साधनात्मक जीवन में सफलता – Success in Sadhana Life

साधनात्मक जीवन में सफलता
निरन्तरता
श्रद्धा और विश्‍वास
निरन्तर ध्यान और स्मृति

स तु दीर्घकाल नैरंतर्य सत्काराऽऽसेवितो दृढ़भूमिः॥
श्रद्धा पूर्वक लगातार दीर्घकाल तक साधना करने से साधक में दृढ़ता, स्थिरता और निपूणता आती है।


प्रत्येक साधक को साधना करते समय तीन बातों का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए। सबसे पहले साधना का अभ्यास पूर्ण निष्ठा के साथ किया जाए। दूसरी आवश्यक बात है – उसमें निरन्तरता हो और तीसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि – उसे साधना दीर्घकाल तक करते रहना चाहिये। जब साधक उपर्युक्त तीनों शर्तों को पूरा करता है तो उसका अभ्यास श्रेष्ठ रूप से दृढ़ होता है और वह उसके स्वभाव का अंग बन जाता है। ज्यादातर यह देखा गया है कि प्रारम्भ में साधक अत्यन्त उत्साही होता है परन्तु जैसे-जैसे समय बीतता जाता है, उसका विश्‍वास डग-मगाने लगता है लेकिन जो साधक अपने वर्तमान जीवन में ही, अपने जीवन का परम लक्ष्य प्राप्त करना चाहते हैं, किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें इस स्थिति को आने ही नहीं देना चाहिये। भौतिक साधना हो अथवा आध्यात्मिक साधना हो, किसी भी ठोस उपलब्धि तक पहुंचने से पूर्व अपनी साधना में ढील नहीं देनी चाहिए।

करना है निरन्तर

निरन्तरता शब्द स्वयं में बड़ा महत्वपूर्ण है। इसका अर्थ है – अबाधित साधना।’ निरन्तरता इसलिये महत्वपूर्ण है कि यदाकदा साधना में व्यवधान पड़ते रहते हैं जिससे साधक अपनी साधना के लाभ से वंचित रह जाता है। निरन्तरता से मानसिक और आध्यात्मिक परिपक्वता आती है। साधक के लिये यह अत्यन्त आवश्यक है और उसके लिये लम्बे समय तक साधना आवश्यक है। कुछ साधकों में यह भ्रम पाया जाता है कि मात्र कुछ महीनों के अभ्यास द्वारा ही पूर्ण आध्यात्मिक विकास, मानसिक विकास हो जाता है लेकिन यह सोच गलत है। अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये तो कई-कई वर्षों तक निरन्तर प्रयत्न करना पड़ता है। इसमें अधैर्य के लिये कोई जगह नहीं है। इसलिये साधक को कभी भी किसी भी प्रकार की जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। प्राचीन साहित्य में ऐसी अनेक कथाएं मिलती हैं। जिनमें यह बताया गया है कि अपनी साधना के उच्चतम लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु अनेक जन्मों तक धैर्य पूर्वक साधना करनी पड़ती है। मूल बात दीर्घकालीनता की नहीं है, मूल बात है – व्यवधान रहित साधना है। साधक को कभी भी हिम्मत नहीं हारनी चाहिए। श्रद्धा और लगन पूर्वक अभ्यास में जुटे रहना चाहिए।

साधना में श्रद्धा अनिवार्य तत्व है क्योंकि अपनी स्वयं की श्रद्धा ही साधक को साधना में धैर्य और ऊर्जा प्रदान करती है। श्रद्धा के द्वारा ही वह विपरीत परिस्थितियों पर विजय प्राप्त कर सकता है। यदि साधक के मन में दृढ़ श्रद्धा और विश्‍वास हो तो निश्‍चय ही वह लक्ष्य को प्राप्त कर लेगा, तब इस बात का कोई महत्व नहीं रह जाता है कि उसे अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिये कितना समय लगेगा। समय और श्रद्धा का आपस में कोई सम्बन्ध नहीं है।

साधक को इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि जो साधक की सबसे प्रिय वस्तु है, प्रिय विषय है – उसकी साधना करनी चाहिए। जिस प्रकार एक माता अपने बच्चे के समय पर घर न लौटने पर चिन्तित और परेशान हो उठती है, ठीक उसी प्रकार जब साधक को अपनी साधना में व्यवधान आ पड़े तो उसे चिन्तित और परेशान होना ही चाहिए। जिस प्रकार साधक को अपने शरीर से प्रेम और लगाव होता है, उसी प्रकार का लगाव, उतना ही लगाव अपनी साधना से भी होना चाहिए। जिस प्रकार व्यक्ति अपने प्रिय भोजन, मिष्ठान के प्रति आकर्षित होता है। उसी प्रकार उसे अपनी साधना के प्रति भी आकर्षित होना चाहिए। यह निश्‍चित है कि – उपयुक्त अभ्यास पूर्ण निष्ठा, प्रेम और आकर्षण के साथ किया जाए तो उसका वांछित परिणाम निश्‍चय ही प्राप्त होता है।

साधना को कभी भी अपने ऊपर लादी हुई वस्तु अथवा दिनचर्या का भाग नहीं समझना चाहिए। उसे तो पूर्ण स्वेच्छा पूर्वक ग्रहण करें।

सत्काराऽऽसेवितो दृढ़भूमि…

साधना का आदर करें, सत्कार करें। उसे स्वीकार करें। उसका स्वागत करे। सत्कार शब्द का अर्थ – समर्पण, सम्मान और निष्ठा से है। यदि साधक में ये तीन विशेषताएं हैं तो वांछित परिणाम निश्‍चय ही प्राप्त होता है। जिसके लिये यह आवश्यक है कि निरन्तर और निरन्तर आत्म निरिक्षण करते रहें। श्रेष्ठ मानसिक सत्संग करते रहें। सत्संग का अर्थ है – साधना के साथ अपने भाव को जोड़ना। इसी से तो साधना के प्रति अपना लगाव उत्पन्न होता है।

श्रद्धा पूर्वक, विश्‍वास पूर्वक, लगन पूर्वक दीर्घकाल तक अभ्यास किया जाए तो चित्त की, मन की सभी वृत्तियों का निरोध हो सकता है और मानसिक सुचिता, पवित्रता और संतोष का जागरण होता है।

साधना केवल ईश्‍वर भक्ति नहीं है। जीवन के किसी भी क्षेत्र में किसी भी कार्य हेतु पूर्ण श्रद्धा, विश्‍वास और लगन पूर्वक दीर्घकाल तक अभ्यास करते रहें। सफलता अवश्य प्राप्त होगी।

श्रद्धावीर्यस्मृति समाधि प्रज्ञापूर्वक इतरेषाम्॥

साधक को पूर्ण केवल्य ज्ञान की प्राप्ति अपनी साधना द्वारा अर्जित श्रद्धा, दृढ़ आत्म बल, स्मृति और प्रतिभा द्वारा ही होती है। 

लाखों-लाखों व्यक्तियों में एक-दो व्यक्ति ही पूर्ण योगी होते हैं। जिन्हें जन्म से ही कैवल्य ज्ञान प्राप्त होता है और उन्हें विदेह कहा जाता है। प्रत्येक साधक को पूर्ण ज्ञान के लिये अनेक विधियों का दीर्घकाल तक निरन्तर और नियमित अभ्यास करना पड़ता है। इसके लिये चार सूत्र ही प्रमुख हैं – श्रद्धा, दृढ़ आत्मबल, स्मृति और प्रतिभा।

श्रद्धा सत्य का द्वार है

सबसे महत्वपूर्ण श्रद्धा ही है। श्रद्धा शब्द को दो भागों में विभक्त कर सकते है। ‘श्र’ का अर्थ सत्य होता है और ‘धा’ अर्थ धारण करना होता है। अंग्रेजी भाषा में श्रद्धा के लिये ‘षरळींह’ शब्द प्रत्युक्त किया जाता है। परन्तु षरळींह श्रद्धा का पर्याय नहीं है। षरळींह डिगमिगा सकता है जबकि विश्‍वास दृढ़ (अडिग) होता है। श्रद्धा सत्य को समझने के पश्‍चात् ही आती है। श्रद्धा का उदय अनुभव से होता है। विश्‍वास को दूसरे लोगों से सीखा जा सकता है लेकिन यह सत्य का रूप नहीं हो सकता है। व्यक्ति की श्रद्धा कभी भी धोखा नहीं देती है। प्रत्येक साधक में श्रद्धा आवश्यक गुण है और यह विश्‍वास से भिन्न है। सत्य के दर्शन के पश्‍चात् ही श्रद्धा का उदय होता है। शंकराचार्य जब अपने गुरु गोविन्दपादाचार्य के पास पहली बार पहुंचे तो उन्हें सत्य का आभास हुआ और यह आभास ही सत्य के मार्ग का पहला कदम (श्रीगणेश) साबित होता है।

गुरु अपनी शक्ति द्वारा शिष्य को सत्य का अनुभव कराते हैं अथवा पूर्ण आनन्द की झलक दिखलाते हैं और यहीं से श्रद्धा का जन्म होता है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि ज्यादातर साधकों में श्रद्धा नहीं बल्कि विश्‍वास होता है। श्रद्धा तो हजार-हजार साधकों में से एकाध में ही होती है। श्रद्धा वही जान सकता है जिसमें अपने मानस में एक ही क्षण में सत्य की एक झलक प्राप्त कर ली हो। सत्य की उस झलक को प्राप्त करने के पश्‍चात् वह उस मार्ग पर दृढ़तापूर्वक गतिशील हो जाता है।

साधक का दूसरा आवश्यक गुण वीर्य अथवा ऊर्जा है। यह ऊर्जा भौतिक और मानसिक होती है। साधना क्षेत्र में, कैवल्य ज्ञान क्षेत्र में ऊर्जा का अर्थ पराक्रम और साहस होता है। इसी साहस  के बलभूते पर साधक अपने साधना मार्ग, योग मार्ग, ज्ञान मार्ग में आने वाली बाधाओं पर विजय प्राप्त करता है। इसके लिये उसमें दृढ़ आत्मबल होना आवश्यक है। किसी भी कीम्मत पर निर्धारित साधना को निरन्तर जारी रखना चाहिये। और मन पर पूरा नियन्त्रण होना चाहिए। नियन्त्रित मन ही साहस, वीर्य अर्थात् ऊर्जा से लबालब भरा हुआ होता है। वेदों में एक प्रार्थना आती है –

ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥

जिसमें ॠषि वीर्य और ओजस की कामना करते हैं क्योंकि इसी से साहस और ऊर्जा मिलती है।

स्मृति अर्थात् ध्यान

साधक में तीसरा गुण स्मृति होना चाहिए। यहां स्मृति का अर्थ ध्यान से है। ध्यान में साधक बार-बार अपने प्रतीक का स्मरण करता है। यह प्रतीक ‘ॐ’, शिवलिंग, मूर्ति, चित्र, चक्र, कुछ भी हो सकता है। ध्यान द्वारा चेतना के तल पर हम इसका साक्षात्कार कर सकते हैं।

साधना का अंतिम सोपान ‘प्रज्ञा’ है। सामान्य अर्थ में प्रज्ञा को बुद्धि कहा जाता है। यह बुद्धि दो प्रकार की होती है। प्रथम तो सांसारिक बुद्धि होती है, जिसके द्वारा हम अपने दैनिक जीवन में सफलता प्राप्त करते हैं। दूसरी बुद्धि हमारी उच्च चेतना होती है जो ध्यान और अभ्यास द्वारा विकसित होती है। सामान्य व्यक्तियों में इस दूसरी उच्च चेतनात्मक बुद्धि का अभाव होता है लेकिन नियमित अभ्यास से इसका विकास हो सकता है और जब ये चेतनात्मक बुद्धि विकसित होती है तो साधक तीव्र गति से प्रगति करता है। चेतनात्मक अनुभूति एक मानसिक दृष्टिकोण होता है जो आध्यात्मिक अनुभूति के लिये आवश्यक है। शंकराचार्य और विवेकानन्द आदि की उच्च चेतनात्मक बुद्धि पूर्ण विकसित थी। इसके उपरान्त भी उनके जीवन में बड़ी बाधाएं आईं क्योंकि उनका मन अनेक प्रकार के विरोधाभासों से भरा हुआ था। ईश्‍वर, धन, भाग्य आदि को लेकर उनके मन में भी बड़े-बड़े झंझावत उठते रहते थे लेकिन उन्होंने अपने आध्यात्मिक दर्शन, आध्यात्मिक रुझान, नियमित सत्संग, आत्म शुद्धि द्वारा अपने उन विरोधाभासों पर विजय प्राप्त की। अपनी आध्यात्मिक चेतना को अपनी ऊर्जा, साहस के बल पर निरन्तर और निरन्तर तीव्रतर बनाते रहे। तभी उनके जीवन की बाधाएं समाप्त होती गईं।

नियमित अभ्यास, नियमित आत्म शुद्धि और इसके साथ ही श्रद्धा ही परम ज्ञान का मार्ग है। इसके अतिरिक्त अन्य सभी मार्ग भटकाने वाले हैं। किसी अन्य मार्ग द्वारा अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंचा जा सकता है। पूर्ण शांति, संतोष और आनन्द के लिये श्रद्धा ही परम मार्ग है।
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