तुम निर्बल नहीं सबल हो जीवन्त साधक
रुकों नहीं तुम बढ़े चलो… बढ़े चलो…
जाग्रत करो कर्म भाव से अपनी शक्ति
कर्म पथ ही सार्थक जीवन है तुम्हारा
जीवन का दूसरा नाम शक्ति ही है, बिना शक्ति के तो जीवन ही कठिन है, फिर यदि जीवन रहे भी तो अशक्त जीवन मृत्यु से भी अधिक बुरा है।
अशक्त व्यक्ति संसार का कोई भी कार्य नहीं कर सकता और न वह जीवन की कोई विभूति प्राप्त कर सकता है। यहां तक कि अशक्त व्यक्ति भोजन, निद्रा आदि सामान्य सुख सुविधाओं का भी उपभोग नहीं कर सकता। अशक्त व्यक्ति, पराश्रित तथा पराधीन होकर दुःखपूर्ण जीवन ही बिताता है। अशक्तता को दुःखों का भंडार ही समझना चाहिये।
जो खुद खुश नहीं वही दूसरों को नाखुश करता है
जो सुखी रहना चाहता है, प्रसन्न रहना चाहता है, सन्तुष्ट रहना चाहता है, उसे सशक्त बनना ही चाहिये। अशक्त व्यक्ति पर सुख की प्रतिक्रिया भी विपरीत ही होती है। जो अशक्त हैं, रोगी हैं, उनके सम्मुख यदि हर्ष का वातावरण उपस्थित होता है और दूसरे अन्य लोगों के हंसने व प्रसन्न होने पर भी उसे दुःख ही होता है। इसलिये शिष्टाचार के अंतर्गत यह एक नैतिक नियम है कि निःशक्त, रोगी आदि व्यक्तियों के सम्मुख हंसना न चाहिये। कितना भयंकर अभिशाप है कि अशक्त व्यक्ति स्वयं तो हंस-बोल ही नहीं सकता, दूसरों को भी प्रसन्न नहीं रहने देता।
अशक्त व्यक्ति जहां स्वयं पर बोझ होता है, वहीं दूसरों पर भी भार स्वरूप बन जाता है। दूसरों के काम आना तो दूर रहा, उल्टे दूसरों की सेवा पर ही स्वयं निर्भर रहता है। अशक्तता भीषण अभिशाप है। मनुष्य को उससे बचने का हर सम्भव उपाय करना चाहिये। अशक्त व्यक्ति ही दूसरों की कृपा, दया और सहानुभूति का पात्र बनता है। अशक्त समाजों का ही पतन होता है और अशक्त राष्ट्र ही पराधीन बना करते हैं। अशक्त व्यक्ति ही अत्याचारों को आमंत्रित करता है और उनका शिकार बनकर दयनीय जीवन बिताता है।
शक्ति मनुष्य का स्वाभाविक गुण है। जिसे जीवन मिला है, उसे शक्ति भी मिली है, ऐसा मानना चाहिये। मनुष्य जीवन का मन्तव्य है, कर्म करना और कर्म का सम्पादन शक्ति से ही होता है। बिना शक्ति के संसार का कोई भी कार्य नहीं हो सकता है। शक्ति से धरती अन्न देती है, शक्ति से सारे कल-कारखाने चलते हैं। शक्ति से ही वनस्पति फलती फूलती और शक्ति से ही विश्व-ब्रह्माण्ड का संचालन होता है। बिना शक्ति के संसार का एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। स्पन्दन, कम्पन, सिहरन व संचलन आदि सारी क्रियायें शक्ति के ही लक्षण हैं। जो शक्ति सम्पन्न हैं, वे ही जीवित हैं और जो निःशक्त हैं वे निर्जीव जैसे ही हैं, मृत हैं। चलती हुई वायु, जलती हुई आग, झरते हुये झरने और गरजते हुये सागर सब शक्ति का ही संदेश देते हैं। शक्ति के अस्तित्व से ही मनुष्य, मनुष्य है, अन्यथा वह एक शव है, मिट्टी ही है।
संघर्ष में टिके रहना है
मनुष्य की उन्नतियां, सफलतायें और मनोवांछाएं शक्ति के सहारे ही पायी जा सकती हैं। जिसमें शक्ति नहीं, जो अशक्त हैं, निर्जीव हैं, वे न कोई उन्नति कर सकते हैं और न कोई सफलता पा सकते हैं। संसार में प्रगति करने के लिये, उन्नति करने के लिये गला काट प्रतिस्पर्धा चल रही है, कन्धे से कन्धे रगड़ रहे हैं। तब भला ऐसी दशा में जो अशक्त हैं वह कैसे ठहर सकता है? संसार के इस संघर्षपूर्ण जीवन में जो निर्बल हैं, अशक्त है, वह गिर जायेगा, कुचल जायेगा और नष्ट हो जायेगा।
अशक्त व्यक्ति न भौतिक उन्नति कर सकता है और न आध्यात्मिक। यदि कोई अशक्त व्यक्ति यह चाहे कि संसार के संघर्ष में वह नहीं टिक सका तो एकान्त में बैठकर, संसार से दूर रहकर आध्यात्मिक लाभ ही प्राप्त कर लेगा, तो वह भूल करता है। अध्यात्म के क्षेत्र में तो भौतिक क्षेत्र से भी अधिक शक्ति की आवश्यकता है। संयम, नियम, नियंत्रण एवं निग्रह आदि की साधना के लिये अनन्य मानसिक, बौद्धिक तथा आत्मिक शक्ति की आवश्यकता है। जो संसार में रहकर शारीरिक समर न जीत सका, वह अध्यात्म क्षेत्र के साधना-समर को क्या जीत सकेगा?
शक्ति अर्थात् निरन्तर गतिशीलता
शक्ति का रहस्य कर्म में छिपा हुआ है। जो क्रियाशील है, वही शक्तिशाली है, जो अकर्मण्य है, निकम्मा है, वह निर्जीव है, जड़ है। परमात्मा ने जिसे उत्पन्न किया है, जीवन दिया है, उसे शक्ति भी दी है। शक्ति के आधार पर ही शिशु बढ़ता हुआ पूर्ण मनुष्य बनता है। जिस शिशु की शक्ति क्षीण हो जाती है, उसका विकास रुक जाता है। शक्ति क्षीण हो जाने पर पेड़ सूख जाते हैं, धरती ऊसर और बीज अनुपजाऊ हो जाते हैं। शक्ति क्षीण हो जाने पर आग बुझ जाती है और पानी सड़ जाता है।
निरन्तर गतिशीलता, क्रियाशीलता ही शक्ति संवर्धन तथा सुरक्षित रहने का एकमात्र उपाय है। मनुष्य में शक्ति का एक अपार भंडार भरा हुआ है। किन्तु यदि उसका उपयोग न किया जाये तो वह बेकार हो जाता है। जिस प्रकार आहुति पर आहुति देते रहने से ज्वाला जलती रहती है, उसी प्रकार कर्म की क्षमता बनी रहती है। यदि अग्नि को आहुति न दी जाये तो उसे भस्म करने के अपने कर्त्तव्य से रहित होकर अग्नि शांत हो जाती है, निर्जीव हो जाती है। उसी प्रकार यदि शरीर से कार्य न लिया जाय तो वह निस्तेज होकर व्यर्थ हो जाता है। पानी रुक कर सड़ने लगता है और गतिहीन हो जाने से हवा दूषित हो जाती है।
कर्म तथा शक्ति जहां एक-दूसरे पर निर्भर हैं, वहीं परस्पर पूरक भी हैं। शक्ति के बिना कर्म नहीं और कर्म रहित शक्ति का ह्रास हो जाता है। अतएव शक्तिशाली बने रहने के लिये मनुष्य को निरन्तर कर्म करते रहना चाहिये।
कर्महीन मनुष्य जहां एक ओर जीवन की महान विभूतियों से वंचित रहते हैं, वहीं दूसरी ओर दुष्कर्मों के भंडार बन जाते हैं। ऐसी दशा में उनका जीवन और भी कंटकाकीर्ण बन जाता हैं। उन्हें पग-पग पर पीड़ा और त्रास मिलता है। अकर्मण्यता सारे पापों की जननी है। बेकार पड़े हुये व्यक्ति में आलस्य प्रमाद आदि प्रवृत्तियां बढ़ जाती हैं, जिनके वशीभूत होकर वह गलत मार्ग पर चल निकलता है। इसके विपरीत जो क्रियाशील हैं, व्यस्त हैं, उसे बेकार की बातों के लिये अवकाश ही नहीं मिलता। किस मनुष्य में क्या कर सकने की क्षमता छिपी हुई है, इसे कोई भी नहीं जानता। कर्म में प्रवृत्त होने पर ही उसकी शक्ति का उद्घाटन होता है। कोई भी व्यक्ति कितना ही बलवान कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो, जब तक वह कोई काम नहीं करता, उसकी शक्ति की अभिव्यक्ति नहीं होती।
कर्मक्षेत्र में चलते रहे
संसार में जितने भी महापुरुष हुये हैं, महापुरुष होने से पहले उनमें से कोई भी यह नहीं जानता था कि उनमें इतनी अपार शक्ति भरी हुई है। अपनी इस शक्ति की पहचान उन्हें तब ही हुई, जब उन्होंने कर्म क्षेत्र में पदार्पण किया। कर्म में प्रवृत्त होते ही मनुष्य के शक्ति कोष खुल जाते हैं। ज्यों-ज्यों मनुष्य कर्म-मार्ग पर बढ़ता जाता है, ज्यों-ज्यों उसकी शक्ति सामर्थ्य के स्तर एक के बाद दूसरे खुलते जाते हैं। कर्म-शक्ति रूपी अग्नि का ईंधन है मनुष्य ज्यों-ज्यों कर्म करता जाता है, उसकी शक्ति प्रज्वलित होती जाती है। कर्म से शक्ति और शक्ति से कर्म का संवर्धन हुआ करता है।
निरर्थक एवं निकम्मा बैठा हुआ व्यक्ति किसी के आदर अथवा स्नेह का पात्र नहीं बन सकता। कोई कितना ही धनवान एवं साधन सम्पन्न क्यों न हो, यदि अकर्मण्य होकर बैठा रहेगा तो वह भी किसी को अच्छा न लगेगा। लोग लालचवश उसका कुछ भी आदर क्यों न करें, पर सब दिखावा मात्र होगा। किसी भी अकर्मण्य व्यक्ति को वह श्रद्धा नहीं मिलती, जो एक कर्मवीर को मिला करती है।
भाग्यवान नहीं कर्मवान बनें
कर्मठता शरीर को पुष्ट, मन को बलवान, बुद्धि को प्रखर और आत्मा को उन्नत बनाती है। अकर्मण्य व्यक्ति का सौभाग्य सो जाता है। हो सकता है, वह संयोग, प्रारब्ध अथवा परिस्थितियों वश कुछ सम्पदा पा भी जाता है और उसके प्रमाद में अपने को निकम्मा बनाये रखता है तो वह अपना वर्तमान जीवन को तो नीरस और निर्जीव बना ही लेगा अपने आगामी जीवन के लिये भी दुर्भाग्य के बीज बो लेगा। जिन्हें सुविधायें तथा सम्भावनायें उपलब्ध हैं, उन्हें तो और भी कर्मशील होना चाहिये। आर्थिक अवरोध तथा अन्य साधारण चिन्तायें न रहने से उनके लिये अनेक महान कार्य करने का अवसर रहता है।
कर्म ही जीवन है, जीवन ही शक्ति है और शक्ति ही सारी उपलब्धियों एवं उन्नतियों का मूल है। अस्तु मनुष्य को श्रेय प्राप्त करने के लिये, शक्तिशाली बने रहने के लिये निरन्तर ही अपने अनुरूप कर्म करते रहना चाहिये।
आओ शक्ति का बोध प्राप्त करने की युक्ति से जीवन को सार्थक करें
विजय दशमी के रूप में प्रसिद्घ यह त्यौहार पूरे देश में विभिन्न नामों और तरीकों से मनाया जाता है। इसके मनाने के पीछे सामाजिक और धार्मिक परंपराएं तो हैं ही साथ ही साथ इसकी पृष्ठभूमि में कुछ पौराणिक और एतिहासिक संदर्भ भी प्रस्तुत किये जाते हैं। यह महान पर्व आदि शक्ति देवी भगवती दुर्गा की आराधना का पर्व है जो उनकी दिव्य शक्तियों से अवगत कराते हुए हमें सत्य पथ पर चलने की प्रेरणा देता रहता है। यह शक्ति स्वरूपा दुर्गा सर्व देवी-गुणों (ज्ञान, भक्ति, विवेक और वैराग्य आदि) से संपन्न आदिशक्ति मानी जाती हैं। आदिशक्ति के गुणों की चर्चा दुर्गा-सप्तशती और श्रीमद्भाग्वत पुराण नामक धर्म ग्रंथों में बड़े विस्तार से मिलती है।
ऐसा कहा जाता है कि स्वयं भगवान रामचंद्र ने लंका पर चढ़ाई से पूर्व नवरात्र में आदि शक्ति देवी भगवती की पूजा की थी। अत: आदि शक्ति दुर्गा और श्री रामचंद्र में श्रद्घा रखने वाला हर श्रद्घालु भक्त बड़े उत्साह और हर्षोल्लास के साथ विजयादशमी पर्व को व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से मनाता है। वैसे तो हर पर्व के पीछे कोई न कोई धार्मिक और आध्यात्मिक कारण रहता है, लेकिन इस महान पर्व की महिमा इसीलिए विशेष है कि इसका मुख्य संबंध शक्ति से है। जिसकी महिमा प्राचीन ऋषियों और आधुनिक वैज्ञानिकों दोनों ने समान रूप से स्वीकार की है। एक तरफ- दुर्गा सप्तशती में आदि शक्ति को सृजन और संहार से परे बताते हुए उन्हें सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक बताया गया है। शक्ति को अजर, अमर, अनादि और अनंत बताते हुए उसे हर प्राणी और वस्तु में स्थित कहा गया है। यथा –
या देवी सर्व भूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता…
और, दूसरी तरफ विज्ञान कहता है एपशीसू ळी पशळींहशी लीशरींशव पेी वशीींीेूशव अर्थात शक्ति (ऊर्जा) का न तो सृजन होता है और न विनाश होता है। केवल स्वरूप परिवर्तन होता है। परंतु देवी, जिसकी आराधना सभी आद्याशक्ति भगवती दुर्गा भक्तों ने की है, उसे शक्ति का एक चैतन्य स्वरूप माना गया है। दूसरी तरफ विज्ञान के अनुसार शक्ति उत्पत्ति और संहार से परे तो हैं, परंतु जड़ है, अचेतन है। फिर भी दोनों मान्यताओं के अनुसार यह सभी भूत प्राणियों और सभी अणु-परमाणुओं में स्थित है। स्पष्ट है- यह हर मनुष्य के अंतरतम में भी स्थित है।
इसको प्रकट करने के लिए कुछ विशेष प्रयत्न करने की जरूरत है, जिनमें अंतर्मुख करने वाले साधनों का अभ्यास सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
संयोगवश कोई व्यक्ति सच्चे सद्गुरु के संपर्क में आता है तो उसे उनसे अंतर्मुख होने वाला साधन अर्थात तत्वज्ञान की प्राप्ति होती है जिससे सच्ची शक्ति (देवी) या देवत्व की पहचान होती है। क्योंकि देवी को दुर्गा सप्तशती में ज्ञानस्वरूप भी कहा गया है। यथा –
या देवी सर्वभूतेषु ज्ञानरूपेण संस्थिता…
अर्थात वह आदि शक्ति हर भूत प्राणी में ज्ञान के रूप में विराजमान है, जिसे व्यावहारिक रूप से जानकर उपासना करना ही सच्ची आराधना है, सच्ची देवी पूजा या दुर्गा पूजा है। वास्तव में दशहरा मनाने का यही सर्वोत्तम तरीका है। जब हमारे आंतरिक अनुभव शक्ति के प्रभुत्व से हमारे अंदर उपस्थित अज्ञानजनित विकारों की पराजय होगी तभी हम सही मायनों में रावण पर राम की विजय यात्रा को अपने वर्तमान जीवन में उतार पायेंगे।
अत: ऋषि मुनियों द्वारा निर्दिष्ट चैतन्य आदि शक्ति और आधुनिक भौतिक विज्ञान वेत्ताओं द्वारा बतलायी गयी अचेतन शक्ति के बीच लुप्त कड़ी को किसी समय के मार्गदर्शक महापुरुष सद्गुरु की शरणागत होकर जानने का प्रयत्न करें। उस लुप्त कड़ी का अहसास हर व्यक्ति को जब व्यक्तिगत स्तर पर होगा, मात्र सैद्घांतिक ही नहीं, स्वानुभूति पर आधारित होगा वही सच्चे अर्थों में विजयादशमी मनाना होगा।