशा में प्रवृत्त हो जाते हैं, उस दिन हमारी प्यास को तृप्ति का एक आनन्द झरना प्राप्त हो जाता है। जब तक आत्म उन्नति लक्ष्य नहीं होता है, तब तक यह मन और यह शरीर बहिर्मुखी क्रियाओं के लिये भागता रहता है। जिस अमृत कुण्ड को भीतर प्राप्त करना है, उसे ढूंढ़ने के लिये बाहर भटकता है।

 

दूसरी बात और भी अधिक महत्वपूर्ण है, अप्राप्त लक्ष्मी को प्राप्त करना और प्राप्त लक्ष्मी को ‘चिरकाल संरक्षणार्थ’ उसे अपने संरक्षण में रखना। उसका संरक्षण करना, उसका ध्यान रखना। यह तो और भी अधिक आवश्यक है। यह लक्ष्मी शब्द बड़ा ही विराट शब्द है। यह लक्ष्मी लक्ष्य सिद्धि का स्वरूप है। जिस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये हमारी कामनाएं हैं, क्रियाएं हैं, प्रयास हैं उसकी प्राप्ति का अनुभव करते हुए उसे अपने मन में बसाये रखना और सदैव और सदैव इस बात का ध्यान रखना कि अपना स्वयं का संरक्षण करना है। अपने स्वयं का चौकीदार, प्रहरी स्वयं बनना है। तभी तो संरक्षण संभव हो सकेगा। एक बीज का संरक्षण एक भूमि करती है। उसी प्रकार हमारे मन के भीतर के आत्म आनन्द के भाव का संरक्षण करना हमारे मन, हमारी बुद्धि, हमारे विवेक का कार्य है। मूल लक्ष्य उस आत्म भाव में आनन्द प्राप्त करना है। उसकी रक्षा के लिये हम क्या क्रिया कर रहे हैं? इसे पल-पल स्वयं समझना और स्वयं को समझाना आवश्यक है।

 

इस जगत में कोई किसी को समझा नहीं सकता है, ऐसी कोई शक्ति आकाश में नहीं है जो तुम्हें समझा सके। समझ की यह शक्ति तुम्हारे भीतर ही स्थित है और यह शक्ति आनन्द के साथ मन की गहराईयों में आत्मा के साथ निवास करती है। उसके स्पन्दन को पल-पल अनुभव करना, विराट् क्रिया है। यह क्रिया बड़ी महीन और सूक्ष्म भी है। उन क्षणों को पकड़ना पड़ता है, जो आनन्द देने वाले हैं जिनकी प्राप्ति के लिये तुम क्रियाशील हो… प्रयासरत हो…।

 

जब-जब भी आनन्द के उन क्षणों की तुम्हारे चित्त में अनुभूति हो, तो उस आनन्दानुभूति को संजोकर अपने मन की गहराईयों में रख देना। उन आनन्द के क्षणों का संरक्षण करते रहना, कहीं ऐसा न हो कि कोई तुम्हारे आनन्द के उन क्षणों को छिन्न-भिन्न कर दे।

 

बहुत लोग इस जगत में प्रयासरत हैं कि तुम आत्म-आनन्द में लीन न हो सको। वे अपना प्रयास करते रहते हैं। और तुम अपना प्रयास करते रहना। उस प्राप्त लक्ष्मी भाव को, लक्ष्य भाव को अपने भीतर संजोकर रखना।

 

बहुत गहरा महीन और सूक्ष्म सम्बन्ध है, गुरु और शिष्य का। जहां मन की गहराईयों में छुपे हुए आत्म भाव से आपस में वार्तालाप होता है। इसीलिये गुरु तुम्हें हर बार आत्मन् कहकर सम्बोधित करते हैं।

 

तुम अपने आत्म भाव की रक्षा करते रहना। जो तुम हो, उस भाव की रक्षा करते रहना। उन प्रत्येक क्षणों की रक्षा करते रहना, जिन क्षणों ने तुम्हें आनन्द प्रदान किया है और इसे चिरकाल तक सुरिक्षत रखना यही सबसे बड़ी पूंजी है।

 

नन्दकिशोर श्रीमाली

Dialog with Loved Ones….

Dear Loved One

Divine Blessings,

The moment of  union-merger is a  very divine moment full of love.  The mind is always full of multiple kinds of excitement, questions, doubts, anxiety and turmoil before the meeting. Those vital seconds before the actual meeting are full of senses of desire and hope. This hope-filled anxiety also induces a  certain kind of pain within the heart, the moments when we wait with bated breath full of hope.  They also provide a unique kind of joy.

When the moment comes for the actual meeting, after the end of this long tumults waiting period; then the joy of meeting extinguishes all difficulties and tensions of the wait. We forget the pains of waiting, during those magic moments of the meeting. We also tend to forget the desires and wishes, which we had thought of during the long wait.

Devotion, prayer, worship – all of these have the same expression of hope. The expectation of hope always stays during the achievement-realization of the objective. The sense of expectation also remains strong, and the enthusiasm enhances, upon realization of the objective. We try to firmly clasp those moments of attainment, we wish for those golden moments to last forever.

What is our life?  Living from moment to moment. Every second is discrete, but all these moments are bound together with each other.  The divine joy of  tasting these billions of seconds of attaining our wishful desires,  generates novelty in our lives.  Some people ask me the reason for their unhappiness, inspite of achieving everything. I question – What is that which can make you happy? Everyone replies according to their own personality, work and desires. It is mind’s basic nature to try to achieve the unachievable, and to try to retain the achievements for eternity. And I bless thus –

Mantraarthaa Safalaa Santu, Safalaa Santu Manorathaa,

Apraapta Lakshmi Praaptyartham, Praapt Lakshmi Chirakaala SanrakshanaarthaH

 

What is Mantra?  It is the entity which controls the Deities. And these Deities are within your own mind. “Mantraadheenaascha Devataa” i.e. the deities are governed by the mantras. The deities, the Almighty God, residing in your own mind. Mantra is the invocation of that power, the divinity of the deity. I bless that “Mantraarthaa Safalaa Santu…” May you achieve success with your Mantras. May you achieve the desires of your mind. May your wishes be successful. May your wandering mind get a direction, and let that direction take you to the ultimate objective. The achievement of that ultimate objective has been termed as aspiration. The Sadhana is the process of achieving success in our own self by awakening our own inner energy through curtailing thousands of fears within our own mind.

 

Apraapta Lakshmi Praaptayarthama …

This thirst of  unfulfillment is very significant. This expression of unfulfillment generates action and makes us active through multiple karmas. Life becomes monotonous in the absence of this sense of unfulfillment, and we feel incomplete inspite of having everything.  It does not allow us to accomplish the “Poornamada PoornamidaH …”  in the real sense. This perfection resides within our own inner self and this leads to satiation. There is joy in this perfection. One has to make many efforts and take specific actions to achieve this state. The mind attempts, the body makes efforts, and the union of these twains with our own self, causes our inner life and soul to bless us to achieve self  success through our actions, exertions and trials.

Our thirst experiences the divine joy of satiation, at the moment when we start taking actions towards our self success. This mind and body wonders around in multiple directions in absence of this divine goal of self success. It continues to unnecessarily seek this divine elixir outside.

The second fact is even more important – to achieve the unfulfilled Lakshmi and to retain the obtained Lakshmi for eternity.  It is much more significant to preserve and protect Her. This word Lakshmi hides gigantic potential within Itself. This Lakshmi is synonymous with achievement of success in our endeavors and goals. We should consistently fill our mind with thoughtful experiences of realization of  success in our various desires, endeavors and actions. We ourselves are responsible for our own protection. We need to guard our own self and take concrete steps to ensure our own protection. The protection-conservation of our own inner-joy is the basic duty of our mind, intellect and conscience, and they ought to protect it like the mother earth protects a fragile seedling. Our basic goal is to derive inner joy from realization of our own self. We need to constantly introspect and review our actions-plans within this basic context.

It is impossible to convince anyone in this world. Nothing is this world can convince you. Only your inner self can make you understand and comprehend. This inner self resides in the deep recesses of joy within your mind, along with your own soul. The sensations of these divine vibrations are a totally magnificent experience. You need to capture those vital moments, savor the joyful moments which you have been endeavoring through all of your actions.

You should preserve those joyful  moments within your own mind, whenever you experience them. These moments should be preserved and protected from the external turmoil-disturbances.

Many people in this world are trying to keep you away from these divine moments of joy. Let them indulge in their actions. You should continue to preserve and protect these divine moments, the Lakshmi of success, within your inner mind.

The relationship between the Guru and the disciple is highly delicate and subtle. This vital relationship grows through constant dialog between the two souls of the self, hidden within the deep recesses of the mind. This is why, the  Guru addresses you as the soul.

Continue to preserve your own self. Continue to protect what you really are. The preservation of these divine golden joyful moments till eternity is your biggest treasure.

 

Nand Kishore Shrimali

 

error: Jai Gurudev!