अपनों से अपनी बात – June 2016

अपनों से अपनी बात…
प्रिय आत्मन्,
आशीर्वाद,

 

उपनिषद् का एक वाक्य सद्गुरुदेव बार-बार कहते थे – पूर्णमदः पूर्णमिदं…  इस श्‍लोक का सही अर्थ क्या आपने समझा है?

 

कामनाएं इच्छाएं तुम अपने आप को पूर्ण करने के लिये करते हो और उसके लिये निरन्तर और निरन्तर प्रयास भी करते रहते हो… लेकिन तुम यह जान लो कि तुम पूर्ण हो, अपने मन की कामनाओं से ऊपर उठो और अपने वास्तविक स्वभाव को जानों, जो अपने आप में परिपूर्ण और सन्तुष्ट है। यह जान लो कि तुम्हारे मन-मस्तिष्क का यह ट्रिक है कि तुम्हें अपनी जिन्दगी में कायर बनाया हुआ है। जबकि तुम वास्तव में परिपूर्ण हो, अपने मन को नियन्त्रण में करो और इसमें निरन्तर और निरन्तर खुशनुमा सकारात्मक भाव भरते रहो।

 

तुम जानते हो कि तुम्हें संसार में किस प्रकार का व्यवहार करना है। एक सरल सिद्धान्त अपना लो। नदी की तरह जीवन जीना है, नदी कभी भी वापिस उल्टी पहाड़ की ओर नहीं बहती है इसलिये अपने अतीत को भूलो और भविष्य के प्रति लक्ष्यबद्ध हो और इसी प्रकार निरन्तर  आगे बढ़ते रहो। सकारात्मक बनना है और यह कोई मुश्किल काम नहीं है।

 

अभी मैं बनारस गया था, उसके पहले सोमनाथ, दारुकेशवर क्षेत्र में नागेश्‍वर और उसके उपरान्त वैद्यनाथ में ज्योतिर्लिंग साधना सम्पन्न की। निखिल जयन्ती तो आपके साथ वाराणसी में सम्पन्न की, तीन दिन बाद  फिर वापिस वाराणसी गया। वहां मैं सारनाथ गया। सारनाथ वह स्थान है जहां बुद्ध ने बौधित्सव, आत्म ज्ञान प्राप्त करने के पश्‍चात् प्रथम बार अपना प्रवचन दिया था। इसके पहले पूरे साधनाकाल में वो एकाकी थे। तुम्हें मालूम है बुद्ध ने जब अपना ज्ञान दिया तो उनके पास कितने शिष्य थे? केवल और केवल पांच शिष्य – इन पांच समर्पित शिष्यों के नाम थे – कौण्डना, भद्रक, वापा, महामना और असाजी। एक वृक्ष के नीचे अपने इन पांच शिष्यों को बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि, संघम् शरणं गच्छामि…. का उपदेश दिया था और इन पांच शिष्यों ने पूरे भारत वर्ष में फैल कर बुद्ध का ज्ञान विस्तारित किया था। बुद्ध का ज्ञान केवल बुद्ध के कारण विस्तारित नहीं हुआ। उनकी चेतना पांच समर्पित शिष्यों के द्वारा विस्तारित हुई। शंकराचार्य के भी चार शिष्य थे – पद्मपाद, हस्तामलक, सुरेश्‍वर और त्राटक। इन शिष्यों के माध्यम से पूरे भारतवर्ष में सनातन धर्म का विस्तार किया। तंत्र के सम्बन्ध में फैली भ्रांतियां समाप्त की। यह केवल और केवल समर्पित शिष्यों के कारण संभव हो सका।

 

गुरु का ज्ञान, गुरु की चेतना, गुरु मुख से प्रसारित नहीं होती है। शिष्य माध्यम बनता है और ऐसे शिष्य चाहिए जो पूर्ण मदः पूर्ण मिदं का भाव लिये हुए हो। पूर्ण समर्पण से युक्त हो। ऐसे शिष्य पूरे संसार में क्रान्ति कर सकते है। निखिल ज्ञान को प्रसारित कर सकते है। इसके लिये आत्म प्रचार से ज्यादा आवश्यक है, समर्पण के साथ क्रियाशील होना।

 

जिस दिन शिष्य यह समझ जाता है –

 

गुर्वाज्ञा पालनार्थं हि प्राण व्यय रतोद्यतः।
विहत्य च स्वकार्याणि गुरुः कार्य रतः सदा।
आज्ञाकारी गुरोः शिष्यो मनोवाक्काय कर्मभिः।
यो भवेत्स तदा ग्राह्यो नेतरः शुभकांक्षया।

 

गुरु का कार्य मेरे कार्य से ज्यादा महत्वपूर्ण है। मुझे अपना कार्य को छोड़कर भी पहले गुरु का कार्य करना है क्योंकि गुरु की दृष्टि विशाल है, विराट है। मुझे केवल अपने घर-परिवार के लिये ही कार्य नहीं करना है। मुझे गुरु ज्ञान के लिये अपने प्राण हथेली पर लेकर चलने पड़े तो भी मैं चलूंगा क्योंकि यह जीवन गुरु का दिया हुआ है और यह जीवन गुरु को ही समर्पित है। समर्पित होने का अर्थ है, उस कार्य को करना, जिसके लिये गुरु ने तिल-तिल चलकर तपस्या की, ज्ञान को प्राप्त किया। उस ज्ञान-चेतना को समझ कर पूर्ण रूप से समझदार बनकर केवल अन्ध भक्ति, अन्ध श्रद्धा से नहीं, चेतना से युक्त होकर गुरु की चेतना को विस्तारित करना है। तब शिष्य की शिष्यता प्रमाणित होती है। ऐसे शिष्य निश्‍चित रूप से बहुत अधिक संख्या में नहीं होते है। ऐसे शिष्य तो दस-बीस-पचास ही होते है। ऐसे शिष्यों के कारण ही गुरु का नाम, गुरु का ज्ञान, विस्तारित होता है।

 

इस बार मैंने शिष्य के गुण सम्बन्धी एक आलेख दिया है, इसे बार-बार तुम अवश्य पढ़ना। शिष्य के तीन गुण है – जिन्हें मैं ब्रह्मा गुण, विष्णु गुण और शिव गुण कहता हूं। ये तीन गुण है – सजगता, समर्पण और संयम। हर बार गुरुचेतना के प्रकाश में अपने आपको परखते रहो। अपने भीतर दोषों को अंकुरित ही मत होने दो। चिन्ता को चित्त पर मत आने दो। यदि कोई चिन्ता मन तक आ गई है तो मन को तत्काल निर्देश दो कि हे मन! तु बड़ा होशियार है, तु मुझे अपने वश में करना चाहता है इसीलिये बार-बार चिन्ता को पकड़कर मुझे भीतर ही भीतर हिलाना चाहता है। यह निश्‍चय करो कि मैं इस चिन्ता को अपने चित्त पर नहीं आने दूंगा।
तुम्हारा चित्त विशुद्ध है, ये चित्त तुम्हारी वास्तविक सम्पत्ति है, वास्तविक स्वभाव है। इस स्वभाव पर मन ने एक परत डाल दी है और तुमने मन को ही अपना वास्तविक स्वभाव समझ लिया है इसलिये मन सदैव भ्रमित रहता है, मन कभी भी एकाग्र नहीं हो पाता है। उस मन को अपने चित्त के अधीन कर दो और ये चित्त तो गुरु से जुड़ा हुआ है इसीलिये तुम प्रार्थना में कहते हो कि – हे गुरुदेव!

 

त्वम् चित्ते मम् चित्ते, 
त्वम प्राण मम प्राण, 
त्वम् चिन्तय मम चिन्तय 
त्वम् आज्ञा सजीवन परिपालयः 

 

गुरु के चित्त के साथ तुम अपने चित्त को जोड़ दो, चित्त में एक ऐसी असीम शांति आ जायेगी, जिससे तुम्हारे मन की इच्छाएं भी पूरी हो जायेगी, भौतिक इच्छाएं भी पूरी हो जायेगी। इस बात को स्पष्ट रूप से जान लो।

 

संसार में तुम भी कार्य करते हो और इसी भौतिक संसार में गुरु भी कार्य करते है। तुम्हारे कार्य स्वः के लिये है तो गुरु के कार्य ‘सद्’ के लिये है इसीलिये गुरु को सद्गुरु कहा गया है।
सद्गुरु के प्रत्येक कार्य के साथ अपने आपको जोड़ दो… प्राणों का तुम्हारा सम्बन्ध कई जन्मों से गुरु के साथ है और यह सदैव गुरु के साथ जुड़ा रहेगा। इस जीवन में इन सम्बन्धों को समझ कर गुरु से प्राणगत, आत्मगत सम्बन्ध बना लो।

 

हरहाल में खुश रहो, हरहाल में मस्त रहो, शिव तुम्हारे साथ है, गुरु तुम्हारे साथ है।

 

हरिद्वार में गुरु पूर्णिमा के अवसर पर मिलेंगे.. बहुत बातें कहनी है और तुम्हारी बहुत बातें सुननी है, तुम जितने अधीर हो, उतना ही मैं भी तुम सब से मिलने के लिये अधीर हूं। तुम पूरे परिवार के साथ अवश्य आना।

 

सस्नेह आपका अपना
नन्दकिशोर श्रीमाली

Dialog with Loved Ones …

Dear Loved One,

Divine Blessings,

SadGurudev used to frequently quote a verse from the Upanishads – PoornamadaH Poornamidam … Have you ever comprehended true meaning of this verse?

You continue to make wishes and desires to achieve completeness, and you make steady and continuous efforts to accomplish them … however you should realize that you are perfect, elevate your mind above your inner desires, and comprehend your true nature, which in itself is perfect and satiated. You should understand that your mind-brain has tricked you into a illusion of cowardice in your life. Where as in reality, you are Perfect; you ought to control your mind and continuously infuse and imbibe pleasant positive thoughts into it.

You know how to behave and conduct in this world. Follow a simple principle. Lead your life like a river, the river never flows backwards towards the mountains, so forget about your past and set goals for the future; and continue to progress forward. You have to mould into a positive personality and this is not a tough job to do.

I recently visited Benaras, and prior to that I accomplished Jyotirling Sadhana in Somanth, Nageshwar in Daarukeshwar region and Veidyanath. Accomplished Nikhil Jayanti with all of you in Varanasi, and then returned back to Varanasi after three days. I visited Saarnath there. Saarnath is that holy spot where Lord Buddha gave his debut sermon after realizing Bodhitsav and Aatma-gyan (Self-Knowledge). He lived all alone in the Sadhana period before that. Do you know how many disciples Buddha had when he disseminated his knowledge? Just five disciples only – the names of these five dedicated disciples were  Kaundna, Bhadrak, Wapa, Mahamana and Asaji. He preached Buddham Sharanam Gachchami, Dhammam Sharanam Gachchami, Sangham Sharanam Gachchami … under a tree to these five disciples, and these five disciples spread this knowledge of Buddha throughout India. The enlightened knowledge of Buddha did not expand only through Buddha. His enlightenment expanded through the five dedicated disciples. Shankaracharya also had four disciple – Padmapaad, Hastamalak, Sureshwar and Traatak. The Sanatan religion spread throughout India through these disciples. He eradicated widespread misconceptions about Tantra. This could be possible only through dedicated disciples.

The knowledge of the Guru, the enlightenment of the Guru does not circulate through Guru’s speech. The disciple becomes a medium, and such disciples are needed who are full of PoornmadaH feelings. Should be full of dedication. Such disciples can bring in revolution in the world. They can circulate Nikhil Gyaan (knowledge). To achieve this, working with full dedication is more important that self-promotion.

The day the disciple understands that –

Gurvaagya Paalnarth Hi Praan Vyaye RatodhataH |

Vihatya Cha Svakaaryaani GuruH Kaarya RataH Sadaa |

Aagyaakaari GuroH Shishyo Manovaakkaye LarmabhiH |

Yo Bhavetsa Tadaa Grahyo NetaraH Shubhkaankshyaa |

 

The Guru’s tasks are more important than my own personal tasks. I ought to neglect my tasks to perform Guru’s tasks because Guru’s vision is vast and boundless. I do not have to perform tasks only for my home and family. Even if I have to risk my life for Guru Gyaan, I shall gladly take the risk,  because this life has been gifted by Guru, and this life is completely dedicated to Guru. Dedication means accomplishing the tasks, for which Guru underwent extremely difficult austerities, to obtain the knowledge. This Guru enlightenment should be disseminated through full consciousness after achieving complete understanding of knowledge-enlightenment and attaining perfect wisdom instead of blind devotion or blind faith. This attests the disciple’s disciple-hood. Obviously such disciples are not too many. Such disciples number only 10-20-50. Such disciple’s propagate Guru’s name and Guru’s knowledge.

I have written an article this time describing the attributes of a disciple, you must read it again and again. A disciple has three qualities – which I term as Brahma attribute, Vishnu attribute and Shiva attribute. These three qualities are – alertness, dedication and patience. You should continue to evaluate yourself in the Divine light of Guru consciousness. Do not let defects sprout within you. Do not let worry surface up on the mind. If a worry manages to reach the mind, then command your mind thus – Hey mind! you are very clever, you wish to enslave me, so you desire to shake me from within through these worries. Make a firm determination to never let worry enter the mind.

Your psyche is completely pure, this psyche is your real wealth, it is your real nature. The mind has covered it with a layer, and you consider this mind as your real nature, therefore your mind is always restless, it does not get concentrated. Put this mind under the control of your psyche, and this psyche is directly connected to Guru. Therefore you pray thus –  O Gurudeva!

Tvam Chitte Mam Chitte,

Tvam Praan Mam Praan,

Tvam Chintaye Mam Chintaye,

Tvam Aagya Sajeewan ParipaalayaH

Merge your psyche with the psyche of your Guru, the phyche will attain cool calm peace, which will also quest the wishes of your mind, and fulfil your material desires. Comprehend this fact clearly.

You also perform tasks in this world and Guru also performs tasks in this physical world. Your actions are for “self” while Guru’s actions are for “Sad(all)”. Hence Guru has been called SadGuru.

Join yourself with each action of SadGuru… Your soul has been connected to Him for many multiple births, and this relationship will endure in future. Comprehend these divine relationships and create soulful spiritual relationships with Guru.

Be happy in every situation, be joyful in every circumstance, Shiva is with you, Guru is with you.

We shall meet on Guru Poornima at Haridwar. Have many thoughts to say and many topics to listen to, I am as impatient to meet you, as you are eager to meet me. Come certainly with your whole family.

Cordially yours

 

Nand Kishore Shrimali

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