अध्यात्म से साक्षात्कार
अध्यात्म से साक्षात्कार
ज्ञानशक्ति समारूढं तत्त्वमाला विभूषितम्।
भुक्ति मुक्ति प्रदातारं तस्मै श्री गुरवै नमः॥
जो पूर्ण ज्ञान की शक्ति अपने-आप में समाये हुए हैं, जो समस्त शास्त्रों का तत्व अपने आप में लिए हुए हैं, जो एक साथ ही संसार के समस्त भोग और उनसे मुक्ति देने में समर्थ हैं, जो एक साथ ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष प्रदान करने में समर्थ हैं। उनको छोड़कर अन्य किस देवता की पूजा, आराधना, साधना करें? क्योंकि साधक के सामने तो सम्पूर्ण विश्व के चराचर भगवान श्रीगुरु साक्षात् उपस्थित हैं, ऐसे ही श्रीगुरु को हृदय से प्रणाम है।
सद्गुरु कृपा केवलम्
धर्म का आधार ही अध्यात्म है, धर्म का मूल अध्यात्म है। ज्ञानियों, संतों, योगियों द्वारा दी गई शिक्षा, उपदेश और उनके आचरण ही धर्म के स्रोत हैं। इस ज्ञान को दैवीय सम्पदा कहा जा सकता है, योगवाणी कही जा सकती है, संत धर्म कहा जा सकता है, सम्यक् जीवन कहा जा सकता है, बौद्धधर्म का पंचशील कहा जा सकता है, सदाचार के नियम कहे जा सकते हैं, जो सभी धर्मों में एक जैसे ही हैं। जो सच्चा मानव धर्म है वह केवल और केवल ॠषि-मुनियों, संत, महापुरुषों से प्राप्त हुआ अध्यात्म ही है। जो वर्तमान में भी प्राप्त हो रहा है और आगे भी प्राप्त होता रहेगा।
यह अध्यात्म, धर्म ही हमें इस संसार में अर्थ और काम पर नियन्त्रण रखकर हमारे इस संसार को आनन्ददायक, सुखद बनाता है और यह धर्म ही हमारे लिये चतुर्थ पुरुषार्थ मोक्ष अर्थात् मुक्ति का प्रेरक साबित होता है। इस प्रकार मूल रूप से धर्म और अध्यात्म एक दूसरे के पर्यायवाची ही हैं। धर्म का अर्थ ही अध्यात्म है और अध्यात्म को ही सामान्य भाषा में धर्म कहा जाता है।
धर्म के अनुसार मनुष्य संसार में अपनी कामनाओं से तुष्ट होकर अपने स्व की खोज की ओर प्रवृत्त होता है। वह स्वयं जो तत्व रूप में है, तत्वमसि है उसे प्राप्त करना चाहता है। यह बड़ी सरल सी बात है कि बिना योग्य गुरु के निर्देशन के अथवा उनके परोक्ष दिशा निर्देश के अभाव में सांसारिक शिक्षा भी मनुष्य के लिये कल्याणकारी नहीं होती है। वह विध्वंसक हो सकती है। सांसारिक विद्या को अपरा विद्या कहा जाता है। जितनी भी सांसारिक विद्याएं हैं, वे हमें पुस्तकों के माध्यम से, शिक्षक के माध्यम से, अनुभवी व्यक्तियों के माध्यम से ही प्राप्त हो सकती हैं। तो जो परा विद्या है, अध्यात्म विद्या है, आत्मसाक्षात्कार की विद्या है, जिसे ज्ञानियों ने योगियों ने ब्रह्मज्ञान, तत्वज्ञान, तत्व दर्शन कहा है, उसकी प्राप्ति तो केवल और केवल सद्गुरु के सान्निध्य में ही हो सकती है। इसके लिये आत्मसाक्षात्कार हेतु, तत्वज्ञान हेतु, आत्माभिषेक हेतु अपने भीतर के राज्याभिषेक हेतु, अपने भीतर सम्राटाभिषेक हेतु ऐसे गुरु जिन्हें सद्गुरु कहा जाता है उनकी शरण में जाना अनिवार्य ही है। यह सर्वविदित है कि सांसारिक विद्या अपरा विद्या के लिये सीख देने वाला, शिक्षा देने वाला आवश्यक है और बिना उचित गुरु के निर्देशन के किसी भी विषय का ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता है। तो सोचिये जो सर्वोच्च विद्या है, अध्यात्म विद्या है उसके लिये गुरु की अनिवार्यता कितनी आवश्यक है। निश्चित रूप से सद्गुरु के बिना यह संभव ही नहीं है।
जितनी भी सांसारिक विद्याएं हैं, वे आंशिक हैं, खण्ड-खण्ड हैं उनमें पारंगत हो जाने के बाद भी सबकुछ जान लेने की इच्छा पूरी नहीं होती है। अतृप्ति हमेशा बनी ही रहती है।
ये जो अध्यात्म विद्या है, ब्रह्मज्ञान है वह पूर्ण है। उसे जान लेने पर सबकुछ जान लिया जाता है। वही तृप्त ज्ञान है। इसे जान लेने पर जानने वाला वही हो जाता है, उसी रूप में आन्तरिक रूप से परिवर्तित हो जाता है, जिसकी जिज्ञासा उसके मन में होती है। इसे प्रज्ञानं ब्रह्म कहा गया है। जिसे मुण्डकोपनिषद् में एक श्लोक में सांराश रूप में बताया गया है –
तस्मै स विद्वानुपसन्नाय सम्यक्प्रशान्तचित्ताय शमान्विताय।
येनाक्षरं पुरुषं वेद सत्यं प्रोवाच तां तत्त्वतो ब्रह्मविद्याम्॥
इस प्रकार श्रद्धा-पूर्वक जब कोई जिज्ञासु चित्त में शांति लेकर, इन्द्रियों को कल्याण-मार्ग पर लगाकर गुरु के निकट पहुंचता है, तब वह विद्वान, जिस ‘ब्रह्म-विद्या’ के द्वारा उस अक्षर पुरुष का तात्त्विक-ज्ञान हो सकता है, उस ब्रह्म-विद्या का सत्य उपदेश दे देता है।
इसी को रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने इस प्रकार व्यक्त किया है –
सो जानै जेहि देहु जनाई।
जानत तुमहिं तुमहिं होइ जाई ॥
अपरा विद्या के क्षेत्र में कोई कितना ही बड़ा विद्वान् क्यों न हो वह ज्ञानमय नहीं हो सकता, केवल परा विद्या का पारंगत ही प्रज्ञानं ब्रह्म रूप होता है वही यह कहने का अधिकारी होता है कि –
अहं ब्रह्मास्मि
पराज्ञान इन्द्रियों का नहीं आत्मा का विषय है, इसमें पुस्तकें, प्रवचन तथा अन्य कोई भी साधन सफल नहीं होता। जो आत्मज्ञान प्राप्त कर चुका है, आत्मरूप हो चुका है, वही इस विद्या को दान करने का अधिकारी होता है, उसी की शरण में जाकर उसको प्रार्थना और सेवा से प्रसन्न करके ही उसे पाया जा सकता है।
मनुष्य को उसके स्वरूप से पहचान कराने वाली, उसको नया आध्यात्मिक जीवन प्रदान करने वाली यह पराविद्या संजीवनी शक्ति है जो पुस्तकों या अन्य सांसारिक ज्ञान के साधनों द्वारा नहीं मिल सकती। यह देह या इन्द्रिय का विषय नहीं है, यह विषय देहातीत है, इन्द्रियातीत है, आत्मिक है, अतः इसे एक आत्मा दूसरी आत्मा से ही सीख सकती है सीखने वाला जीवात्मा है तथा सिखाने वाला नरदेह में सगुण रूप से विद्यमान परमात्मा हैं जिन्हें सद्गुरु कहा जाता है। इस विद्या की प्राप्ति सद्गुरु के अतिरिक्त किसी से भी संभव नहीं है। कठोपनिषद् कहता है –
नयनात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन। यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुं स्वाम॥
अर्थात यह परमात्मा प्रवचन, बुद्धि अथवा श्रवणादि द्वारा प्राप्त नहीं होता अपितु यह जिसे अनुग्रह पूर्वक स्वीकार कर लेता है उसी के द्वारा प्राप्त हो सकता है; क्योंकि वह साधक को अपना स्वरूप दिखा देता है। अर्थात जिस तत्वदर्शी में परमात्मा स्वयं विराजमान हैं ऐसे सद्गुरु से ही ब्रह्म विद्या प्राप्त की जा सकती है।
जिसको पाने से अपने स्व का विवेक जाग्रत होता है, अखण्ड शान्ति का अनुभव किया जा सकता है, परमानन्द में विहार किया जा सकता है उसकी प्राप्ति बिना सद्गुरु कृपा से कैसे संभव है। अपने अनंत अखण्ड जीवन को पहचानने तथा क्षणभंगुर संसार के विषय-विकारों से छुटकारा पाने के लिए सद्गुरु के नाम का जप और उनकी बताई विधि के अनुसार साधना, सेवा करने से ही परमात्मा से तादात्म्य स्थापित करने की युक्ति मिलती है। परमात्मा से तादात्म्य स्थापित करना सद्गुरु से ही तादात्म्य स्थापित करना या उन्हीं का रूप हो जाना है। उनकी ही महती कृपा से यह संभव है। कहा है –
दुर्लभ नर तन पाई के कर ले सद्गुरु ध्यान।
सेवा पूजा अर्चना पा ले आतम ज्ञान॥
परमपिता परमात्मा श्री सद्गुरु द्वारा प्रदत्त मनुष्य शरीर को प्राप्त करके इस अनमोल सुन्दर अवसर को, अपने मनुष्य जीवन को सार्थक बनाने में लगा देना चाहिये। ऐसा करने से लौकिक जीवन आनन्दमय हो जाता है और परलोक भी संवर जाता है। सन्त महापुरुषों का कहना है कि मनुष्य को चाहिये कि अपने लक्ष्य को हर समय अपने सामने रखे तथा यह तय करे कि जीवन को किस लक्ष्य की ओर ले जाना है। जब तक यह तय नहीं कर लिया जाता है कि मुझे कहां जाना है तब तक मार्ग चयन की चर्चा ही निरर्थक रहती है। निरुद्देश्य भटकते रहना मनुष्य जीवन के लिये आत्मघात के समान है। प्रकृति के प्रवाह में अन्धे होकर बहते रहना ईश्वरीय वरदान स्वरूप प्राप्त मानव जीवन को पशुतुल्य बना देना है। ऐसा लक्ष्यहीन जीवन बिताने वाला व्यक्ति अपने मनुष्य तन से अपने लोक परलोक सुधारने और संवारने के अवसर से वंचित होकर, सांसारिक बाधाओं से त्रस्त होकर व्यर्थ ही काल, कर्म और ईश्वर को दोष देता फिरता है। रामचरित मानस में भगवान ने स्वयं कहा है –
सो परत्र दुख पावै सिर धुनि धुनि पछताय।
कालहिं कर्महिं ईश्वरहिं मिथ्या दोष लगाय॥
जीव का मुख्य उद्देश्य परमात्मा को प्राप्त करना है, जिसका वह स्वयं अंश है। अपने अंशी से एकरूप हो जाना ही उसकी मंजिल है। यही उसका केन्द्र बिन्दु है। अभिप्राय यह है कि अपनी मंजिल पर पहुंचने के लिये अपने ध्यान को भी लक्ष्य पर केन्द्रित करना पड़ेगा। लक्ष्य कैसे प्राप्त होगा? ये स्थूल चक्षु जब साधक अपने ध्यान की समस्त धाराओं को भीतर की ओर मोड़कर श्री सद्गुरु के भजन, सुमिरन,सेवा, पूजा में लगा देगा तो यही स्थूल रूप में परमात्मा (सद्गुरु) अपने सूक्ष्म वास्तविक रूप या आत्मज्योति का दर्शन करा देगा। परमात्मा सूक्ष्म सत्ता से साकार श्री सद्गुरु के रूप में स्थूल देह इसलिये धारण करते हैं कि इस स्थूल रूप की ज्योति के भजन, सुमिरन से सूक्ष्म ज्योति को भी देखा जा सके। जब श्री सद्गुरु के स्थूल रूप की पावन ज्योति हृदय में जग जाती है तो परमात्मा की ज्योति के दर्शन हो जाते हैं। कबीर साहब कहते हैं –
मूल ध्यान गुरु रूप है पूजा मूल गुरु पांव।
मूल मंत्र गुरु वचन है मूल सत्य सतभाव॥
यदि परमात्मा की ज्योति देखने की अभिलाषा है तो श्री सद्गुरु का ध्यान ही मूल मंत्र है; उपासना के लिये सद्गुरु चरण की सेवा ही मूलपूजा है, आचरण के लिये सद्गुरु का वचन ही मूलमंत्र है, गुरु का नाम ही जपनीय है तथा सद्गुरु में सत्भाव या परमात्मभाव बनाये रखना ही सत्यभाव है।
मानव स्वभाव की यह विशेषता है कि जिस ओर उसका ध्यान केन्द्रित हो जाता है वही स्वप्नावस्था अथवा उनींदी या जाग्रत अवस्था में स्थूलाकार के रूप में आंखों के सम्मुख घूमते दिखाई देता है। जब सम्पूर्ण ध्यान एकमेव उसी पर केन्द्रित कर दें तो वही आकार या मूर्ति वास्तविक रूप से स्पष्ट दिखाई देना आरम्भ कर देती है, यहां तक कि कई बार एकरूपता की स्थिति भी बन जाती है। इसी प्रकार ध्यान की क्रिया के सतत अभ्यास से सद्गुरुदेव का साकार रूप दिखाई देने लगता है। आध्यात्मिक साधना की यह महान उपलब्धि है।
श्रीसद्गुरु से बढ़कर और कोई नहीं है। वे ही अपने स्वरूप में आत्मा का परमात्मा से मिलाप कराते हैं। वे स्वयं हरि हैं, ब्रह्म ज्ञान प्राप्त स्वयं परब्रह्म हैं, अपने सूक्ष्म सत्स्वरूप में वे ही अलख, अगम तथा अगोचर हैं। वे ही मूल सार हैं उन्हीं को प्राप्त करना है। अपने परम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए एकमात्र उन्हीं की आवश्यकता है। अतः जिज्ञासुओं के लिए ब्रह्मवेत्ता आचार्य अथवा श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ श्री सद्गुरु की शरण में जाकर उनकी कृपा प्राप्त करना परम आवश्यक है। सन्त बसनाजी कहते हैं –
संगत कीजै सन्त की जिनका पूरा मन।
अनमोल ही देत है नाम सरीखा धन॥
शरीर के जीवन-यापन चलाने, उसकी रक्षा और चतुर्दिक विकास हेतु अनेक प्रकार की विद्याओं तथा कलाओं की शिक्षा देने के लिए एक नहीं अनेक गुरु मिल जाते हैं, धनादि सांसारिक साधन भी सहायक होते हैं, परन्तु आध्यात्मिक विकास के लिए पराविद्या की शिक्षा देने वाले मात्र एक गुरु ही होते हैं, जिन्हें दीक्षागुरु या सद्गुरु कहा जाता है। पारब्रह्म का साक्षात्कार परमात्मा बन चुकी प्रज्ञावान आत्मा से ही होता है। जैसे जलते हुए दीपक से ही दूसरा दीपक जलता है वैसे ही अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित जाग्रत आत्मा से ही सोई हुई आत्मा जगाई जाती है।
इसलिए आध्यात्मिक मार्ग के जिज्ञासु के लिए आवश्यक है कि वह ऐसे ही महापुरूष से दीक्षा ग्रहण करे जिसे स्वयं आत्मदर्शन हो चुका हो। जिसने स्वयं ब्रह्म साक्षात्कार कर लिया हो। ऐसा ही परम सन्त दीक्षा गुरु बनने का अधिकारी होता है।
मूलतः परमात्मा ही जो हमारी घट में रम रहा है हमारा वास्तविक गुरु है। दुर्भाग्यवश आंखें होते हुए भी हम उसे देख नहीं पाते और कान होते हुए भी उसकी आवाज सुन नहीं पाते। यह आन्तरिक गुरु हर समय हमें सचेत किया करता है परन्तु अपनी कामनाओं और आसक्तियों के शोरगुल में हमें उसकी आवाज सुनाई नहीं देती। इस सांसारिक भागदौड़ और शोरगुल में इस प्रकार की अन्तर्ध्वनि न सुनाई देना
स्वाभाविक भी है। हमें वही सुनाई देगा जो बाहर से कान में पड़े। इसलिए साकार या शरीर धारी गुरु की आवश्यकता है। ऐसा गुरु यद्यपि शिष्य से पृथक प्रतीत होता है तथापि उसकी आवाज ही हमारी आत्मा की आवाज है। उसके द्वारा हम अपने भीतर रमे परमेश्वर की ही आवाज अपने कानों से सुनते हैं। सद्गुरु ही हमारे आत्मा के रूप हैं। इसलिए कहा गया है –
सद्गुरु सिष की आत्मा सिष सद्गुरु की देह।
लखा जो चाहे अलख को इनही में लख लेय॥
यदि हमारे हृदय के द्वार बिल्कुल ही बंद न हों तो ऐसे वचन हम स्वभावतः पहचान ही लेते हैं। हमारे दिल की गहराईयों में वह तत्व मौजूद है जो कि ऐसे वचन की सत्यता समझ जाता है क्योंकि ये वचन ऐसे तत्वदर्शी के मुख से निःसृत हो रहे हैं जो स्वयं हमारी अन्तरात्मा का प्रत्यक्ष स्वरूप है। ऐसे सद्गुरु की प्राप्ति परम सौभाग्य की बात है।