Depression (अवसाद)

जीवन में दुःख आपको ढू़ंढ ही लेते हैं, पर ये दुःख के भाव एक अर्द्धविराम से ज्यादा नहीं हैं क्योंकि जब तक सफलता नहीं मिलती तब तक जंग जारी है और कोई भी लड़ाई अपने-आप पर आघात करके तो नहीं जीती जा सकती है।
– सद्गुरुदेव नन्द किशोर जी श्रीमाली


अवसाद के पार ले जाता गुरु का द्वार

 

अवसादग्रस्त व्यक्ति सामान्य दिखता है, पर वह सामान्य होता नहीं है। कई बार उसके अवसाद की अभिव्यक्ति बेलगाम क्रोध में होती है, तो कभी-कभी डिप्रेशन के मरीज खामोश हो जाते हैं। ना तो वे किसी से मिलना चाहते हैं और ना ही उन्हें अपने इर्द-गिर्द हंसते-मुस्कुराते लोग भले लगते हैं। क्यों डिप्रेशन के शिकंजे में आज बच्चे और बड़े दोनों जकड़े हुए हैं?
और कैसे गुरु आपको डिप्रेशन के पार ले जा सकते हैं? आइए समझते हैं अवसाद के अनछुए पहलुओं को इस मर्मस्पर्शी लेख में।

जब से आप होश संभालते हैं आपके जीवन की सारी क्रियाएं सुख की अनुभूतियों को एकत्र करने के चहुं ओर केन्द्रित रहती हैं। ‘सुख एक शब्द नहीं, एक अनुभव है जो मन और आत्मा की सतह पर महसूस किया जाता है। चाहे वह ‘सुख’ एक सुस्वाद व्यंजन से प्राप्त हो, या फिर किसी आत्मीय से फोन पर वार्ता करके, या फिर गुरु चरणों अथवा इष्ट के चरणों में शीश नवाकर। सुख का अनुभव तो मन के द्वारा ही किया जाता है।

 

सुख की भी एक विडम्बना है। सारा जीवन इसकी खोज में खर्च किया जाता है, पर यह सुख आंख मिचौली का खेल खेलता रहता है। क्षणिक काल के लिए पास आता है और फिर दूर चला जाता है।

 

वहीं दूसरी ओर ‘दुःख’ अनायास मिल जाता है। उसे आप नहीं ढूंढ़ते हैं, वह आपको ढूंढ़ता है, बिन बुलाए मेहमान की तरह और फिर अटक सा जाता है। सांसें घुटने लगती है दुःख के सान्निध्य में, पर दुःख तो समाप्त होने का नाम ही नहीं लेता है। भांति-भांति के रूप धरता है, जैसे अन्तहीन निराशा, घनघोर उदासी, फिर वह धीरे-धीरे अवसाद में बदल जाता है जो व्यक्ति से जीने का जज्बा और उत्साह दोनों छीन लेता है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के पास एन्टी डिप्रेशन की गोलियों से अधिक अवसाद के लिए कोई उपाय नहीं है। कई बार डिप्रेशन को मानसिक कमजोरी समझा जाता है और इससे स्वतः लड़कर बाहर निकलने की सलाह दी जाती है।

 

काश! डिप्रेशन से उबरना इतना ही सरल और सुगम होता।
डिप्रेशन बनाम अवसाद

 

डिप्रेशन अव्यक्त क्रोध है। सक्रिय रूप में क्रोध की अभिव्यक्ति मार-पीट, लडाई-झगड़ा है, पर निष्क्रिय क्रोध जो डिप्रेशन में महसूस किया जाता है उसकी अभिव्यक्ति आन्तरिक होती है। यही कारण है कि अवसादग्रस्त लोग अपने से ही रूठे होते हैं। उन्हे अपना ध्यान रखना भारी लगता है। खाना-पीना छोड़ देते हैं, या फिर बहुत खाते हैं, कई बार व्यसनों में लिप्त हो जाते हैं अपनी कुण्ठाओं के अहसास को मन्द करने के लिए। कभी तो ये लोग बिना बात ठहाके लगाते दिखेंगे तो कभी कमरे में बन्द होकर इतना रोएंगे कि आंसू भी कम पड़ जाएं। दरअसल, डिप्रेशन बेबसी का पर्याय है। एक असाधारण दुःख है। ऐसी काली रात है जहां ऊषा की एक किरण को भी अन्दर आने की अनुमति नहीं है।

 

डिप्रेशन की वजह समझें –

 

मनुष्य शब्द पर ध्यान दें। इसमें मन प्रारम्भ में आता है। मनुष्य की समस्त गतिविधियां मन को तृप्त करने के लिए ही होती हैं। सुखों की प्राप्ति के लिए भागदौड़ भी मन को प्रसन्न करने के लिए ही है, पर मन को सही अर्थों में प्रफुल्लित ‘प्रेम’ और ‘सम्मान’ करते हैं।

 

ऐसा कोई मनुज नहीं जिसके मन में ‘प्रेम’ और ‘सम्मान’ प्राप्त करने की चाह नहीं। लोग मेरे बारे में अच्छा बोलें, समाज में मेरा रुतबा बना रहे – यह प्रत्येक व्यक्ति चाहता है पर प्रेम का हमारे समाज में नितांत अकाल है। चाहता हर कोई प्रेम है, पर देने में अत्यधिक कृपणता बरतता है। दो मीठे बोल बिना किसी स्वार्थ के हम किसी से कहना ही नहीं चाहते हैं, क्योंकि अवसाद का निवास तो हर हृदय में किसी न किसी रूप में है ही। कहीं यह भय के रूप में है, तो कहीं निराशा के रूप में। ऐसे मन में प्रेम का बिरवा सूख जाता है, फिर बांटा कैसे जाए प्यार?

 

डिप्रेशन का इलाज – गुरु के पास –

 

जाहिर सी बात है जाना किसी ऐसे व्यक्तित्व की शरण में पड़ेगा जो प्यार का सागर हो, करुणा का पुञ्ज हो और दया की मूरत भी हो। शास्त्रों ने इन विशेषताओं से युक्त को ‘ईश्‍वर’ की उपमा देता है और जीवन्त रूप में ‘गुरु’ शिष्य के जीवन में दया, करुणा और प्रेम की मूरत बनकर आते हैं। नकली कागजी पुष्पों सा प्यार मनोचिकित्सकों के पास मिल जाता है पर रस, गन्ध से परिपूर्ण प्रेम जो मन की शुष्कता मिटा दे, घनघोर उदासी को भस्मीभूत कर दे सिर्फ गुरु ही प्रदान कर सकते हैं।

 

अवसाद की दशा में जब आप गुरु के शरणागत होते हैं तब गुरु की करुणा, गुरु का प्रेम आपके प्रति उमड़ पड़ता है। फिर, मन स्वतः रस से परिपूर्ण हो जाता है।

 

एक बून्द मोती बने, एक सागर बन जाय
जितनी करुणा गुरु करे, शिष्य मान बढ़ जाय
उस करुणा के प्रवाह में आपका क्रोध, खीझ और आहत अहंकार सब बह जाते हैं। नए हो जाते हैं आप, पुनः सपनों का पीछा करने के लिए।

 

मन की सुनो, मन को समझो –

 

कहा गया है कि मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। पर सारी दुनिया आपको मन को मारने की, उस पर अंकुश रखने की सलाह देती है। इतना विरोधाभास क्यों है और कहीं मन को मारते-मारते आपने उत्साह, जिजीविषा (जीने की इच्छा) और प्रसन्नता जो आपका नैसर्गिक स्वभाव है उसे तो नहीं मार दिया।

 

चलिए मन से बात करते हैं –

 

जीवन में मनचाहा कार्य जब नहीं होता, उस समय मन का थोड़ा नाखुश होना स्वाभाविक है, पर जब यह उदासी लम्बी खिंच जाती है तब मनोरोग बन जाता है।

 

याद कीजिए, सुख मन की तृप्ति हेतु अर्जित किए जाते हैं और दुःख भी मन को ही मायूस करते हैं। किसी कार्य को पूर्ण उत्साह के साथ सम्पन्न करने की प्रेरणा मन देता है और जब मन हार मान लेता है, उस क्षण वह एक अन्तहीन उदासी के सफर पर चल पड़ता है।

 

जिन्दगी में बाधाओं से हार जाना कोई गंभीर बात नहीं। यह तो होता रहता है। कभी योजनाएं फलीभूत होती हैं और कभी महंगा सबक मिलता है। पर, गंभीर बात तब होती है, जब बिना संघर्ष किए आप हथियार डाल देते हैं। बिना लड़े हार मान लेते हैं। ऐसे में आपका चतुर मन सौ तरह के बहाने बनाता है संघर्ष नहीं करने का फैसला कर लेता है, जैसा विषादग्रस्त अर्जुन ने कुरुक्षेत्र की रणभूमि में किया।

 

गुस्सा कहीं लावा तो नहीं बन गया?

 

जब कोई कार्य मन के अनुसार नहीं होता तो गुस्सा या नाराजगी प्रकट करना मनुष्य का स्वभाव है। छोटा बच्चा भी क्रोधित होता है तो सामान फेंकता है, पर उसका क्रोध उबलकर शान्त हो जाता है। वह उस क्रोध का मंथन नहीं करता है।

 

पर डिप्रेशन में क्रोध मन के अन्दर रिसता है। उसे कसैला कर देता है और धीरे-धीरे प्राणों से ऊर्जा एवं रस सोख लेता है। अवसाद में व्यक्ति खिलाफ खड़ा होता है, परिस्थितियों के। अन्तर सिर्फ इतना है कि जिन परिस्थितियों के परिणाम उसके मनोनुकूल नहीं होने से उसे ठेस पहुंची है, वह उन हालातों से ना तो समझौता कर पाता है और ना ही उनसे लड़ने का हौंसला जीवित रख पाता है।

 

उन परिस्थितियों पर प्रति आघात करने की उसकी ऊर्जा शिथिल हो जाती है और वह स्वयं पर क्रोधित होता है, बेबस और खीझा हुआ। जैसे-जैसे वह अवसाद की गर्त में उतरता है, स्वयं पर अत्याचार करता है। कभी दुर्व्यसनों की गर्त में डूबकर तो कभी परिवार में कलह का कारण बनकर।

 

अपने पर आघात

 

पर क्यों अवसाद में स्वयं पर आघात किया जाता है? क्योंकि अवसाद आहत अहंकार है। कोई सपना जो नयनों में पला और फिर आंसू संग बह गया दुःख की पृष्ठभूमि तय करता है।

 

सपना हर व्यक्ति का मान होता है, उसकी प्रेरणा, उसका उत्साह। कई बार सपने टूट जाते हैं और साथ में तोड़ देते हैं उस व्यक्ति को भी जिसकी आंखों में वे बसे थे कभी। ऐसे में खंडित व्यक्ति चाहता है कि सब उसके प्रति संवेदना दर्शाएं उसे स्वीकार करें, उसकी असफलता के बावजूद भी, क्योंकि वह खुद को हारा हुआ महसूस कर रहा है।

 

उसकी इच्छा है कि दो मजबूत भुजाएं आगे बढ़ें और उसे अपना लें और उसे कहें कि तुम खास हो, सबसे अलग और सफलता तुम्हारा अधिकार है। यह आश्‍वासन सिर्फ गुरु दे सकते हैं। गुरु अपना लेते हैं शिष्य को और प्राणों के तारों से जुड़ जाते हैं गुरु और शिष्य।

 


सफलता और टाइम जोन

मुझसे भेंट करने एक बार 17-18 वर्षीय बालिका को लेकर उसकी मां आई। लड़की को देखकर ऐसा लग रहा था, मानो कई दिनों से नहाई नहीं थी। उसने अपनी मां से इशारे में कहा कि वह मुझसे अकेले में बात करना चाहती थी। उसकी मां ने एक दीन दृष्टि से मेरी ओर देखा और बाहर निकल गई। एकान्त में लड़की ने कहा, ‘गुरुजी एक अजब सी उदासी है। कितना भी रो लूं, आंसू सूख जाते हैं, पर उदासी खत्म नहीं होती है। ना तो खाने का मन करता है, ना किसी से बात करने का। सारा दिन कमरे में सोई रहती हूं। बाल भी संवारने का मन नहीं करता।’

 

उसकी स्थिति देख मेरा मन द्रवित हो उठा था। मैंने पूछा ‘हुआ क्या तुम्हारे साथ? इस उम्र में इतनी उदासी क्यों?’

 

उसका उत्तर चौंका देने वाला था, ‘मैं बहुत होनहार विद्यार्थी हूं। स्वयं से कई उम्मीदें हैं मेरी और मैं इंजीनियरिंग की एन्ट्रेन्स परीक्षा फेल हो गई।’

 

मैंने पूछा, ‘क्या परीक्षा अगले साल नहीं होगी? मेहनत करना इस बार अच्छा रैंक लाओगी।’

 

वह झुंझलाए स्वर में बोली, ‘सब यही बोलते हैं, पर कोई यह नहीं समझता कि लावण्या, मेरे बचपन की सहेली, वह इंजीनियरिंग की एन्ट्रेन्स परीक्षा में पास हो गई और मैं परीक्षा में फेल हो गई। हमेशा मैं उससे अधिक अंक लाती आयी हूं। अब वो जिन्दगी की रेस में मुझसे आगे निकल जाएगी। यही दुःख मेरे मन-प्राण को खा रहा है।’

 

मैंने उसके शीश पर हाथ फेरा और उसे बाहर उद्यान में लगे पौधों के पास ले गया। गेंदे के फूल लगे थे और आम का पौधा भी था। मैंने उसे बताया, ‘ये दोनों पौधे आज ही लगाए हैं।’

 

‘बताओ कौन सा पौधा जल्दी फलेगा-फूलेगा?’ मैंने पूछा, उसने कहा, ‘यह भी कोई पूछने की बात है?’ गेंदे का पौधा जल्दी फूल देगा। आम का पौधा समय लेगा पर छायादार पेड़ बन जाएगा। फिर मैंने कहा कि अगर अब आम का पौधा गेंदे में लगने वाले फूलों को देखकर असंतुष्ट हो जाए, तो इसका अर्थ यह हुआ कि उसे भरोसा नहीं है प्रकृति पर। प्रकृति में सब कुछ निर्धारित समय पर होता है, ना तो समय से पहले और ना समय के बाद।

 

बात शायद उस बालिका के समझ में आ गई थी और उसके अधरों पर मुस्कुराहट तैर गई।

 

भारत में जब सूर्यास्त होता है, उस समय अमेरिका में सूर्य निकलता है। 10-12 घंटे वहां का समय यहां के समय से पीछे है पर सुबह तो दोनों जगह होती है और उस सुबह को देखने के लिए, उसे अनुभव करने के लिए सिर्फ आंखें खोलने की जरूरत है।

 


न तो जीत आखिरी है
ना ही कोई हार आखिरी है
जिन्दगी में चलते चलो
मंजिल मिली नहीं तो
बढ़ते चलो बढ़ते चलो
क्योंकि ना तो कोई जीत आखिरी है
ना ही कोई हार आखिरी है।

समय और परिस्थिति से थक हार कर जब तुम मेरे पास आते हो, मैं अपनी ऊर्जा से तुम्हारे मन-प्राण को सींचता हूं। दीक्षा तुम्हारे उत्साह विहीन मन को नवीन कर देती है। तुम्हारा संताप मैं रख ले लेता हूं और विश्‍वास से तुम्हारी दुबारा मुलाकात करा देता हूं…
– सद्गुरुदेव नन्द किशोर जी श्रीमाली

क्या तनाव और अवसाद जुड़े हैं?
हां और नहीं। कुछ हद तक तनाव जरूरी है क्योंकि बिना उसके आप अपने प्रयास शत प्रतिशत लगा नहीं पाएंगे। पर जरूरत से ज्यादा तनाव और खासकर वह तनाव जो घर-परिवार, नाते-रिश्तेदारों की उपेक्षा से प्राप्त हुआ है आपको धीरे-धीरे अवसाद की ओर ढकेल देता है। ध्यान, पूजा-पाठ, मंत्र जप अवसाद से क्षणिक राहत देते हैं, पर अवसाद मुक्त आपको सिर्फ गुरु कर सकते हैं। गुरु आपका भार ले लेते हैं और जैसे ही आप अपनी अपेक्षाओं, अधूरी कामनाओं का बोझ अपने गुरु को सौंप देते हैं , आप स्वतंत्र हो जाते हैं, हल्के और अवसाद मुक्त।
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