Dialog with loved ones – May 2019

अपनों से अपनी बात…

प्रिय आत्मन्,
आशीर्वाद,

 

निखिल जन्मोत्सव अहो भाव उत्सव की बहुत-बहुत बधाई। आप मुझसे निरन्तर मिलते रहते हैं। अपनी बात कहते हैं, अपनी जिज्ञासाओं को व्यक्त करते हैं। हमारा यह वार्तालाप वाणी के साथ-साथ मन का वार्तालाप भी है। कुछ प्रश्‍न तुम्हारे भीतर हर समय मौजूद रहते हैं। तुम्हारे मन में ये प्रश्‍न बड़े ही उथल-पुथल मचाते हैं। मैं भी आज तुमसे कुछ प्रश्‍न पूछ रहा हूं। तुम विचार करना और अपने मन से उत्तर देना।

 

आप सब जीवन में तीन बातें चाहते हैं। खुशी, प्रसन्नता और शांति। आपके सारे प्रश्‍न इन तीनों से ही सम्बन्धित हैं। आपको चाहिये पर्याप्त भाव में खुशी, प्रसन्नता और शांति। इस संसार में मुझे पर्याप्त कैसे प्राप्त हो? इसके लिये तुम्हें समझना पड़ेगा कि पर्याप्त की परिभाषा क्या है? इसका मापदण्ड क्या है? क्या इसकी कोई सीमा है या यह असीम है? जब विचार करोगे तो पर्याप्त भी अवश्य प्राप्त होगा।

 

पर्याप्त का अर्थ है – परि+आप्त।

 

जो पूरी तरह से प्राप्त हो जाए, वह पर्याप्त कहा जाता है। जो अच्छी तरह से प्राप्त हो, कम प्रयास में ज्यादा प्राप्त हो, उसे भी पर्याप्त कहा गया है। अब पर्याप्त भाव ‘प्राप्त करना है’ तो उसके लिये यह तो निश्‍चित करना पड़ेगा कि – हमारी आवश्यकताएं क्या हैं? और हम उन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये किस प्रकार से कर्म कर रहे हैं। केवल विचार करने से या स्वप्न देखने से, ना तो आवश्यकतानुरूप प्राप्त होगा और न ही पर्याप्त प्राप्त होगा। हां इतना अवश्य है कि – पर्याप्त की परिभाषा सबके लिये अलग-अलग है।

 

एक गिलास में एक पाव जल आता है। एक जग में एक लीटर और एक बाल्टी में बीस लीटर, एक नदी में लाखों मैट्रिक टन और एक समुद्र में अथाह जल आता है। तो इसका अर्थ हुआ कि जिस पात्र की जितनी क्षमता होती है, उसी के अनुसार उसका पर्याप्त, शर्पेीसह निर्धारित होता है।

 

अब सबको पर्याप्त चाहिए, तो विचार करो कि तुम्हारे इस भाव का निर्धारण और निर्णय कौन ले रहा है? यदि तुम्हारे इस पर्याप्त को तुम्हारा लक्ष्य तय कर रहा है तो तुम्हें अपने जीवन में कभी परेशानी नहीं होगी, कभी थकान नहीं होगी। तुम्हें यह कहना है –

 

जिस दिन से चला हूं
मेरी मंजिल पर नजर है,
आंखों ने कभी
मील का पत्थर नहीं देखा।
क्योंकि मुझे मालूम है
मैं जिधर चला उधर रास्ता हो जाएगा
तीन तरह के विचार मनुष्य में रहते हैं –
पहला – प्रभु इतना दो कि मुझे जीवन में आराम से दाल-रोटी मिल जाए, जीवन चलता रहे।
दूसरा – सांई इतना दीजिये, जामे कुटी समाये, मैं भी भूखा नहीं रहूं, साधु भी भूखा न जाय।

 

और तीसरा – मुझे इस संसार में अथाह प्राप्त होना चाहिए और, मैं निरन्तर और निरन्तर प्राप्त करता रहूं। मेरे पास बहुत अधिक हो। इतना अधिक हो कि उसकी सीमा न हो।

 

तीनों भाव मनुष्य की प्रकृति पर निर्भर करते हैं। बस यह जो तीसरा भाव है, यह बड़ा ही प्रबल भाव है, इसमें आवश्यकता से अधिक, और अधिकतम प्राप्ति का भाव है। आवश्यकताएं पूर्ण हों और मेरे पास बहुत-बहुत अतिरिक्त भी हो। ऐसा भाव पर्याप्त की अपर्याप्तता का भाव कहलाता है, लेकिन यह भाव दुधारी तलवार के समान है। इसमें तुम जो कर्म कर रहे हो उससे तुम सन्तुष्ट नहीं हो। खुशी और शांति गायब हो रही है। तो पहले यह विचार करना है कि, तुम्हारे पर्याप्त की परिभाषा को कौन निश्‍चित कर रहा है? तुम निश्‍चित कर रहे हो या तुम्हारे आस-पड़ौस वाले, नाते रिश्तेदार, दोस्त, शत्रु या समाज निश्‍चित कर रहा है। यदि तुम निश्‍चित कर रहे हो, और तुम्हारा लक्ष्य है, तो तुम अवश्य ही कर्म करोगे, तुम्हें कोई थकान नहीं होगी। तुम शांत भाव से कर्म करते रहोगे। लेकिन यदि तुम्हारे पर्याप्त की परिभाषा दूसरे निश्‍चित कर रहे हैं तो जान लो कि तुम एक बेपेन्दे के घड़े हो जो दूसरों के हिलाने से डगमग होता रहता है। तुम्हारे विचार का कोई निश्‍चित आधार नहीं है, न तुम्हारा कोई निश्‍चित लक्ष्य है। बस समाज की धक्कमपेल में दूसरे तुम्हें दौड़ा रहे हैं और तुम दौड़ते जा रहे हो। मन से नहीं दौड़ रहे हो। कोई और डण्डे मार-मारकर दौड़ा रहा है। अब उसमें खुशी, प्रसन्नता और शांति कैसे प्राप्त होगी?

 

एक प्याऊ पर दो घड़े थे- एक छोटा और एक बहुत बड़ा, किन्तु प्यासे अक्सर छोटे घड़े से पानी पीते थे क्योंकि वह जल्दी ठण्डा हो जाता था, वहीं बड़ा घड़ा ज्यादा समय लेता था। यही हाल आवश्यकताओं का है- तुम्हें तय करना पड़ेगा कि तुम्हारी जरूरतें कितनी जरूरी हैं, और क्यों हैं? इन्हें तुम खुद के लिए पूरा कर रहे हो या अन्य किसी व्यक्ति के लिए?

 

जिस दिन तुमने यह जान लिया उस दिन तुम्हें दो चीजें खुद ब खुद मिल जाएंगी- पहली खुशी और दूसरी शान्ति, क्योंकि जरूरतें भी तुम्हारी है, पूरी भी उन्हें अपने लिए कर रहे हो और इसे करने से तुम्हें खुशी भी खुद के लिए मिल रही है। इसे ही सेल्फ लव कहते हैं, यानि अपने आप को अहमियत देना या महत्त्व देना।

 

तुम्हारी खुशी दो कारणों से कम होती है, पहला दूसरों की खुशी से अपनी तुलना करके और दूसरा अपने दुःखों पर निरन्तर फोकस करके। ऐसे में कितना भी जोड़ लो पर्याप्त नहीं होगा, खुशी नहीं मिलेगी, शांति नहीं मिलेगी।

 

तुम्हें पर्याप्त भी प्राप्त होगा, अप्राप्त भी प्राप्त होगा। खुशी भी प्राप्त होगी, प्रसन्नता भी प्राप्त होगी। बस अपने मन में सोचकर अपना लक्ष्य निर्धारित करना है। खुशी और शांति तुम्हारे भीतर है लेकिन तुमने अपने बाह्य नेत्रों पर, इस जगत में अपर्याप्त रूपी, एक चश्मा लगा रखा है, इसी के कारण तुम सोचते हो कि जो मुझे मिला है वह बहुत कम है। तुम इतना करो, अपना पर्याप्त निश्‍चित करो।

 

हम दोनों अर्थात् मैं और तुम साथ मिलकर खुशी, शांति और प्रसन्नता की यात्रा पर चल रहे हैं। इसीलिये तो तुमने गुरु का हाथ थामा है। गुरु ने तुम्हें अपना हाथ दिया है। जो अपर्याप्त है वह अवश्य समाप्त होगा, और तुम्हें अपने मन के अनुरूप पर्याप्त भी अवश्य प्राप्त होगा। यह मेरा आशीर्वाद है…

 

नन्द किशोर श्रीमाली

Dialog with Loved Ones…

Dear Soul-mate,

Divine Blessings,

 

Heartiest congratulations on Nikhil Janmotsava. You meet me frequently to discuss your topics and express your curiosities. This dialog is not just verbal, it transcends into our mental frames as well. Some questions remain permanently stuck in your mind, and these questions put you through lots of mental turmoil and confusion. I am also asking  you some questions today. Think deeply and  answer within your mind.

All of you desire three things in life –  Happiness, Pleasure and Peace. All of your questions are generally related to these three core elements. You wish to have sufficient quantities of happiness, pleasure and peace. How do I obtain enough of this sufficiency  in this world? First, you need to comprehend the basic definition of sufficiency (Hindi translation: Paryaapt). How do you measure it? Does it have an upper limit, or is it limitless infinity? Thinking deeply about these points will certainly help you to realize it.

 

Paryaapt = Pari + Aapt

 

Whatever can be fully obtained, is termed as “Sufficient”.  Whatever can be properly obtained, obtained with less efforts, is also termed as “sufficient”. Now, to actually “achieve” the “sense of sufficiency”,  we will need to ascertain our requirements? And analyze the types of actions which we are executing to fulfill those requirements. We will neither fulfill our requirements nor obtain sufficiently, just by dreaming or thinking. However, it is certain that everyone has a different  definition of sufficiency.

A glass can contain 250 ml of water. A jug can hold 1 liter and a bucket can hold 20 liters. Similarly, a river may amass millions of metric tons of water, or an ocean can store infinite quantity of water. So, this means that the capacity of the container determines the quantity of the sufficiency, (or enough adequacy)

Now everyone desires sufficient for his or her own self. Think – Who determines and decides the sense of sufficiency. If your own goals are setting up the limits of your own sufficiency, then you will never confront any trouble in your life. You will never get tired. You have to state-

 

From the day I started

I am focused on my goal,

These eyes have

Never been cast on any milestone.

Because I know

The route will open wherever I step forth.

 

The human mind stores three different kinds of thoughts –

First- O Lord! Grant me sufficient to enable me to eat well, and continue to lead the life.

Second- O Lord! Grant me enough so that I can feed myself as well as the  Sadhu (guest) at my door.

And the Third- I aspire for the limitless. I should continue to obtain unabated, much more than anyone else. I should have so much that it cannot be counted.

 

All three above  values depend on the basic nature of the person. The third value is very intense – it is the sense to get the maximum, much more than the necessity. The need to have much more extra after fulfillment of all requirements. Such feeling denotes insufficiency of the sufficient. However, this is a double-edged sword. You never get satiated with your actions. The happiness and peace disappears from the life. Therefore, first you need to determine – who is deciding your limits of sufficiency? Are you determining it, or are your neighbors, relatives, friends, enemies or society making this decision. If you make this decision, and set your own goals, then you will certainly perform the required actions, and will never get tired. You will continue to work peacefully. However, if others are setting up the limits of sufficiency on your behalf, then you are nothing more than an unstable pitcher-pot, which everyone continues to tilt away. Your thoughts lack any definite basis and you do not have any definite goals. Others continue to push you in this rat race of the society. You are not running with your own mind. Someone else continues to push and bump you. Now, how will you obtain happiness, pleasure or peace in such situation?

There were two pots on a water-stand – one small and one very big. The thirsty always used the small pot to squench their thirst, because its water became colder quickly. The water in bigger pot used to take a lot of time to get cold. Your requirements follow a similar analogy.  You have to determine how important your needs are and why so? Do you want to fulfill these needs for your own self, or for someone else?

The day your realize this, you will automatically obtain the twin bliss of pleasure and peace yourself. Because the needs are your own, you are fulfilling them for your own self, and you are obtaining pleasure yourself while fulfilling them. This is the Self-Love, i.e. giving importance to own self.

Two factors reduce your pleasure – first comparing your happiness with others, and secondly focusing on your own sorrows. You can add as much as you want, you will never obtain pleasure or peace in such scenarios

 

You will definitely obtain what is sufficient, along with the limitless. You will get pleasure and happiness. You just need to determine your goals with your mind. The pleasure and peace reside within your own mind. However, you continue to wear the eye-glasses of limitless infinity on your eyes. These illusion glasses continue to give you inadequacy and insufficiency. You just need to determine the degrees of your sufficiency.

Both of us – You and I are progressing together on this path of  pleasure, peace and happiness. This is why you have to hold Guru’s fingers. Guru has already offered you His hand.  The inadequacy will certainly end, and you will definitely obtain the sufficiency according to your own mind. This is my blessing …

 

Nand Kishore Shrimali

error: Jai Gurudev!