Brahmavarchasva Shishyabhishek Mahadiksha (Dec 24,25)

ब्रह्मवर्चस्व शिष्याभिषेक महादीक्षा
ॐ ब्रह्मानन्दं परम सुखदं केवलं ज्ञान मूर्तिं
द्वन्द्वातीतम् गगन सदृशम् तत्त्वमस्यादि लक्ष्यम्

 


जनमानस के मन में ब्रह्म शब्द के प्रति जिज्ञासा है। एक उत्सुकता है मन में यह जानने की प्रत्येक साधक की, कि क्या वह ब्रह्मत्त्व का अधिकारी है? क्या वह ब्रह्म तत्त्व का वर्चस्व अपने जीवन में स्थापित कर पाएगा? क्या जीवन की न्यूनताओं और दुःखों का वह संहार कर पाएगा? ये प्रश्‍न साधक को मथते हैं और इनके उत्तर की खोज में वह साधना के सोपानों पर एक-एक कदम रखता हुआ आगे बढ़ता है।

 

साधना में सफल होने के लिए सधना पड़ता है, या कोशिश करनी पड़ती है। पर अकेले आपकी कोशिश उस साधना को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त नहीं है, इसीलिए तो गुरु, दीक्षा के रूप में अपनी तपस्या का अंश शिष्य में प्रवाहित करते हैं और यह कार्य वही गुरु कर सकता है जो स्वयं पूर्ण हैं। प्राचीन काल में गुरु वशिष्ठ, विश्‍वामित्र, अत्रे, कणाद, भारद्वाज, जमदाग्नि, गौतम आदि ने अपने शिष्यों को दीक्षाएं प्रदान की और उस परंपरा का पुनरुत्थान सद्गुरु ने पुनः किया। सद्गुरु निखिल ने दीक्षा संस्कार, निखिल साधकों के लिए साधना में सफलता हेतु एक अनिवार्य परम्परा के रूप में स्थापित किया।

 

लाखों साधक दीक्षित होकर भौतिक जीवन में पूर्णता प्राप्ति के पथ पर आगे बढ़े। अनेक साधक आध्यात्मिक पूर्णता की दिशा में बढ़े, पर फिर भी कहीं कुछ कमी सी रह गई है।

 

जो इस कमी को पूर्ण करने के लिये क्रियारत हैं, साधनारत हैं वे ही शिष्य हैं। अवसाद्, दुःख जीवन के अंग हैं। जब गुरु जीवन में आते हैं तो इस अवसाद, दुःख को पूर्ण करने की शक्ति प्रदान करते हैं।

 

एक साधे सब सधे

 

आपकी जिन्दगी की समस्याएं सुरसा-रूपी हो गई हैं। आप बढ़ते हैं, पर दोगुने परिमाप से समस्याएं बढ़ जाती हैं। इस कारण से आप अधीर हो जाते हैं और शॉर्टकट खोजने लगते हैं। पर समस्याओं के संहार के लिए शॉर्टकट अपनाना आपको समस्याओं के भंवर जाल में और अधिक उलझा देता है, फिर थक हार कर आप गुरु से मिलते हैं तब तक आपका मन निराशा की गर्त में डूब चुका होता है।

 

कैसे स्थापित करें ब्रह्म वर्चस्व

 

साधारण शब्दों में ब्रह्म की व्याख्या की जाए तो यह एक सर्वोपरि सत्ता है, जिसके ऊपर कुछ भी नहीं है, कोई भी नहीं है। ब्रह्म में पूर्णता है, उसमें आनन्द का प्रवाह है और वह प्रत्येक द्वन्द्व के परे है।

 

पूर्णता वह अवस्था है जो स्वयं में संतुष्ट है, उस स्थिति में ‘काश’ जैसे शब्द नहीं होते। शास्त्रों में बार-बार ‘पूर्णमेव पूर्णमदं’ का सिद्धान्त उच्चरित हुआ है, अर्थात् आप सभी पूर्ण हैं। अंतर सिर्फ इतना है कि आपको आपकी पूर्णता का आभास नहीं है और गुरु को इस बात का विश्‍वास है कि आपकी आंखों पर अज्ञान का पर्दा है और गुरु आपकी आंखों से उस अज्ञान रूपी अंधकार के पर्दे को हटा देते हैं।

 

अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानान्जन शलाकया
चक्षुरन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरुवै नमः।

 

जब आपके जीवन में पूर्णता का प्रवाह होता है तो एक अद्भुत आनन्द का सृजन होता है। आप उस स्टेज पर पहुंचते हैं जिसमें आप भौतिक जीवन में इन्द्रलोक का सुख भोगते हैं और आध्यात्मिक जीवन में सिद्धाश्रम गमन की अवस्था को प्राप्त करते हैं।

 

जहां भौतिकता और आध्यात्मिकता के दोनों पक्ष समान रूप से सबल और संयुक्त हो जाते हैं, वह स्थिति ब्रह्म वर्चस्व की स्थिति है। उस स्थिति में जहां राजा जनक थे, ब्रह्मर्षि विश्‍वामित्र थे जिन्होंने एक नवीन स्वर्ग रच दिया और यही जीवन में पूर्णत्व की स्थिति है।

 

पूर्णता और संन्यास सर्वथा भिन्न हैं। पूर्णता युक्त जीवन में ब्रह्मत्त्व को स्थापित करने की उत्कंठा है।

 

किसी समय बुद्ध से किसी शिष्य ने प्रश्‍न किया। तथागत आपका कहना है कि हम सब में ब्रह्म का अंश है, पर मुझे ऐसा अनुभव क्यों नहीं होता? तथागत ने तत्काल कोई उत्तर नहीं दिया। उन्होंने शिष्य को मिट्टी के दस घड़े लाने की आज्ञा दी और ध्यान मग्न हो गए।

 

शाम ढ़ली तब बुद्ध ने उनमें से पांच घड़ों को खुले आकाश के नीचे रख दिया। वह अमावस की रात थी, घुप्प अंधेरी रात जैसे हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा हो। फिर बुद्ध ने जिज्ञासु शिष्य से प्रश्‍न किया कि क्या इन घड़ों में कुछ है? शिष्य का उत्तर था कि प्रत्यक्ष तौर पर घड़े खाली हैं, शून्य है पर इस शून्य में भी अन्तरिक्ष का वास है इसलिए हर घड़े में घट आकाश है। बुद्ध शांत हो गए शायद शिष्य के जवाब से संतुष्ट थे।

 

14 दिनों के बाद बुद्ध ने बचे पांच घड़े रात के समय आसमान के नीचे रखने की आज्ञा दी। शिष्य थोड़ा हैरान हुआ, पर गुरु आज्ञा तो गुरु आज्ञा होती है।

 

शिष्य घड़े ले आया, वह पूर्णिमा की रात थी, शरद पूर्णिमा की। चंद्रमा अपनी पूरी कलाओं के साथ खिला था।

 

बुद्ध ने पुनः उसी प्रश्‍न को दुहराया कि इन घड़ों में क्या है? शिष्य ने कहा – पिछली बार की तरह, इस बार भी घट-आकाश ही है इन घड़ों में।

 

तथागत ने पुनः कहा कि थोड़ा ध्यान देकर फिर से देखो। शिष्य ने घड़ों में झांका-चंद्रमा की स्निग्ध चांदनी का प्रकाश भी जगमगा रहा था उन घड़ों में।

 

तथागत 14 दिन पूर्व के घटनाक्रम पर गए और कहा कि इन सभी घड़ों में आकाश व्याप्त है जो कि ब्रह्म है। वह अजन्मा और अविनाशी है, पर पूनम के चांद की रोशनी जिन घड़ों में व्याप्त है उनमें उजाला है।

 

इस प्रकार ब्रह्म हम सभी के हृदय में है, पर जिन्होंने गुरु की शक्ति से अपने तार जोड़े हैं, उनके हृदय में प्रकाश है। इस उजाले में वे अपने मन में ब्रह्म का वर्चस्व देख पा रहे हैं। ब्रह्म वर्चस्व दीक्षा के द्वारा गुरुदेव सबके हृदय में ब्रह्म के प्रकाश को जगाना चाहते हैं। जिससे आप अपना वास्तविक रूप देख सकें, अपना वास्तविक प्रयोजन समझ सकें।

 

जीवन का ध्येय- ब्रह्म की प्राप्ति

 

प्रत्येक व्यक्ति अमृत की सन्तान है। वह अमृत से निर्मित है और मरणधर्मा मानकर स्वयं को जीता है। बाधाओं से डर कर कौने में दुबक कर देवी-देवताओं के आगे गिड़गिड़ाता है। भीख मांगता है इच्छाओं की पूर्ति हेतु पर फिर भी इच्छाएं अधूरी रह जाती हैं। उन क्षणों में भाग्य का अवलम्ब लेकर मन को ढांढ़स बंधाता है।

 

इस प्रकार के जीवन को गुलामी कह सकते हैं, पर क्या ब्रह्म के अंश बाधाओं के समक्ष हारने के लिए बने हैं? निखिल-शिष्यों के लिए तो ऐसी सोच कदापि नहीं है। इसलिए गुरु आपके जीवन में आए हैं। गुरु आपसे अभिन्न हैं। उन्हें आपकी बाधाओं का भान है और उन दुःखों से पार कैसे जाया जाए, इसका ज्ञान है। गुरु आपको उन साधनाओं से अवगत कराते हैं उन मंत्रों का ज्ञान देते हैं जिनके द्वारा आप बाधाओं पर विजय प्राप्त कर सकते हैं।

 

क्या है साधना?

 

साधना में सम्पर्क स्थापित किया जाता है, देवी-देवताओं से। जैसे देश के प्रधानमंत्री को सभी जानते हैं, पर प्रधानमंत्री अगर आपको जानते हैं तब आप विशिष्ट कृपा के अधिकारी बन सकते हैं।

 

साधना में देवी-देवताओं से खास सम्बन्ध बनाया जाता है और इसके लिए वे मंत्र दिए गए हैं जिनके द्वारा उस देवी-देवता की शक्ति का आह्वान किया जाता है। इस बार आप घुटनों पर बैठे गिड़गिड़ाते नहीं है, वरन् आप देवी-देवता की शक्ति से सम्पर्क साधते हैं। यह कार्य इतना सहज नहीं है, इसलिए साधना से पूर्व आपके गुरु, दीक्षा के द्वारा आपमें उस साधना से संबंधित तपस्या का अंश प्रवाहित करते हैं।

 

बचपन में जब आप पिताजी के साथ दशहरे का मेला देखने जाते थे तो अक्सर पिताजी आपको अपने कंधे पर बिठाकर मेला दिखाते थे क्योंकि आपकी ऊंचाई कम थी और सारे बड़े लोगों के बीच में घिर कर आपको मेला दिखाई ही नहीं देता।

 

उसी तरह गुरु, दीक्षा के द्वारा आपकी साधना को ऊंचाई देते हैं जिससे आप सफलता, शीघ्रता के साथ प्राप्त करें।

 

मृर्त्योमा अमृतगमयं की यात्रा

 

ब्रह्म वर्चस्व की यात्रा साधनाओं को सम्पूर्ण समग्रता के साथ स्वयं में स्थापित करने की यात्रा है। इस यात्रा में अमृत की सन्तान साक्षात अमृत बन जाते हैं, पर इससे पूर्व यह जानना जरूरी है कि कैसे ब्रह्म का वर्चस्व आप स्वयं में स्थापित करेंगे।
योग के अनुसार हृदय में एक सौ एक नाड़ियां हैं। इनमें से एक नाड़ी सुषुम्ना है और इस नाड़ी के द्वारा आप मूलाधार में स्थित अपनी ऊर्जा को सहस्रार में प्रवाहित करते हैं। इसी क्रिया द्वारा आप पशु से अलग होकर अपने भीतर ब्रह्म का वर्चस्व बना पाते हैं।

 

मौलिक तौर पर मनुष्य और पशु दोनों में समान प्रवृत्तियां होती हैं पर मनुष्य जब वास्तविक अर्थों में जग जाता है तब वह ब्रह्म को अपने भीतर उतारना शुरू करता है। यह यात्रा आत्मा के ऊपर पड़ी परतों को उतारने की यात्रा है।

 

अभी आपकी आत्मा बहिर्मुखी आत्मा है जो बाहर की तरफ देखती है। बाहर जो भी सुख और दुःख हैं उनसे प्रभावित होती है। जब आप बाहर की दुनिया से कटते हैं, तब आप अंतर आत्मा की तरफ मुड़ते हैं जो सम-भाव की स्थिति है जिसमें ना तो दुःख में उद्वेग है और ना सुख में अतिशय हर्ष है क्योंकि अंतरात्मा जानती है कि ॠतुओं की तरह सुख और दुःख भी आते-जाते रहते हैं।

 

इन दोनों स्थितियों से अलग परमात्मा हैं, आपका ब्रह्म, अपने में ठहरा हुआ और आपको उसी में मिल जाना है, प्रतिक्षण आपको उस ओर बढ़ना है गंगा नदी की तरह जो सागर में मिलने के लिए उत्सुक है।

 

इस स्थिति को ब्रह्म वर्चस्व कहते हैं क्योंकि तब आपके सहस्रार में सहस्र दलों वाला कमल फूल खिलता है। कमल कीचड़ में उगता है, उसी प्रकार आपका शरीर दूषित है, उसे शुद्ध करने के लिए अनेक प्रयास किए जाते हैं, पर अशुद्धि बरकरार है।

 

जब गुरु मिलते हैं, तब आप पहली बार ब्रह्म को देखते हैं, सोचते हैं कि कैसी शांति है चेहरे पर मेरे गुरु के। मन में विचार आता है काश मैं भी उस ब्रह्म आनन्द रूपी शांति का स्वाद चख पाता। काश! मैं भी अपने जीवन के अभावों से निवृत्ति पा-पाता इसलिए तो गुरु मिले हैं कि आपको अपने जैसा बना दें, क्योंकि गुरु पारस पत्थर से भी श्रेष्ठ हैं। पारस तो सिर्फ लोहे को सोना बना देता है, पर गुरु आपको अपने जैसा बना देते हैं।

 

पूर्ण गुरु ब्रह्म हैं और वे शिष्य को भी ब्रह्म स्वरूप बना सकते हैं। इसके लिए शिष्य को अपने आप को पूर्णतया गुरु में समाहित कर देना पड़ता है।

 

ब्रह्म वर्चस्व दीक्षा गुरु में समाहित हो जाने की क्रिया है गुरु जो सागर हैं उनमें शिष्य रूपी नदियां समाहित हो जाएंगी और बदले में सभी सागर बन जाएंगी। उसी की तरह भव्य और जल से लबालब। सागर बनी नदी को ना तो बरसात का आसरा रहेगा और ना ही सूरज की तपती किरणों से भय।

 

सारी शंकाओं, सारी बाधाओं के संहार (शमन) होने की क्रिया को ब्रह्म वर्चस्व कहा गया है क्योंकि जब आपमें ब्रह्म का आधिपत्य है तब भय कैसा? बाधाएं किस प्रकार की, सिर्फ आनन्द की स्थिति होती है क्योंकि भौतिकता और आध्यात्मिकता के दोनों पक्ष पूर्ण रूप से अभिव्यक्त होते हैं आपमें और इसलिए प्रत्येक निखिल साधक को 24-25 दिसम्बर को आरोग्यधाम आना है।

 


ब्रह्म वर्चस्व की यात्रा सोचने से नहीं होती है, चलने से होती है आप इसकी चिन्ता मत करो कि यात्रा लम्बी है, यह भी मत सोचो कि मैं थक जाऊंगा। आप तो बस आगे बढ़ो क्योंकि जिसे पाना है वह आप में ही है।

24-25 December 2017

Brahmaavarchasva Shishyaabhishek Maha Diksha

 

Om Brahmaandam Param Sukhadam Kevalam Gyaan Moortim

Dwandwaateetam Gagan Sadreashm Tatvamasyaadi Lakshyam

 


The general public has deep curiosity about the word Brahma. Every Sadhak is eager to know, if he is eligible to attain the  Brahmattvata? Will he be able to instill the supremacy of Brahma Tatva principles in his life? Will he be able to destroy the shortcomings and sorrows within his life? The Sadhak constantly debates about these questions and he proceeds  through various stages of Sadhana in pursuit of these answers.

One has to inculcate discipline, hard-work and exertions to achieve success in Sadhana. However your own efforts are not enough to successfully accomplish the Sadhana. Therefore, Guru transfers a portion of His own penance into the disciple, and only a Supreme-Perfect Poorna Guru can do this. Guru Vashishta, Vishwamitra, Atri, Kanaad, Bhardwaj, Jamadagni, Gautam etc. granted Diksha to their disciples in the ancient times, and SadGuru resumed the revival of that tradition. SadGuru Nikhil established the Diksha-initiation as a mandatory sacrament for Nikhil Sadhaks, to achieve success in Sadhana.

Millions of Sadhaks treaded ahead towards perfection in material life after receiving Dikshas. Many Sadhaks moved ahead in the direction towards spiritual perfection. However, something seems to be amiss.

Only those who are actively trying to resolve this deficiency, through Sadhanas, are the real disciples. The sorrows and depressions are parts of the life. Guru grants us power to resolve these depressions and sorrows.

 

A Singe Solution

The problems of your life have become gigantic. You try to solve them, but they increase manifold. You get impatient and start to  search for shortcuts. However adoption of a shortcut for resolution of the problems engulfs you more deeply in the complex cesspool. You are terribly depressed by the time you finally meet Pujya Gurudev.

 

How to Set Up Supremacy of Brahma

A simple interpretation of the word Brahma indicates that it is the paramount power. There is absolutely nothing, no-one, higher than Brahma. Brahma is the perfection, full of divine joy, and it is beyond any debate.

Perfection is the state of being completely satiated within itself. Words like “if” do not exist at this state. The scriptures have repeatedly stressed on the “Poornameva Poornamadam” principle, i.e. all of you are Poorna or Perfect. The only difference is that you are completely ignorant about your own Perfection. Guru recognizes the presence of  the veil of ignorance over your eyes, and He casts this curtain of ignorance away from your eyes.

 

Agyaan Timiraandhasya Gyaanaanjana Shalaakayaa

Chakshuranmeelitam Yena Tasmei Shree Guruvei NamaH |

 

The divine flow of perfection in your life creates a wonderful joy within you. You achieve the state of enjoying pleasures of heaven in physical life and entrance into Siddhashram in the spiritual life.

When both materialism and spiritualism aspects become equally strong and united, then the state of Brahma supremacy is attained. This was the state of King Janaka and Brahmarishi Vishwamitra who created a completely new heaven. This is the state of perfection in life.

Perfection and asceticism are completely different concepts. The Perfection is the longing within the life to attain Brahmattva.

Once a disciple questioned Buddha – “O Tathagat, you state that all of us are a part of Brahma, but why don’t I feel such experience? Tathagat did not respond immediately. He ordered the disciple to bring ten pots of clay and got immersed in the meditation.

In the evening, Buddha placed five of those pots under the open sky. It was Amavasya dark-moon night, so dark that even hand was invisible. Then Buddha asked the inquisitive disciple whether he could find anything in these five pots. The disciple’s answer was that the pots were visibly empty. However, the emptiness of space is similar to the dark vastness of space, and therefore, these pots contain space.  Buddha became calm, perhaps satisfied with the answer of the disciple.

After 14 days, the Buddha ordered to place the remaining five pots under the sky at night. The disciple got slightly surprised, but he had to obey the commands of the Guru.

The disciple brought the pots. It was the full moon night of Sharad Poornima. The moon was radiant in its full eminence.

Buddha repeated the same question  again, whether he could find anything in these five pots. The disciple replied that the pots contain the space, just like the last time.

Tathagata asked him to peer inside again with more concentration. The disciple peered inside the pots and noticed that the inside of the pots were radiant with shine  in the bright light of the moon.

Tathagat recalled the events of 14 days ago and stated that all these pots are full of space, which is Brahma. It is unborn and indestructible, but the pots containing the light of the full moon are brightly shining.

Similarly Brahma is present within the heart of everyone, but the hearts of those who have merged their life with the divine powers of Guru, are resplendent in bright light. This bright light is enabling them to see the supremacy of Brahma in their mind.  Gurudev wishes to awaken the divine  light of Brahma within everybody’s heart through the Brahma Varchasava Diksha. This will enable you to see your real form, and comprehend your actual purpose.

 

The purpose of life – The realization of Brahma

Each person is the child of nectar. He originated from Divine nectar and he leads his life in pursuit of death. He pleads to Gods and Goddesses to eradicate his fear of obstacles and troubles. He begs for fulfillment of his desires, yet his wishes still remain unfulfilled. He uses the shelter of fate to pacify his mind.

Slavery is the most apt word to describe such a life. Is it the right way to lead your life? Should these personas of Brahma accept defeat before mere obstacles? Nikhil-disciples should never even think about bowing before such obstacles, as the Guru has entered into your life. Guru is  integral to you. He is aware  of your troubles and has knowledge to surmount these obstacles. Guru teaches you the Sadhanas, He imparts knowledge of the mantras,  through which you can overcome all obstacles.

 

What is Sadhana?

Sadhana is the medium to establish contact with Gods-Goddesses. For example, everyone knows the Prime-Minister of the country. However, you can obtain special privileges, if the Prime-Minister knows you personally.

Sadhanas enable us to establish special relationships with Divine Deities. The divine powers of  Gods-Goddesses are invoked through specific Mantras. You do not beg for favours from these deities, rather you set-up direct contact with their divine powers. It is not a simple-trivial process, therefore Guru imparts a part of His penance through Diksha-initiation for the Sadhana.

In your childhood, you would have sat on the shoulders of your father to view the  Dussehra fair through the large surroundings crowds, due to your low height.

Similarly, Guru elevates your spiritual Sadhana level, to ensure your quick success.

 

Mrityormaa to Amritgamaya

The journey to attain Brahma supremacy is the path of imbibing the full essence of Sadhanas within our own self. The children of divine elixir themselves become immortal nectar, but before achieving this, it is necessary to understand the process to  establish the supremacy of Brahma within your own self.

The Yoga philosophy states that one hundred naadis-pulses exist within the heart. Sushumna is one of these pulses, and you can use this pulse to transmit your energy from Muladhaar to Sahastrahaar. This process will enable you to transition away from your animal-state and setup the Brahma supremacy within your inner self.

Both humans and animals have same basic instincts, but an activated-awakened human can start to imbibe Brahma within his own self. This is the path to unravel the multiple layers covering the soul.

Currently your soul is an extrovert soul who looks outwards. It gets influenced by the external happiness and sorrow. When you cut yourself off from the external world, then you turn towards the inner soul. This is the balanced sentiment, devoid of any misery in sorrow or joy in happiness. The inner conscience understands that happiness and sorrow are as transient as the monthly seasons.

The Almighty Brahma is completely distinct from these two above situations. Your own Brahma is within your own self, and you have to merge within this Supreme, you ought to proceed ahead towards the Supreme, with the eagerness of Ganga river to unite with the deep sea.

Such a situation is called Brahma Supremacy, as it leads to blossoming of thousand-petalled lotus within your own Sahastraar. The lotus flower originates in mud. Your body is similarly impure, and will continue to remain impure regardless of multiple attempts to purify it.

When you meet Gurudev, then you  see Brahma for the first time,  and you start to ponder about the unlimited peace of face of your Guru. Your mind starts to hope for an opportunity to taste the joys of this Brahma Anand peace. You start to desire riddance from the deficiencies of your own life. You have come into contact with Gurudev to become one like Him. The Guru is much superior to the Paras (Philosopher’s) stone. The Philosopher stone can only turn iron into gold, whereas Guru converts you into like Him.

The Supreme Guru is Brahma and He can transform a disciple into the  Brahma form. The disciple needs to merge himself completely within the Guru to achieve this.

Brahma Varchasava Diksha is the process to merge within the Guru. All the disciples will merge into the Guru like multiple rivers merge into the ocean, and all of them will transform into the ocean. They will attain similar magnificence, full of water. A sea neither fears scorching rays of Sun, nor is dependent on rainfalls to replenish itself.

Brahma Varchasav is the process to decimate all doubts and destroy all obstacles. The fear evaporates within the Supremacy of Brahma. The obstacles are just the other side of  joy, as both materiality and spirituality are fully balanced and expressed within your own self. Therefore every Nikhil disciple will come to Arogyadham in Delhi on 24-25 December.


The journey of Brahma Varchasava does not begin by thoughts alone, you need to tread on this path yourself. Do not worry about the length of the journey, or the accompanying fatigue. You just need to proceed ahead, as you have already got what you require within your own self.   –  Gurudev Nand Kishore Shrimaliji

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